Friday, November 25, 2016
नोटबंदी से केजरीवाल क्यों बेहाल?
-अनिल बिहारी श्रीवास्तव
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा है यदि प्रधानमंत्री यह साबित कर दें कि 500 और 1000 हजार रुपए के नोट बंद कराने से कालाधन खत्म हुआ है तो वह उनकी प्रशंसा में ताली बजाएंगे और उनके नाम का जाप करने लगेंगे। नोटबंदी की घोषणा के बाद से ही केजरीवाल और उनकी पार्टी के लोग इसके विरोध में हर घण्टे एक नया बयान दे रहे हैं। केजरीवाल ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर सीधे निशाना साध रखा है। उनका आरोप है कि नोटबंदी के पीछे आठ लाख करोड़ का घोटाला है। केजरीवाल की मांग हेै कि नोटबंदी का फैसला वापस लिया जाए। उन्हें तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का समर्थन मिल रहा है। ममता बनर्जी दो बार दिल्ली आ चुकीं हैं। हालांकि नोटबंदी पर लगभग सभी विपक्षी दल किसी न किसी रूप में विरोध कर रहे हैं। इनमें से कुछ को शिकायत नोटबंदी के तरीके को लेकर है। कुछ का कहना है कि सरकार ने पूरी तैयारी के बिना ही अपना फैसला लागू कर दिया जिससे आम आदमी, किसान और मजदूरों को काफी दिक्कत हो रही है। विपक्षी दलों के बीच नोटबंदी फैसले के विरूद्ध एकता दिखाने की कोशिश भी की जा रही है। दूसरी ओर इस बात पर भी लोगों का ध्यान गया है कि विपक्षी नेताओं में मोदी विरोध के नाम पर प्रचार लूटने की होड़ लगी है।
इन दिनों केजरीवाल कुछ अधिक मुखर हो गए हैं। उधर, निष्पक्ष विश£ेषकों को मानना है कि केजरीवाल द्वारा लगाए जा रहे आरोपों का विशेष असर दिखाई नहीं दे रहा। यह धारणा बन रही है कि केजरीवाल सिर्फ मोदी विरोधी अपनी सोच के चलते नोटबंदी के खिलाफ मोर्चा खोले बैठे हैं। सोशल मीडिया में केजरीवाल और उनकी मण्डली की सक्रियता से साबित हो रहा है कि सारा काम बंद कर पूरी टीम बयान झाडऩे और टिप्पणियां करने में मस्त है। पिछले दो दिनों से ट्वीटर पर आम आदमी पार्टी की हर पोस्ट में दो नारे लिखे दिखते हैं- नोट नहीं पीएम बदलो और अब भाजपा को वोट नहीं। यहां गौर करने लायक तथ्य यह है कि नोटबंदी के विरूद्ध केजरीवाल के अभियान को उनके उन पुराने साथियों समर्थन नहीं मिल पा रहा जिनके बूते केजरीवाल ने अपनी पहचान बनाई थी। इनमें प्रमुख नाम समाजसेवी अन्ना हजारे, योगगुरू बाबा रामदेव, फिल्म अभिनेता अनुपम खेर के हैं। भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलन के दिनों के दर्जनोंं सहयोगी अब केजरीवाल का साथ छोड़ कर जा चुके हैं। उनमें से कुछ को केजरीवाल की कार्यप्रणाली का विरोध करने पर आम आदमी पार्टी से बाहर कर दिया गया।
नोटबंदी पर समाजसेवी अन्ना हजारे ने केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के फैसले की प्रशंसा करते हुए आम आदमी पार्टी के प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल किए जा रहे विरोध की हवा निकाल दी। अन्ना ने कहा, जो जैसा चश्मा पहनता है उसे वैसा ही दिखता है। सरकार के इस फैसले पर कौन क्या कह रहा है हमें नहीं देखना। हमारा मानना है कि हमें समाज और देश की भलाई को देखना चाहिए। अन्ना ने कहा कि हम तो लंबे समय से मांग ही कर रहे थे कि 500 और 1000 के नोट बंद किए जाएं। मोदी सरकार ने हमारी मांग के अनुरूप कदम उठाया है।
बाबा रामदेव सरकार के पक्ष में पूरी तरह डटे हैं। पिछले दिनों उन्होंने यह तक कहा कि कालाधन, नकली मुद्रा, आतंकवाद और नक्सली समस्या से निबटने के लिए सरकार द्वारा लिए गए नोटबंदी के फैसले का विरोध एक तरह से राष्ट्रद्रोह जैसी हरकत है। बाबा रामदेव ने सन 2011 मेंं कालेधन की विदेश से वापसी और भ्रष्टाचार नियंत्रक कानून की मांग लेकर आंदोलन चलाया था। इसके अंतर्गत अपने हजारों अनुयायियों के साथ उन्होंने दिल्ली में सामूहिक अनशन किया था।
लोकप्रिय फिल्म अभिनेता अनुपम खेर ने भी नोटबंदी के फेैसले को पूरा समर्थन दिया है। अनुपम खेर के विरूद्ध केजरीवाल किस मुंह से जुबान चला सकते हेैं। अन्ना हजारे के आन्दोलन इंडिया अगेंस्ट करप्शन के समय केजरीवाल को कितने लोग जानते थे? बताया जाता है कि उस समय मनीष सिसोैदिया ने अनुपम खेर्र को फोन कर उनसे दिल्ली आने का अनुरोध किया था ताकि लोगों के सामने एक ऐसा चेहरा आन्दोलन का समर्थक बताया जा सके जिसे सभी जानते हों और जो लोकप्रिय हो। सिसौदिया के अनुरोध पर खेर और प्रीतिश नंदी अन्ना के उस आन्दोलन के समर्थन में दिल्ली गए थे। खेर आज आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि जो लोग कभी भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ आन्दोलन कर रहे थे उनमें से कुछ लोग आज नोटबंदी का विरोध कर रहे हैं। खेर ने केजरीवाल का नाम नहीं लिया लेकिन इशारों ही इशारों में कहा कि आपका काम दिल्ली में ह,ै उसे करें। राष्ट्रीय मुद्दों पर क्यों सिर खपा रहे हैं।
नोटबंदी को लेकर भले ही विपक्षी राजनीतिक दल एक साथ खड़े नजर आ रहे हों लेकिन उनकी आपसी खुन्नस साफ महसूस की जा सकती है। कांगे्रस और वामपंथी दलों को लग रहा है कि ममता बनर्जी द्वारा किए जा रहे विरोध के पीछे कारण सिर्फ राजनीतिक लाभ उठाने की मंशा है। ममता साबित करना चाहतीं हैं कि वह मोदी विरोधी खेमे की सबसे ताकतवर नेता हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी राजनीति में कमजोर पड़ती अपनी स्थिति को मजबूत करने की जुगत भिड़ा रहे हैं। शिवसेना ने नोटबंदी
के तरीक के विरोध में ममता बनर्जी के साथ चल कर अपनी खीझ उजागर कर दी।
अरविन्द केजरीवाल द्वारा लगाए जा रहे आरोपों को विपक्षी दलों से कोई विशेष समर्थन नहीं मिल रहा है। सच्चाई यह है कि अधिकांश विपक्षी नेताओं को केजरीवाल की नीयत पर ही संदेह है। किसी ने टिप्पणी की कि जो व्यक्ति अपने गुरू का साथ छोड़ बैठा वह किसी दूसरे का कितना सगा हो सकता है। राजनीतिक और कुछ अज्ञात कारणों से नोटबंदी को लेकर मोदी और केन्द्र सरकार का वे भले विरोध कर रहे हों परन्तु केजरीवाल को हीरो बनने को मौका कम से कम विपक्षी दल नहीं देने वाले। केजरीवाल के संदर्भ में दूसरी बात यह है कि उनके आए दिन के अनर्गल प्रलापों के कारण आम आदमी पार्टी की छवि प्रभावित हुई। सभी विपक्षी राजनीतिक दल केजरीवाल की महत्वाकांक्षाओं और उनके अतीत से परिचित हैं। वे जानते हैं कि मोदी का विरोध करने में केजरीवाल के साथ खड़े होने का अर्थ अपनी राजनीतिक आत्महत्या का प्रयास जैसी बात हो जाएगी।
भाजपा के सूत्र केजरीवाल के इस सुझाव को हास्यास्पद मानते हैं कि नोटबंदी आदेश फिलहाल वापस लिया जाए और दो माह बाद पूरी तैयारी से कालेधन के खिलाफ अभियान शुरू हो जिसमें नए सिरे से नोटबंदी भी शामिल हो। कहा जा रहा है कि केजरीवाल की मांग मानने का अर्थ कालेधन को सफेद होने का मौका देना होगा। इससे आतंकवादियों, नक्सलियों और उग्रवादियों के साथ-साथ नकली नोटों के सौदागरों को तैयारी करने का अवसर मिल जाएगा। लोग जानना चाहते हैं कि केजरीवाल मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई एक बड़ी लड़ाई में पलीता लगाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? नोटबंदी ने केजरीवाल का हाल क्यों बेहाल सा कर दिया है?
Monday, November 14, 2016
अब लुटेरों का काला चि_ा खोलने की तैयारी
(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
500 और 1000 हजार के पुराने नोटों पर लागू प्रतिबंध को लेकर कुछ राजनीतिक दल और क्षेत्रीय क्षत्रप जिस तरह की बयानबाजी और विरोध कर रहे हैं उसका जवाब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जापान यात्रा से लौटने के बाद एक विशाल सभा में दे दिया। उन्होंने नोटबंदी वापस लेने और छूट समय सीमा को कुछ बढ़ाने जैसी मांगों को सिरे से खारिज कर दिया है। मोदी ने साफ कर दिया है कि कालेधन के खिलाफ उनका अभियान जारी रहेगा। उनके पास अभी कई परियोजनाएं हैं जिन्हें भविष्य में लागू किया जाएगा। इसके लिए वह कोई भी नतीजे भुगतने को तैयार हैं। प्रधानमंत्री ने माना कि लोगों को हो रही असुविधा का उन्हें अहसास है। उन्होंने देशवासियों से सिर्फ पचास दिनों का समय मांगा है ताकि कालेधन के खिलाफ उनकी लड़ाई सफल हो सके।
मोदी का भाषण लोगों के दिलों को छू देने वाला रहा। वह इस समय हो रही बेसिर-पैर की या आधारहीन आरोपों से लैस बयानबाजी नहीं थी। उसमें सरकार के अगुआ का आत्मविश्वास, अपने फैसले की सफलता को लेकर आश्वस्त होना और जनविश्वास मिलने को भरोसा साफ दिखाई दिया। यह सही है कि नोटबंदी के तुरन्त बाद प्रधानमंत्री के थाईलैंड और जापान यात्रा पर चले जाने के बाद यहां कुछ विपक्षी नेताओं द्वारा की गई बयानबाजी और मीडिया के एक वर्ग द्वारा किए जा रहे कवरेज के पीछे छिपी मंशा ने आम लोगों के छोटे से हिस्से को विचलित सा कर दिया था लेकिन प्रधानमंत्री की स्वदेश वापसी और उनके वक्तव्य से निश्चित रूप से आश्ंाकाओं और अनिश्चितता के बादल छंट सकेंगे। नोटबंदी के फैसले को शुरूआत में ही व्यापक समर्थन मिलता दिखने लगा था। वास्तव में यह फैसला कुछ खास लोगों के लिए भौंचक कर देने वाला रहा लेकिन नोटबंदी के विरूद्ध जिस तरह से सबसे पहले कांगे्रस की ओर से विरोध हुआ वह चौंकाने वाला था। इसके बाद बहुजन समाज पार्टी की अगुआ मायावती, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने नोटबंदी के विरूद्ध बयान दिए। तर्क दिया जा रहा था कि फैसले से आम लोगों विशेषकर किसानों, मजदूरों, गरीबों और महिलाओं को काफी असुविधा हो रही है। मुलायम सिंह यादव की यह मांग कतई भी व्यावहारिक नहीं कही जा सकती कि नोटबंदी लागू करने से लोगों को समय दिया जाना था। केन्द्रीय वित्तमंत्री अरूण जेटली ने सटीक कटाक्ष किया है। उन्होंने कहा कि समय देकर क्या कालाधन रखने वालों को अपनी व्यवस्था कर लेने का मौका दिया जाता। जेटली कि बात सही है। आखिर बड़े फैसले अचानक ही लिए और लागू किए जाते हैं। उधर, मायावती आधारहीन तर्कों से लैस आरोप सरकार पर लगा रहीं थीं। उन्हें केन्द्रीय मंत्री उमा भारती की ओर से तीखे कटाक्ष का सामना करना पड़ा। उमाभारती के इस बयान पर गौर किया जाना चाहिए कि बहन मायावती को नोटों की मालाओं को छिपाने में परेशानी हो रही है इसलिए वह आदरणीय प्रधानमंत्री के फैसले की आलोचना कर रहीं हैं।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी फै सले के दूसरे दिन ही इसके विरूद्ध मैदान में कूद पड़ीं। वह एक ही राग गा रहीं हैं कि इससे गरीबों को परेशानी हो रही है। ममता बनर्जी नोटबंदी को वापस लेने की मांग तो कर रहीं हैं परन्तु उनके पास इस बात का जवाब नहीं मिल रहा कि कालेधन और नकली मुद्रा जैसी समस्या से कैसे निबटा जाए। ममता बनर्जी के विरोध से समझ आ रहा है कि इसके पीछे कारण विशुद्ध राजनीतिक है। वह स्वयं को गरीबों और आम आदमी का हमदर्द साबित कर अपनी मोदी विरोधी इमेज को चमकाने का प्रयास कर रहीं हैं। गौरतलब है कि ममता को इस काम में उनके गठबंधन के सहयोगी दलों का ही समर्थन नहीं मिला है। यहां तक कि उनके मित्र और बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने नोटबंदी के फैसले का समर्थन कर दिया। जहां तक अरविन्द केजरीवाल का सवाल है तो उनक ी आये दिन कि बयानबाजी से लोगों के कान पक से गए हैं। केन्द्र सरकार के लगभग हर फैसले का विरोध और हर दूसरे दिन मोदी को कोसने के कारण केजरीवाल को गम्भीरता से लिया जाना कम होता जा रहा है। नोटबंदी के विरूद्ध कांगे्रस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का पॉश्चर प्रभावहीन माना जा रहा है। पैसे निकालने के लिए राहुल का एटीएम के सामने लाइन में लगना सियासी नाटक ही माना गया। मोदी की इस टिप्पणी को लोगों ने चटकारे लेकर पढ़ा और सुना कि जिन पर घोटालों के गम्भीर आरोप लग चुके हैं वह आज 4000 रुपए निकालने के लिए एटीएम के बाहर लाइन में लगे हैं।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने नोटबंदी को विरोध करने वालों को आड़े हाथों लेते हुए सवाल उठाया है कि कालेधन के खिलाफ सरकार के इस फैसले से इन विपक्षी नेताओं को क्या समस्या है? आखिर यही विपक्ष कालेधन के खिलाफ सख्त कदम उठाने की मांग करता रहा है। जेटली भी कमोवेश ऐसी ही टिप्पणी कर चुके हैं। जेटली ने जानना चाहा कि गरीबों, किसानों, मजदूरों और महिलाओं को समस्या के नाम पर विरोध कर कुछ राजनीतिक दल अपने किस-किस प्रकार के हित साधने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में कालेधन और नकली मुद्रा ने हमारी अर्थ व्यवस्था के लिए गम्भीर खतरा खड़ा करना शुरू कर दिया था। इस धन का उपयोग आतंकवाद, मादक पदार्थों का गैरकानूरी व्यापार में भी हो रहा था। सरकार के फैसले से दो फायदे होने कि आशा की जा रही है। एक- नकली मुद्रा के फैलाव पर प्रभावी रोक लग सकेगी। दो- अर्थ व्यवस्था मजबूत होगी। रियल एस्टेट सहित कई अन्य क्षेत्रों में दाम गिरने की आशा व्यक्त की जा रही है। इससे देश में कैशलेस व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाने के लिए माहोैल बनेगा। उल्लेखनीय है कि आम आदमी तमाम परेशानियों के बाद भी यह स्वीकार कर रहा है कि नोटबंदी के अच्छे नतीजे आएंगे।
नोटबंदी लागू होने के बाद आशंका से भरा जो माहौल देश के विभिन्न भागों में दिखाई दिया उसके लिए सरकार को कुछ हद तक ही दोष दिया जा सकता है। इसके लिए विपक्षी नेताओं की बयानबाजी और कतिपय मीडिया समूहों द्वारा किया गया कवरेज भी जिम्मेदार है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पत्रकारिता के दायित्वों के नाम फैसले का विरोध जैसा लक्ष्य साध कर कतिपय टीवी चैनलों ने कवरेज किए। ऐसे टीवी कवरेज देख कर अति साधारण समझ रखने वाला तक समझ रहा था कि इरादा सरकार की बखिया उधेडऩे का चल रहा है। सबसे तेज होने का दावा करने वाला एक टीवी चैनल तो मोदी के राष्ट्र के नाम प्रसारण के खत्म होने के आधा घण्टा बाद ही नोटबंदी फैसले के विरूद्ध टीका-टिप्पणी करने लगा था। चर्चा शुरू कर दी गई थी। चर्चा में भाग लेने वाले एक अतिथि ने नोटबंदी का स्वागत करते हुए प्रधानमंत्री की प्रशंसा करनी चाही तो उन्हें यह कह कर रोक दिया गया कि हमारी चर्चा का विषय किसी की स्तुति नहीं है। दूसरी ओर इलेक्ट्रानिक मीडिया में एक अन्य वर्ग था जो नोटबंदी से आमजन को हो रही परेशानी सामने लाने के साथ-साथ इस फैसले के फायदे बताते जा रहा था।
बहरहाल, मोदी के ताजा भाषण से अनिश्चितता और भ्रम का माहौल अवश्य सुधरेगा। मोदी ने जिस तरह के आक्रामक तेवर दिखाए और देशवासियों से सहयोग के लिए भावुक अपील की है उसका असर दिखना ही चाहिए। उन्होंने कालेधन वालों और भ्रष्ट तत्वों के विरूद्ध अपनी अन्य परियोजनाओं की बात कर अवश्य ही कई लोगों की नींद उड़ा दी होगी। प्रधानमंत्री ने यह तक कहा है कि पिछले 70 सालों से देश को लूटने वालों का काला चिट्ठा भी वह खोल सकते हैं इस काम के लिए अगर एक लाख लोगों को नौकरी देनी पड़ी तो वह ऐसा करने से झिझकेंगे नहीं। एक बात तो तय है कि मोदी सरकार ने कई लोगों का चैन छीन लिया है।
Thursday, November 10, 2016
बड़े और कड़े फैसले अचानक ही लिए जाते हैं
(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
500 और 1000 के नोट अचानक बंद किए जाने की घोषणा के साथ ही प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया था। जो लोग अर्थ शास्त्र पर अधिकार रखते हैं और जिन्हें काले धन के खतरों की समझ है वे तो बोल ही रहे थे लेकिन इसके साथ उन लोगों ने भी प्रतिक्रिया व्यक्त की जिन्हें अर्थतंत्र की विशेष समझ नहीं है, जिन्होंने काले धन के बारे में सिर्फ सुना है और उसके दुष्प्रभाव को कभी प्रत्यक्ष तौर महसूस नहीं किया। प्रधानमंत्री के कदम का मोटे तौर पर स्वागत ही किया गया है। राजनीतिक कारणों से कुछ दलों और नेताओं ने दबी जुबान से समर्थन किया तो किसी ने स्वागत के साथ फैसले से जुड़ी खामियों गिना दीं। यहां दो प्रतिक्रियाओं का उल्लेख करना जरूरी लग रहा है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उन्हें आम आदमी की परवाह नहीं है। इस तरह फैसला लिए जाने से किसानों, छोटे दुकानदारों और गृहणियों के लिए अत्यंत अस्त-व्यस्त करने वाली स्थिति पैदा हो गई है। असली अपराधी रियल एस्टेट या विदेशों में छुपाकर रखे गए अपने कालेधन से चिपककर बैठे हैं। बहुत बढिय़ा श्रीमान मोदी!
गौरतलब है कि राहुल की प्रतिक्रिया से पहले कांगे्रस के कुछ बड़े नेता संतुलित अंदाज में मोदी के फैसले का स्वागत कर चुके थे। बहरहाल, दूसरी प्रतिक्रिया का उल्लेख करना जरूरी है। यह एक नितांत अल्प शिक्षित कड़ी मेहनत कर अपने परिवार को चलाने वाली महिला लक्ष्मी(परिवर्तित नाम) की है। यह महिला घरों में खाना बनाने का काम करती है। सुबह सात बजे से रात नौ बजे तक उसे खटते देखा जा सकता है। 9 नवम्बर की सुबह कहती सुनी गई- मोदी(जी) ने बढिय़ा काम किया है। उन्होंने काली कमाई वालों को जोरदार तमाचा मारा है। प्रधानमंत्री के फैसले के चलते लक्ष्मी को हुई चिन्ता सिर्फ इस बात की है कि उसकी झुग्गी में रखे पांच-पांच सौ के दो नोटों को बदलने बैंक तक जाना पड़ेगा परन्तु वह खुश है।
दोनों ही प्रतिक्रियाओं में कितना अंतर है। दोनों व्यक्तियों की शिक्षा, स्तर और बौद्धिक समझ में जमीन-आसमान सा अंतर है। एक को प्रधानमंत्री के फैसले पर कथित शंकाएं हैं और दूसरे को प्रधानमंत्री पर भरोसा है। दरअसल, राहुल गांधी की प्रतिक्रिया में मैदानी वास्तविकताओं का अभाव दिखाई देता है। उसके पीछे कारण राजनीतिक हो सकता है। इस तरह के गम्भीर और चिंतन योग्य विषय पर कुछ भी कहने के पहले हवा का रुख देखना उचित होता है। कांगे्रस उपाध्यक्ष दीवार पर लिखी इबारत तक ठीक से क्यों नहीं पढ़ पा रहे हैं। अधिकांश उद्योगपतियों, अर्थशास्त्रियों, व्यावसायियों, राजनीतिक दलों तथा राजनेताओं और आम लोगों ने सरकार के फैसले का स्वागत किया है। उधर, मोदी के आलोचकों की प्रतिक्रियाएं देखने पर तर्क की बजाय उनकी खीझ अधिक सामने आती है। यह खीझ सिर्फ राजनीति से जुड़े लोगों तक सीमित नहीं थी। इसकी झलक मीडिया के एक वर्ग में तक में देखी गई जो मोदी का राष्ट्र के नाम सम्बोधन खत्म होते ही नाक-भौंह सिकोडऩे लगा था। फैलाए गए भ्रम का प्रभाव था कि पेट्रोल पम्पों और एटीएम में लोगो की ऐसी लाइनें लगीं कि दूसरे दिन शाम तक कम नहीं हो सकीं।
वित्तमंत्री अरूण जेटली की इस बात से कौन सहमत नहीं होगा कि सरकार के इस फैसले से कालेधन के कारोबारियों पर प्रभावी लगाम कस सकेगी। इससे आतंकवाद, मादक पदार्थों के कारोबार, कालाधन और भ्रष्टाचार में लिप्त तत्वों पर सीधी चोट पड़ी है। साथ ही दो नंबर में धन के लेने-देने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगने के साथ बैंकिं ग क्षमता में वृद्धि होगी। कुछ लोगों को शिकायत है कि सरकार ने 500 और 1000 के नोट बंद करने से पहले पर्याप्त समय नहीं दिया। वे आम आदमी की कथित मुश्किलों को गिना, ट्वीट कर और कुछ टीवी चैनलों पर नकारात्मक बहसों में भागीदारी कर माहौल बिगाडऩे की कोशिश करते दिखाई दिए। यह कारस्तानी कल रात से ही शुरू कर दी गई थी। क्या ऐसी हरकतों से सरकार के फैसले पर कोई फर्क पडऩे वाला है? मोदी सरकार ने गोपनीयता के साथ पूरी तैयारी कर रखी थी। ताजा खबर यह है कि बैंकों ने नई करंसी और छोटे नोट पहुंचाए जा चुके हैं। एकाध दिन में सब कुछ सामान्य हो जाएगा। अर्थ व्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव डालने वाले इस फैसले की सफलता की पूरी आशा है। आखिर ऐसे कड़े फै सले इसी तरह अचानक लिए जाते हैं। ढिंढोरा पीट कर काम किया जाता तब काला धन रखने वालों को बच निकलने का मौका नहीं मिल जाता?
Friday, September 30, 2016
Pakistan Hamara Dushman
खुल कर बोलें, पाकिस्तान हमारा दुश्मन है
(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
70 साल होने को आए हैं हम यह बात खुल कर क्यों नहीं स्वीकार कर लेते कि पाकिस्तान हमारा दुश्मन है। इन सात दशकों के दौरान भारत ने 70 बार से अधिक कोशिश की होगी कि पाकिस्तान के साथ संबंध सामान्य हो जाएं लेकिन हमारा यह बेशर्म, अडिय़ल, छिछोरा और असभ्य पड़ौसी अपनी फितरत से बाज नहीं आ रहा। उसका व्यवहार हमारे प्रति दुश्मन जैसा रहा है। दूसरी ओर हमारे यहां शुतुरमुर्ग प्रवृति के लोग हमेशा सच से मुंह छिपाते रहे। वे कभी हमारी संस्कृति, संस्कार और खान-पान का नाम लेकर या फिर पुरानी बातों का हवाला देकर दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्तों की वकालत करते रहे हैं। ऐसे लोगों से सिर्फ यह कहना है, कभी पाकिस्तानी फोैजियों, पूर्व फौजियों, सरकार चलाने वालों, राजनेताओं से लेकर आम लोगों तक उन बयानों, टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं पर नजर डालिए। पाकिस्तानियों की हर बात, हर शब्द में भारत और भारतीयों के प्रति ईष्र्या, कुढऩ और अपमानजनक भाव साफ दिखाई देता है। अफसोस होता है कि आज तक हम पाकिस्तानियों के दिमाग में भरी गंदगी को नहीं देख सके। कश्मीर घाटी में आतंकवादी बुरहान वानी को सुरक्षा बलों द्वारा मार गिराये जाने के बाद पाकिस्तानियों का भौंड़ा विलाप कई देशों के लिए हैरान कर देने वाली बात रही। उरी में सेना की 12 ब्रिगेड हेड क्वार्टर पर आतंकवादी हमले से साबित हुआ है कि हमारा पड़ौसी एक आतंकवादी और नाकाम मुल्क है। वह कभी नहीं बदलेगा और न सुधरेगा। हमारी प्रगति, कामयाबी और ताकत से पाकिस्तानियों को ईष्र्या होती हेै। इन सच्चाइयों को जानते और समझते हुए भी हम सीना ठोंक क्यों नहीं कहते कि हां हम सभी भारतीय नागरिक पाकिस्तान को अपना शत्रु मानते हैं।
रविवार, 18 सितम्बर 2016 को उरी में हुए आतंकवादी हमले ने 26/11 के मुम्बई हमले और इसी साल पठानकोट में वायुसेना अड्डे पर हुए हमलों की याद ताजा कर दी। उरी हमले को लेकर समूचे भारत में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। लोग चाहते हैं कि हमला करने और करवाने वालों के विरूद्ध कार्रवाई होनी चाहिए। मोदी सरकार ने कहा है कि पाकिस्तान के विरूद्ध चौतरफा कार्रवाई होगी। सरकार के आश्वासन पर भरोसा कर लोग शांत भाव से कार्रवाई का इंतजार कर रहेे हैं। इस बीच पाकिस्तान द्वारा भारत के विरूद्ध परमाणु हमले की घमकी भी दी गई। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह केवल धमकी मात्र है। पाकिस्तान जानता है कि ऐसा दुस्साहस उसके अस्तित्व को संकट में डाल देगा। शायद दुनिया के नक् शे से पाकिस्तान का नाम ही मिट जाए। फिर भी भारत को सतर्क रहना होगा क्योंकि एक असभ्य और गंवार पड़ौसी को समझना काफी कठिन होता है।
मुंबई में आतंकी हमला हिला देने वाला था। केन्द्र की तत्कालीन संप्रग सरकार पर समूचे देश से भारी दबाव था। सरकार ने कुछ कदम उठाये थे। लेकिन अंदर-बाहर के दबावों के कारण पुन: संबंध बहाल कर लिए गए। मुंबई हमले के दोषी आज भी पाकिस्तान में छुट्टे सांडों के भांति घूमते हैं। भारत में लोगों ने मान लिया होगा कि उस तरह का हमला अब पाकिस्तान की ओर से नहीं होगा। यह गलतफहमी जल्द दूर हो गई। इसी साल की शुरूआत में पठानकोट में एयरफोर्स अड्डे पर आतंकी हमला किया गया। अब उरी में ब्रिगेड हेडक्वार्टर को निशाना बनाया गया। इस बात पर कौन भरोसा करेगा कि पाकिस्तान सरकार, सेना अथवा आईएसआई को इन हमलों की जानकारी नहीं रही होगी। पाकिस्तान सरकार और सेना के इशारे पर ही ये हमले किए गए हैं। इसे पाकिस्तानियेां की नपुंसकता कहना ही सही होगा। सैन्य हमला कर भारत के साथ युद्ध करने के बजाय वे आतंकवादियों का भारत के विरूद्ध उपयोग करते हैं। हमारे नागरिक और जवान उनके षडयंत्रों का शिकार होते आ रहे हैं। भारत मेें उठ रही यह मांग उचित है कि पाकिस्तान के साथ हर तरह के संबंध खत्म कर देने चाहिए। उसकी विध्वंसकारी हरकतों का जवाब जैसे को तैसा की नीति से देना चाहिए।
उरी हमले के बाद लोगों में भारी आक्रोश है। कई तरह की बातें सुनने में आईं। मसलन, पाकिस्तान के विरूद्ध सीधी फौजी कार्रवाई हो, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में स्थित आतंकवादी शिविरों पर हमला किया जाए, पाकिस्तान के साथ 1960 में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा किया गया नदी जल समझौता रद्द कर दें, पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करवाने के लिए समूचे विश्व में अभियान चलाया जाए क्योंकि अधिकांश देश आतंकवाद से त्रस्त हैं और पाकिस्तान को दुनिया भर में आतंकवाद का सप्लायर माना जाने लगा है और पाकिस्तान को आर्थिक रूप से कमजोर कर देने के लिए हर संभव कदम उठाए जाने जरूरी है। उरी हमले के तुरंत बाद भारत के पक्ष में यह बात हुई है कि अमेरिकी कांग्रेस में एक विधेयक पेश किया गया जिसमें मांग की गई है कि पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित किया जाए। यदि यह विघेयक पारित हो जाता है तब पाकिस्तान की हालत पतली होते देर नहीं लगेगी। वैसे इस तथ्य को अवश्य ध्यान में रखा होगा कि लगभग सवा दो दशक पूर्व भी अमेरिका में पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने की मांग उठी थी। तत्कालीन अमेंरिकी प्रशासन इस पर सहमत नहीं था लेकिन आज हालात भिन्न हैं। अत: भारत को प्रयास करते रहना होगा।
दुनिया मान चुकी है कि पाकिस्तान एक नाकाम देश है। धर्म के आधार पर पाकिस्तान की स्थापना हुई थी। धार्मिक कट्टरपन और अन्य समुदायों के प्रति नफरत के बीज पाकिस्तान के जन्म के समय ही पड़ गए थे। वहां पिछले सात दशकों के दौरान बच्चों के मस्तिष्क में दूसरों विशेषकर भारत के प्रति नफरत और घृणा को जहर भरा जाता रहा। पाकिस्तान के शासकों ने अपनी नाकामियों को छिपाने और राजनेताओं ने अपनी रोटियां सेंकने के लिए कट्टरपन को बढ़ावा दिया। लोगों में भारत के प्रति ईष्र्यां भडक़ाई गई। यह जानते हुए भी कि कश्मीर पर उनके दावे का कोई वैधानिक आधार नहीं है पाकिस्तानी शासक अपने यहां लोगों को कश्मीर के सपने दिखाते रहे। पाकिस्तानी राजनेता, शासक और सेना भी जानती है कि कश्मीर के एक हिस्से पर उन्होंने अवैध कब्जा कर रखा है। वे यह भली-भांति समझते हैं कि कश्मीर को पाकिस्तान कभी भी भारत से नहीं छुड़ा पाएगा। इसके बावजूद कश्मीर की आड़ में भारत में उनकी तमाम खुरापात की एक अलग वजह समझ में आ रही है। दरअसल भारत में आजादी के बाद हुए विकास, मजबूत हुई अर्थ व्यवस्था से सारे के सारे पाकिस्तानी कुढ़ते हैं। हमारी ओर से चूक यह होती रही कि हम छह-साढ़े छह दशकों के दौरान यह उम्मीद लगाए रहे कि एक न एक दिन इस दुष्ट पड़ौसी का दिल अवश्य बदलेगा। इस अटल सत्य की अनदेखी कैसे हो गई कि कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं हो सकती। भारत बार-बार पाकिस्तान के साथ संबंध सामान्य बनाने की कोशिशें करता रहा। इसके पीछे कभी बाहरी दबाव था तो कभी परिस्थितियों के चलते ऐसा किया जाता रहा। हमारे यहां कुछ दिग्भ्रमित विद्वानों ने भी कई बार सत्ताधीशों को बरगला कर पाकिस्तान के साथ संबंध बहाल कराने का प्रयास किया। पाकिस्तान के रोम-रोम में खुरापात, नफरत और जलन है। इसे हमारी तकदीर ही कहें कि दुनिया के अधिकांश देश पाकिस्तान को अच्छी तरह पहचान गए हैं। इसलिए जब वह भारत के विरूद्ध कु छ बोलता है तो इसे आमतोैर पर बकवास माना जाता है। आज अमेरिका,ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन सहित दर्जनों देश आतंकवाद से जूझ रहे हैं। वे जानते हैं भारत भी उनकी तरह आतंकवाद से ग्रस्त हेै।
पाकिस्तान के कुकर्म पूरी तरह सामने आने के बाद जो सवाल उठे हैं उनमें एक बड़ा सवाल यह है कि भारत को अपनी सुरक्षा के लिए क्या करना चाहिए? भारत के लोगों और सुरक्षा बलों के जवानों को आतंकवादियों किए जाने वाले कायराना हमलों से कैसे बचाया जाए? अब तक सामने आती रही अपनी इस कमजोरी को स्वीकार करना होगा कि अब तक के आतंकी हमलों के बाद हमारे यहां सरकार से लेकर आम आदमी तक गुस्सा तो काफी उमड़ता रहा परन्तु वह ठण्डा भी जल्द होता रहा। इसी बात ने पाकिस्तान और उसके द्वारा भेजे जाने वाले आतंकवादियों के हौसलों को बढ़ा दिया। वे बार-बार दुस्साहस करते चले गए। चंूकि पाकिस्तान ने कारगिल के बाद से कोई प्रत्यक्ष सैन्य कार्रवाई नहीं की है अत: उस पर सीधे फौजी हमला बोलने पर जोर नही दिया जाता रहा परन्तु और भी कई ऐसे रास्ते हैं जिनसे उसके कान मरोड़े जा सकते हैं। 1947,1965 और 1971 के युद्धों से पाकिस्तान ने सबक लिया है कि वह भारत के साथ सीधी फौजी कार्रवाई में उलझ कर घाटे रहा है। इसी लिए उसने आतंकवाद का भारत के विरूद्ध उपयोग करना शुरू कर दिया। यह काम वह 1965 से करता आ रहा है।
उरी हमले के बाद विशेषज्ञ मानने लगे हैं कि पाकिस्तान के विरूद्ध पूरे धैर्यपूर्वक लगातार और लम्बी कार्रवाई करनी होगी। उससे अनेंक मोर्चों पर लडऩा होगा। पाकिस्तान पर राजनीतिक और कूटनीतिक प्रहार किए जाएं और यहां सेना और सुरक्षा बलों को आतंकवादियों का मुंह तोडऩे के लिए खुली छूट दी जानी चाहिए। इन सबके साथ उसके आर्थिक चोट पहुंचाने का कोई अवसर नहीं छोडऩा होगा। इन विकल्पों को अपनाते हुए दया, उदारता और संस्कार जैसी बातों ताले में बंद रखना होगा। साफ बात यह है कि जब वो हमें दुश्मन मानते हैं तो हम उन्हें अपना दुश्मन क्यों नहीं मानें?
कहां होती रही चूक
कश्मीर घाटी के पृथकतावादी तत्व हों या वहां सक्रिय आतंकवादियों की बात करें अथवा उत्तर-पूर्व के उग्रवादियों को लें इन सब के मामले कोई पक्की रणनीति का अभाव साफ महसूस होता रहा है। यही बात कुछ राज्यों में मौजूद नक्सलवादियों के संदर्भ में की जा सकती है। इन्हें पनपने और फैलने से पहले ही कुचलने की जरूरत रही है। किसी बड़ी वारदात के बातें तो खूब की जातीं रहीं लेकिन विध्वंसकारी तत्वों को सख्ती से कुचलने के ठोस उपाय नहीं हो पाए। कभी राजनीति आड़े आ गई और कभी अनावश्यक उदारता। उग्रवादी, आतंकवादी, पृथकतावादी और विध्वंसकारी गतिविधियों में लिप्त लोगों को देश का दुश्मन मानने में संकोच क्यों होता रहा। ऐसे तत्वों को बेरहमी से कुचलने की छूट सुरक्षा बलों को दिए बगैर आम लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती। इस तरह के मामलों में अमेरिका, इजरायल और रूस से कुछ सीखने की जरूरत है। अपने शत्रुओं पर कार्रवाई में ये तीनों राष्ट्र जरा भी विलम्ब नहीं करते। रूस ने चेचेन पृथकतावादियों और आतंकवादियों को पूरी दृढ़ता के साथ कुचला। राष्ट्र और अपने लोगों की सुरक्षा के मामले में उसने कभी समझौता नहीं किया। स्वयंभू मानव अधिकारवादियों के विलाप की ओर ध्यान नहीं दिया। उधर, वल्र्ड टे्रेड सेंटर पर हमले के बाद कया कोई आतंकवादी संगठन अमेरिका में दुस्साहस कर पाया? 9/11 के उस हमले के बाद अमेरिका ने डेढ़ माह के अंदर पैट्रियाट एक्ट बनाया। सुरक्षा एजेंसियों को छानबीन की आजादी मिली। एफबीआई को और अधिक शक्ति शाली बनाया गया। आतंकी मामलों में अदालती आदेश की जरूरत समाप्त कर दी गई। हमारे सुरक्षाबल, पुलिस और गुप्तचर एक तरह से दांत के शेर की तरह बना दिए गए हैं। वो आतंकवादियों से कैसे जूझें। टाडा और पोटा के विरूद्ध बोटों के सौदागरों ने राजनीति शुरू कर इन कानूरों का मकसद ही पूरा नहीं होने दिया।
आतंक से निबटने की चुनौतियां
अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, कनाडा और फ्रांस जैसे देशेंा में आतंकवाद से निबटने के लिए गुप्तचर और सुरक्षा एजेंसियों को खुली छूट है। भारत में ऐसा नहीं है। यहां भ्रष्टाचार, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, घुसपैठ, छद्म धर्म निरपेक्षता, तुष्टिकरण, वोट बैेंक की राजनीति, हमारी उदार राष्ट्र के रूप में छवि और लोगों की मानसिकता ने समस्या खड़ी कर रखी है। दिल्ली के बटाला हाउस एन्काउंटर को याद करें। एक जांबाज पुलिस अधिकारी शहीद हो गया था। लेकिन कांगे्रस नेता दिग्विजय सिंह ने उस मुठभेड़ को फर्जी बता कर न केवल पुलिस अधिकारी की शहादत का अपमान किया बल्कि आतंकवादियों से आए दिन जूझने वाले सुरक्षा बलों के जवानों के मनोबल को प्रभावित किया होगा।
जीरो टॉलरेन्स
आतंकवाद और अन्य विध्वंसकारी गतिविधियों पर प्रभावी अंकुश के लिए जीरो टॉलरेन्स की नीति जरूरी हो गई है। आतंकवादियों और उग्रवादियों से अपने तरीक से निबटने की छूट सुरक्षा बलों को मिलनी चाहिए। ऐसी ही व्यवस्था रूस में बताई जाती है। वहां चेचेन उग्रवादियों को जीरो टॉलरेन्स की नीति से कुचला जा सका। जिस व्यक्ति से राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा महसूस हो या जिसके हाथों निर्दोष लोगों के मारे जाने की आश्ंाका हो उसे किसी भी कारण से कैसे छोड़ा जा सकता है। भारत में आतंकवाद और उग्रवाद से लड़ रहे सुरक्षा कर्मियों को कानूनी संरक्षण पर विशेष जोर देना होगा।
Thursday, October 11, 2012
पंजाब में शांति के विरूद्ध साजिश तो नहीं?
बुधवार को अकाल तख्त में पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल अरूण श्रीधर वैद्य के हत्यारों का सम्मान करके किस तरह का संदेश देने की कोशिश की गई है? जनरल वैद्य के हत्यारों, हरजिन्दर सिंह जिन्दा और सुखदेव सुक्खा का सम्मान किए जाने की घटना वाकई चिन्ता का विषय है। दरबार साहिब के मैनेजर ने जिन्दा और सुक्खा की बरसी पर आयोजित अखण्ड पाठ के समापन के पश्चात उनके परिजन का सम्मान किया। जिन्दा के भाई भूपिन्दर सिंह और सुक्खा की मां सुरजीत कौर को सिरोपा भेंट किए गए। खास बात यह है कि इस अवसर पर शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के सचिव दलमेघ सिंह, दल खालसा के प्रवक्ता कंवरपाल सिंह और दमदमी टकसाल के प्रवक्ता भाई मोखम सिंह मौजूद थे। 10 अगस्त 1986 को जनरल वैद्य की हत्या के लिए दोषी पाए गए जिन्दा और सुक्खा को 9 अक्टूबर 1992 को फांसी दे दी गई थी। जिन्दा और सुक्खा की बीसवीं बरसी पर उनका सम्मान किए जाने की इस घटना को शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के उस फैसले से जोड़ कर देखने की जरूरत महसूस होने लगी है जिसमें आपरेशन ब्लू स्टार के दौरान मारे गए लोगों की याद में स्मारक बनाने का प्रस्ताव है। इन घटनाओं पर पंजाब में सत्ताधारी शिरोमणि अकाली दल -बादल की चुप्पी आश्चर्य का विषय है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने अवश्य चिन्ता व्यक्त की है। इस आशंका को निराधार नहीं कहा जा सकता कि पंजाब में कुछ कट्टरपंथी ताकतें पुराने जख्मों को कुरेदने की कोशिश कर रहीं हैं। उनकी बढ़ती सक्रियता राज्य के अल्पसंख्यकों में भय पैदा कर सकती है।
पिछले दिनों रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल के एस बरार ने यह आरोप लगाया था कि पंजाब में अकाली दल की सरकार के कार्यकाल में कट्टरपंथी और पृथकतावादी शक्तियां पुन: सक्रिय होने लगीं हैं। उन्होंने यह टिप्पणी लंदन में स्वयं पर हुए आतंकवादी हमले के बाद की थी। जनरल बरार ने आपरेशन ब्लू स्टार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। 77 वर्षीय इस फौजी ने जोर देकर कहा है कि ब्लू स्टार में मारे गए लोग आतंकवादी थे, उन्हें शहीद नहीं माना जा सकता। दरअसल, जनरल बरार पर लंदन में किया गया हमला इस बात का प्रमाण हैं कि भारत हो या विकसित देश दोनों ही जगह मौजूद आतंकवादी और उनके हमदर्द पूरी तरह ठण्डे नहीं पड़े हैं। वे पंजाब को उसी बुरे दौर में पुन: धकेलने की कोशिश कर रहे हैं । संभवत: कांग्रेस और भाजपा भी इसी बात को महसूस करने लगीं हैं। आतंकवाद के उस काले दौर में पंजाब में मारे गए लोगों की संख्या को लेकर अलग-अलग दावे लिए जाते हैं। एक जानकारी के अनुसार 1981 से लेकर 1993 के बीच आतेकवादी हिंसा में 11694 लोग मारे गए थे। यह तथ्य हैं कि सिख धर्म की रक्षा और सिखों के साथ हुए कथित अन्याय के विरोध के नाम पर किए गए खून-खराबे में मारे गए इन लोगों में 7139 सिख थे। जाहिर है कि पंजाब में आतंकवाद के उस दौर में आतंकवादियों ने सिखों को ही अधिक नुकसान पहुंचाया था।
लोगों का याद होगा कि उस बुरे दौर में आतंकवादी समूचे पंथ की ओर से बोलने का दावा करते थे। जिन सिखों ने आतंकवाद का विरोध किया या आतंकवादियों द्वारा पंथ के नाम पर बोलने के अधिकार पर सवाल उठाया, उन्हें आतंकवादियों ने अपना दुश्मन मान लिया था। पंजाब लगभग दो दशक से शांत है लेकिन लग रहा है कि पृथकतावादी और कट्टरपंथी ताकतें अंदर ही अंदर अपना काम कर रहीं हैं। उस दूसरी और तीसरी पीढी़ को गुमराह करने की कोशिश की जा रही है जो मैदानी सच्चाई को नहीं जानती है। ब्रिटेन, कनाडा और जर्मनी से फेसबुक में पेज लोड किए जा रहे हैं। विदेशों से संचालित वेबसाट्स में खालिस्तानी सामग्री, मैप और गाने भरे हैं। एक वेब साइट उन सिखों के समर्थन के नाम पर चंदा उगाहती है जो आतंकवाद संबंधी आरोपों के कारण भारतीय जेलों में हैं। कुल मिलाकर स्थिति को सामान्य नहीं माना जा सकता है। पूरी तरह नजर रखने और सतर्कता बरतने की जरूरत हैं। जनरल बरार ने जो आशंका व्यक्त की है उसे जिन्दा और सुक्खा का सम्मान किए जाने की घटना से बल मिला है। सवाल यह है कि पंजाब की बादल सरकार इस गंभीर विषय पर स्वयं कितनी गंभीर है।
-----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
Tuesday, October 9, 2012
मान का सम्मान नहीं करने वालों को मानद रैंक क्यों?
खिलाडिय़ों और ग्लैमर वल्र्ड से जुड़े लोगों को मानद रैंक देने से कम से कम वायु सेना ने तौबा कर ली है। यदि वायुसेना के एक शीर्ष अधिकारी के हवाले से आई खबर पर विश्वास करें तब साफ हो जाएगा कि ऐसी हस्तियों को मानद रैंक देने का कोई मतलब नहीं होता जो इसका महत्व नहीं जानतीं तथा उनका सम्मान करने से सेना को कोई लाभ तक नहीं मिलता। मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर को वायुसेना ने लगभग दो वर्ष पहले ग्रुप कैप्टेन का मानद रैंक प्रदान किया था। इसी तरह क्रिकेट कप्तान महेंद्रसिंह धोनी को लेफ्टिनेंट कर्नल का मानद रैंक दिया गया था। सेना के सूत्रों के अनुसार दोनों ने मानद रैंक प्राप्त करने के बाद एक बार भी पलटकर नहीं झांका। पिछले दो वर्षों के दौरान उनके इस उदासीन व्यवहार से ऐसा प्रतीत हुआ मानों सेना द्वारा प्रदत्त मानद रैंक स्वीकार करके उन्होंने सेना पर ही अहसान किया हो। उल्लेखनीय है कि खिलाडिय़ों और ग्लैमर वल्र्ड के लोगों को सेना मानद रैंक से सम्मानित करती रही है। पूर्व क्रिकेट कप्तान कपिल देव को सन 2008 में टेरिटोरियल आर्मी में लेफ्टिनेंट कर्नल के रैंक से सम्मानित किया जा चुका है। टेरिटोरियल आर्मी के विज्ञापनों और होर्डिंग्स में कपिलदेव की तस्वीर छपती रही है। टेरिटोरियल आर्मी के कार्यक्रमों में कपिलदेव शामिल होते रहे हैं। दक्षिण भारत के फिल्मी सुपर स्टार मोहनलाल और शूटर अभिनव बिन्द्रा को भी सेना ने मानद रैंक प्रदान किए हैं। सेना द्वारा मानद रैंक से सम्मानित हस्तियों में और भी नाम हैं। ऐसे लोगों को मानद रैंक देने के पीछे मकसद युवाओं को सेना की ओर आकर्षित करना रहता है। वे युवा पीढ़ी के लिए पे्ररणा के स्रोत की तरह होते हैं। सेना के इस प्रयोग की सफलता के आंकड़े जुटाना लगभग असंभव काम होगा। यह जानकारी भला कैसे एकत्र की जा सकती है कि सेना में शामिल युवकों में से कितनों ने इन हस्तियों से प्रेरणा ली थी। वायुसेना के उस अधिकारी ने जिस अंदाज में धोनी और तेंदुलकर के उदासीन रवैये के प्रति अप्रसन्नता व्यक्त की है उसके बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर सम्मान किस का होना चाहिए? सीधी सी बात है जो सम्मान का मान रखे उसी का सम्मान किया जाए।
धोनी और तेंदुलकर ने पूरी ठसक के साथ क्रमश: थल सेना और वायुसेना की वर्दी पहन कर रैंक प्राप्त किए थे। उस कार्यक्रम की तस्वीरें आज भी लोगों का याद होंगी। आज वायुसेना के अधिकारी बता रहे कि रैंक लेने के बाद से धेानी और तेंदुलकर ने पलट कर नहीं देखा। खिलाडिय़ों का ऐसा रवैया वाकई निराशाजनक और खीझ पैदा करने वाला है। सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल और ग्रुप कैप्टेन के पदों का अपना खासा महत्व है। इनकी अपनी गरिमा है। सेना के किसी भी अंग के लोग ही बता सकते हैं कि संबंधित ओहदा पाने के लिए उन्होंने कितना परिश्रम और त्याग किया है। आप कितने भी बड़े तीस मार खां हो सकते है लेकिन अनुशासित बलों का हिस्सा बनना आसान नही होगा। अनुशासित बलों में शामिल होने के लिए एक कड़ी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। वहां कड़े अनुशासन का पालन करना होता है। धोनी और तेंदुलकर की अपनीं व्यस्तताएं होंगी। खेल और विज्ञापनों से कमाई की जुगत में लगीं इन दोनों क्रिकेट हस्तियों के पास समय कहां है जो वे कुछ और सोचें। हां, उनसे यह अवश्य पूछा जा सकता है कि जनाब,आपके पास समय नही था तो मानद रैंक प्रस्ताव को स्वीकार क्यों किया था? हमारे यहां कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने किसी मानद पद को स्वीकार तो कर लिया किन्तु उससे जुड़ी जिम्मेदारियों और दायित्वों के निर्वाह के प्रति वे गम्भीर नहीं दिखे। पिछले चार दशक के दौरान अनेक फिल्मी हस्तियों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जा चुका है। यह शोध का विषय हो सकता है कि इनमें से कितने लोगों ने राज्यसभा की कार्रवाई में भाग लेकर स्वयं को एक जिम्मेदार सदस्य या नागरिक साबित किया? गायिका लता मंगेशकर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने राज्यसभा की किसी बैठक में हिस्सा नहीं लिया था। साफ बात है कि रूचि नहीं है तो इस तरह के प्रस्ताव स्वीकार ही नहीं करने चाहिए। भाजपा लहर में चुनाव जीत कर फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र भी लोकसभा में जा पहुंचे थे। फिल्मी पर्दे पर सैंकड़ों बार गरजते रहे धर्मेन्द्र की लोकसभा में आवाज सुनने के लिए लोग तरस गए। बहरहाल, यहां मुद्दा सेना के पदों की गरिमा बनाए रखने का है। तेंदुलकर और धोनी के उदाहरणों के चलते खिलाडिय़ों और ग्लैमर वल्र्ड के लोगों को मानद रैंक नहीं देने का फैसला सही है। वायुसेना अधिकारी की टिप्पणी पर धोनी और तेंदुलकर के पास सफाई में कहने के लिए कुछ है?
जीजाजी घोटाला: सच सामने आए
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा ने अरविन्द केजरीवाल और प्रशांत भूषण द्वारा लगाए गए आरोपों को खारिज तो किया है लेकिन आरोपों की न्यायिक जांच संबंधी मुद्दे पर उनका मौन आश्चर्यजनक है। वाड्रा का कहना है कि केजरीवाल और प्रशंात भूषण ने सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए गलत, अवमाननापूर्ण और आधारहीन आरोप लगा कर उनका और उनके परिवार का नाम बदनाम करने की कोशिश की है। एक दिन पूर्व ही वाड्रा ने कहा था कि सभी तरह की नकारात्मकता से निबट सकते हैं। इस बीच डी एल एफ ने भी केजरीवाल और भूषण के आरोपों को खारिज किया था। केजरीवाल और भूषण का कहना है कि डी एल एफ ने वाड्रा को सरकार से फायदों के एवज में बिना गारंटी के धन दिया था। डी एल एफ ने जोर दिया हेै कि उसका वाड्रा के साथ एक उद्यमी के रूप में पारदर्शी सौदा हुआ था। डी एल एफ के बयान और वाड्रा द्वारा किए गए पलटवार से केजरीवाल और भूषण का रत्तीभर प्रभावित नहीं दिखना तथ्यों को लेकर उनके आत्म विश्वास को दर्शा रहा है। केजरीवाल ने डी एल एफ के बयान को आधा सच निरूपित कर दिया है। उनका यह कहना गलत नहीं है कि वाड्रा को उठाए गए सवालों के जवाब देना चाहिए। इस बीच केजरीवाल और भूषण के लिए मनोबल बढ़ाने वाला घटनाक्रम यह हुआ कि वाड्रा पर लगाए गए आरोपों को भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के विरूद्ध एक मुद्दे के रूप में भुनाने की कोशिश शुरू कर दी । उधर, सामाजिक कार्यकर्ता ने तक केजरीवाल को समर्थन कर दिया है। अन्ना का कहना है कि वाड्रा पर लगाए गए आरोपों की न्यायिक जांच होनी चाहिए।
केजरीवाल और भूषण द्वारा वाड्रा की घेराबन्दी की कोशिश ने कांग्रेस के विरोधी दलों को एक बार फिर सक्रिय कर दिया है। यह मुद्दा आने वाले दिनों में कांग्रेस के बड़ा सिरदर्द साबित हो तो आश्चर्य नहीं होगा। कांग्रेस की अगुआई वाली संप्रग सरकार के लिए दूसरा कार्यकाल वैसे भी कांटों भरी राह पर चलने जैसा साबित होता रहा है। उस पर घोटालो और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के आरोप लगते रहे हैं। इन में से किसी भी आरोप का जवाब दमदारी से देने में कांग्रेस और उसकी मनमोहन सरकार कहां कामयाब हो पाई? ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि भ्रष्टाचारियों के बीच फंसे बेबस इंसान जैसी नजर आने लगी है। अबतक राजनीतिक विरोधी ही कांग्रेस और कांग्रेसियों की खिचाई करते रहे हैं परंतु वाड्रा पर केजरीवाल कंपनी का सीधा हमला 10 जनपथ भक्तों के होश उड़ा दिने के लिए पर्याप्त है। यही कारण है कि वाड्रा पर आरोप लगते ही एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री वाड्रा के बचाव की मुद्रा में आ गए। कांग्रेस के बड़बोले प्रवक्ता मनीष तिवारी ने भी केजरीवाल और भूषण के आरोपों को असत्य करार दिया है। सरकार और कांग्रेस दोनों ही वाड्रा की ओर से युद्ध के लिए तत्पर हैं? जबकि आरोप वाड्रा पर लगें है इसलिए उनका सामना करने की जिम्मेदारी भी वाड्रा पर है। वाड्रा सीना ठोंक कर क्यों नहीं कहते कि वह किसी भी प्रकार की जांच के लिए तैयार हैं। फिर उनके समक्ष कानूनी विकल्प भी है। अगर केजरीवाल के आरोप असत्य हैं तब वाड्रा उन पर मुकदमा ठोंकें । वाड्रा के बचाव में सरकार के लोगों के बयान और कांग्रेसियों की मोर्चाबंदी देशवासियों के मन उठ रहे सवालों का उत्तर नहीं दे पा रही है। इस बात में क्या गलत होगा यदि पिछले पांच वर्षों में राबर्ट वाड्रा द्वारा अर्जित सम्पत्ति की जांच की जाती है। वाड्रा की हैसियत आम आदमी जैसी नही है। वह सत्ताधारी पार्टी की अध्यक्ष के दामाद हैं। उनकी स्थिति नाजुक है। वाड्रा की किसी भी चूक या गलती के साबित होने की स्थिति में इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है।
केजरीवाल और प्रशांत भूषण को कच्चा खिलाड़ी मानने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। नियम और कानूनों की उन्हें खासी जानकारी है। वाड्रा के विरूद्ध मोर्चा खोलने से पहले तथ्यों को लेकर वे अवश्य आश्वस्त हुए होंगे। केजरीवाल ने डी एल एफ के बयान को आधा सच बताया है, जाहिर है कि उनके पास कुछ और जानकारी है। कहते है,धुआं उठा हो तो आग अवश्य होगी। वाड्रा पर लगे आरोपों का जवाब सिर्फ तथ्यपूर्ण उत्तर से ही संभव है। लोगों के मन में वाड्रा को लेकर पैदा हुए संदेह का शीघ्र निवारण जरूरी है अन्यथा इसको विश्वास में बदलने में कितनी देर लगेगी?
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