(पं. विजयशंकर मेहता )
दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा बड़ी प्रिय लगती है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के युग में एनालिसिस की आड़ में आलोचना और निंदा की आदत कब जन्म ले लेती है पता नहीं लगता। आलोचना और निंदा में बारीक-सा फर्क है।
निंदा का अर्थ है अपने अहंकार का दूसरे के अहंकार से टकराना, जबकि आलोचना का मकसद होता है कहीं न कहीं सत्य को ढूंढ़ना। निंदा के पीछे शत्रुता छिपी है और आलोचना मैत्री को साथ लेकर चलती है। निंदा में मिटाने का भाव है, आलोचना में जगाने की इच्छा होती है।
निंदा का नुकसान रानी कैकयी ने उठाया था। रामजी के राजतिलक के पूर्व एक ही रात में कैकयी के सामने मंथरा ने जो वार्तालाप आरंभ किया था, उसका आरंभ निंदा स्तुति से ही हुआ था। अपनी निंदा वृत्ति को उसने कैकयी में भी प्रवेश करा दिया था। कैकयी के जीवन में निंदा आते ही राम दूर चले गए। निंदा की आदत भगवान को हमसे दूर कर देती है।
निंदावृत्ति ने पूरे विश्व के धार्मिक दृश्य को आहत किया है। अनेक धार्मिक गुरु और उनके असंख्य अनुयायी एक-दूसरे के प्रति निंदा भाव रखने के कारण धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाते गए। धर्म शास्त्र अपने शब्दों से पहचाने गए हैं, निंदा के खेल में शब्दों की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन अध्यात्म थोड़ा धर्म से गहरा मामला है। यह शब्द से परे है। धर्म व्यक्त है, अध्यात्म अनुभूति है। हम और हमारा धर्म श्रेष्ठ, बाकी सब निकृष्ट है यह निंदावृत्ति की ही देन है।
Wednesday, October 20, 2010
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1 comment:
अति उत्तम लेख है.सही कहा आपने .निंदा करने वालों को भगवान भी माफ़ नहीं करता .कहा भी गया है निंदक नियरे राखिये .आँगन कुटी छवाय ............"
अरुण बंछोर
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