Monday, April 2, 2012
पंजाब सरकार को सही फटकार
(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
‘‘एक व्यक्ति (बलवंत सिंह राजोआणा) हत्या का दोषी है। दिन-दहाड़े एक मुख्यमंत्री की हत्या हुई थी लेकिन आतंकी कार्रवाई के दोषी पाए गये व्यक्ति को राजनीतिक समर्थन मिल रहा है। वे (पंजाब सरकार) उन्हें छोड़ वैâसे सकते हैं? ‘‘यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जी.एस. सिंघवी और एस.जे.मुखोपाध्याय की बेंच ने गत दिवस की थी। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के दोषी राजोआणा को अदालत से राहत नहीं मिली है। उसे सुनाई गई फांसी की सजा के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई के दौरान पंजाब सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई है। शीर्ष अदालत की इस टिप्पणी से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि ‘‘चार दिनों में जो हुआ। (पंजाब में घटनाएं) वह सब कुछ साफ करने वाला है। यह सब नौटंकी है। अगर समय रहते सही कदम उठाये गये होते तो सरकारी खजाने को करोड़ों का नुकसान नहीं होता।’’ राजोआणा के मामले और उसके समर्थन में पंजाब में चार दिनों तक मचाये गये हंगामे पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद राज्य की शिरोमणि अकाली दल और भाजपा गठबंधन सरकार के पास बोलने को क्या है? एक हत्यारे के समर्थन में राज्य में बना दिये गये उन्मादी माहौल पर प्रकाश सिंह बादल सरकार की दुम दबी मुद्रा तथा राजोआणा को माफी देने के लिए बादल द्वारा की गई मांग दोनों ही आश्चर्य का विषय रही है। सरकार और सरकार चलाने वालों की यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि वे कानून का उल्लंघन करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा सुनिश्चित कराएं। लेकिन पंजाब में हालात कुछ उलट ही दिखे। बादल सरकार में सहयोगी और राष्ट्रभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली भारतीय जनता पार्टी ने राजोआणा के मामले में रहस्यमयी चुप्पी साध रखी थी। कांग्रेस मांग कर रही है कि राजोआणा की फांसी की सजा उम्रवैâद में बदल दी जाए। राज्य के तीन बड़े राजनीतिक दलों का ऐसा व्यवहार जहां गर्मख्याली संगठनों के हौसले बढ़ाने वाला लगा वहीं यह उन आतंकियों के लिए हौसले बढ़ाने वाला हो सकता है जो राज्य में आतंकवाद को सख्ती से कुचले जाने के बाद से सुसुप्तावस्था में पड़े हैं। दरअसल, तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारे श्रीलंकाई तमिलों, पंजाब में राजोआणा का मामला तथा संसद पर हमले के दोषी अफजल गुुरु के मुद्दे ने कई सवालों को खड़ा कर दिया है। एक खतरनाक प्रवृत्ति के हत्यारों को हीरो बनाकर वोटबैंक की राजनीति करने की बढ़ी है। चुनौती यह है कि इस पर रोक वैâसे लगाई जाए? देखा यह भी गया है कि दया याचिकाओं के निबटारे का तरीका भी बहुत लंबा और कुछ हद तक दोषपूर्ण है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा था कि ‘‘दया याचिकाओं के निबटारे में द्वैधता क्यों हैं?’’ बरसों-बरस दया याचिकाएं राष्ट्रपति के समक्ष विचारार्थ लंबित रहती हैं। प्रक्रिया के नाम पर टरकाऊ उत्तर दिये जाते हैं। इससे पीड़ित को न्याय मिलने में विलंब होता है तथा राजोआणा जैसे हत्यारों के पक्ष में निहित स्वार्थ सहानुभूति का माहौल बनाने में कामयाब हो जाते हैं। एक बुरी बात यह देखने में आने लगी है कि अब कई राजनीतिक दल भी वोट की घटिया राजनीति के चलते हत्यारों और अपराधियों के समर्थन में सहानुभूति प्रकट करने में झिझक महसूस नहीं करते। लेकिन ऐसा उन्हीं मामलों में अधिक देखा गया है जहां जनता के एक वर्ग में उन्माद भड़काना आसान होता है। याद करें, धनंजय चटर्जी को। एक नाबालिग लड़की का बलात्कार और उसकी हत्या के दोष में धनंजय को फांसी दे दी गई थी। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दलों ने इस मामले में हस्तक्षेप नहीं किया। वे जानते थे कि उन्हें ऐसे हत्यारे के लिए समर्थन नहीं मिलेगा। अनुभव रहा है कि पश्चिम बंगाल में अपराधियों को आमतौर पर संरक्षण और सहयोग नहीं मिलता है। इस राज्य में कानून तोड़ने वालों को आम लोगों द्वारा खदेड़े जाने के सैकड़ों उदाहरण भरे हैं। वहां धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रीयता, भाषा और जातीयता का प्रभाव कानून की राह में कम ही आता दिखा है। लेकिन पंजाब और तमिलनाडु में जो देखा गया वह चिंता बढ़ाने वाला है। अब लग रहा है कि कुछ कदम तत्काल उठाये जाने की जरूरत है। जैसे-आपराधिक मामलों के निबटारे को गति दी जाए और दो-तीन सालों में हर मामले का निबटना सुनिश्चित हो। ऊपरी अदालतों में अपीलों के निबटारे की समय-सीमा होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम पैâसले के बाद दया याचिका का अधिकतम छह माह में निबटारा होना चाहिए। इन प्रयासों से न्याय व्यवस्था पर आमजन का विश्वास और अधिक मजबूत होगा तथा हत्यारों एवं अपराधियों को हीरो बनाने का अवसर किसी को नहीं मिल सकेगा।
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