Wednesday, October 20, 2010

भगवान से दूर कर देती है निंदा की आदत

(पं. विजयशंकर मेहता )
दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा बड़ी प्रिय लगती है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के युग में एनालिसिस की आड़ में आलोचना और निंदा की आदत कब जन्म ले लेती है पता नहीं लगता। आलोचना और निंदा में बारीक-सा फर्क है।

निंदा का अर्थ है अपने अहंकार का दूसरे के अहंकार से टकराना, जबकि आलोचना का मकसद होता है कहीं न कहीं सत्य को ढूंढ़ना। निंदा के पीछे शत्रुता छिपी है और आलोचना मैत्री को साथ लेकर चलती है। निंदा में मिटाने का भाव है, आलोचना में जगाने की इच्छा होती है।

निंदा का नुकसान रानी कैकयी ने उठाया था। रामजी के राजतिलक के पूर्व एक ही रात में कैकयी के सामने मंथरा ने जो वार्तालाप आरंभ किया था, उसका आरंभ निंदा स्तुति से ही हुआ था। अपनी निंदा वृत्ति को उसने कैकयी में भी प्रवेश करा दिया था। कैकयी के जीवन में निंदा आते ही राम दूर चले गए। निंदा की आदत भगवान को हमसे दूर कर देती है।

निंदावृत्ति ने पूरे विश्व के धार्मिक दृश्य को आहत किया है। अनेक धार्मिक गुरु और उनके असंख्य अनुयायी एक-दूसरे के प्रति निंदा भाव रखने के कारण धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाते गए। धर्म शास्त्र अपने शब्दों से पहचाने गए हैं, निंदा के खेल में शब्दों की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन अध्यात्म थोड़ा धर्म से गहरा मामला है। यह शब्द से परे है। धर्म व्यक्त है, अध्यात्म अनुभूति है। हम और हमारा धर्म श्रेष्ठ, बाकी सब निकृष्ट है यह निंदावृत्ति की ही देन है।

Friday, October 8, 2010

क्यों जरूरी है जीवन में मौन?

मौन- सुनने में बड़ा भारी सा लगने वाला शब्द पर वास्तव में बड़ा ही अचूक शस्त्र। शस्त्र इसलिए की इससे बड़े से बड़ा दुश्मन भी नतमस्तक हो जाता है
मौन एक तरह का व्रत है साधना है। मौन-व्रत का सीधा सा मतलब होता है- अपनी जुबान को लगाम देना अर्थात अपने मन को नियंत्रित करते हुए चुप रहना।
मौन का एक अर्थ यह भी होता है अपनी भाषा शैली को ऐसा बनाएं जो दूसरों को उचित लगे।
पर क्या मौन इतना ही जरूरी है?
क्या मौन के बिना जीवन नहीं चल सकता?
मौन की आदत डालने से व्यक्ति कम बोलता है और जब वह कम बोलता है तो निश्चित रूप से सोच समझकर ही बोलता है।इस तरह से वह अपनी जुबान को अपने वश में कर सकता है।
यह बात तो प्रामाणित भी हो चुकी है कि सप्ताह में कम से कम एक दिन मौन रखने से कई आश्चर्यजनक परिणाम मिले हैं। फिर भी यदि मौन पूरे दिन नहीं रख सकते तो आधे दिन का जरूर रखना चाहिए।
बोलने से व्यक्ति के शरीर की शक्ति खत्म होती है। जो जितना ज्यादा बोलता है उसका एनर्जी लेबल, जिसे आन्तरिक शक्ति भी कहते हैं, का नाश होता है। यह आन्तरिक शक्ति शरीर में बची रहे इसलिए भी मौन व्रत जरूरी है।