Wednesday, April 20, 2011

बिनायक सेन, अब सुधर जाना

----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
राष्ट्र द्रोह और नक्सलियों को राज्य के विरुद्ध लड़ाई के लिए नेटवर्क बनाने में मदद करने के आरोप में छत्तीसगढ़ की निचली अदालत से उम्रकैद की सजा पा चुके कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता, ६१ वर्षीय डॉ. बिनायक सेन ने अब राहत महसूस की होगी। देश की सर्वोच्च अदालत ने सेन को जमानत दे दी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एच.एस. बेदी और जस्टिस सी.के. प्रसाद की बेंच ने सेन को जमानत देने की वजह नहीं बताई तथा जमानत की शर्तें तय करने का काम निचली अदालत पर छोड़ दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सेन अब जेल के बाहर आ सकेंगे लेकिन निचली अदालत के फैसले के विरुद्ध आगे की कानूनी लड़ाई उन्हें लडऩी होगी। अत: सेन या उनके हमदर्दो को यह समझ में आ जाना चाहिए कि जमानत मिलना बेगुनाह साबित होना नहीं है। बिनायक सेन पर यह आरोप है कि उन्होंने एक तरह से माओवादियों के कूरियर की तरह भूमिका अदा की थी। वह एक अभियुक्त पीयूष गुहा से ३० बार जेल में मिले थे तथा उनके पास से माओवादी पर्चे और दस्तावेज मिले थे। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सेन की जमानत मंजूर करते हुए जो टिप्पणी की है वह निश्चित रूप से दूरगामी प्रभाव वाली साबित होगी। बेंच ने कहा कि सेन के पास नक्सली गतिविधियों से जुड़े दस्तावेज मिले थे लेकिन इससे आप कैसे देशद्रोह का आरोप लगा सकते हैं। अदालत ने कहा कि ‘‘ जिस तरह महात्मा गांधी की आत्मकथा रखने से कोई गांधीवादी नहीं बन जाता, उसी प्रकार नक्सली साहित्य रखने से भी कोई नक्सली नहीं बन सकता। भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। वह (सेन) नक्सलियों के हमदर्द हो सकते हैं, इससे दोषी नहीं बन जाते।’’
सेन को जमानत विशुद्ध कानूनी तर्कों के चलते मिली है। नि:संदेह महात्मा गांधी की जीवनी लेकर घूमने वाले को गांधीवादी और नक्सली साहित्य रखने वाले को नक्सली नहीं कहा जा सकता है लेकिन यहां विचारधारा और उसका प्रभाव तथा व्यक्ति विशेष की रुचि पर भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है । किसी साहित्य को कोई भी व्यक्ति उसी स्थिति में अपने पास रखता है जब उसके प्रति उसमें झुकाव हो। बिना झुकाव अथवा रुचि के साहित्य का बोझ भला कोई क्यों उठाएगा? गांधी जी की आत्मकथा गांधीवाद से प्रभावित ही अपने पास रखना चाहेगा ताकि गांधी दर्शन से सीखकर अपने देश और समाज के लिए कुछ किया जा सके। ज्ञान बढ़ाने के लिए नक्सली साहित्य को कितने लोग ढोते हैं? भले लोग किसी विचारधारा से कितने भी सहमत क्यों न हों लेकिन यदि उनमें कानून के शासन और संविधान के प्रति आस्था एवं सम्मान हो तो वे उसके विवादास्पद साहित्य से दूर ही रहेंगे। इस देश में ऐसे हजारों उदाहरण सामने आ चुके हैं जब कथित अश्लील साहित्य रखने अथवा नीली फिल्मों की सीडी लिये लोगों को पुलिस ने दबोच लिया। वे अव्वल दर्जे के व्याभिचारी मान लिये गये। आये दिन अखबारों में कॉल गल्र्स पकड़ी जाने की खबरें आती हैं। बताया जाता है कि कैसे कोई पुलिस वाला ग्राहक बनकर पहुंचा और कथित कॉल गल्र्स को पकड़ लिया गया। वहां तो बात सिर्फ देह की कीमत तक ले पाती है। धन लेकर देह समर्पण कहां सम्पन्न होता है। फिर उन लड़कियों को जेलों में क्यों डाल दिया जाता है। कुल मिलाकर स्थिति बड़ी जटिल है। यदि राष्ट्रद्रोह पर उतारु किसी प्रतिबंधित संगठन के प्रति हमदर्दी को अपराध नहीं मानेंगे तब ऐसे प्रतिबंध का अर्थ क्या रह जाएगा? प्रतिबंध का अप्रत्यक्ष उद्देश्य ही आम लोगों को ऐसे व्यक्तियों और संगठनों से दूर रखना होता है। प्रतिबंधित संगठन से हमदर्दी को अपराध नहीं मानने पर पुलिस और सुरक्षा बलों का काम जटिल हो जाता है। बहरहाल, मिस्टर बिनायक सेन के हमदर्द अब खुश होंगे। संभव है कि बताशे बांटे जा रहे हों। क्योंकि बस्तर के जंगलों में मिठाई कहां मिलेगी। बिनायक सेन को सिर्फ इतना परामर्श देना है, ‘‘अब तो सुधर जाओ’’

Monday, April 18, 2011

काले परिधान में साफ लोगों की जरूरत

----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
भारत के प्रधान न्यायाधीश एस.एच.कापाडिय़ा ने कहा है कि ‘‘न्यायपालिका में काले परिधान में साफ लोगों की जरूरत है। इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सत्यनिष्ठा बनी रहेगी।’’ जस्टिस कापाडिय़ा की उक्त टिप्पणी में भ्रष्टाचार के आरोपों के माहौल में न्यायपालिका की छवि को लेकर उनकी चिंता प्रतिबिम्बित हो रही है। जस्टिस कापाडिय़ा को कहना पड़ा है कि जजों को आत्ममंथन बनाये रखना चाहिए और वकीलों, राजनेताओं, मंत्रियों और राजनीतिक दलों से सम्पर्क से बचें। उन्होंने यह भी सलाह दी कि उच्चस्तरीय जजों को अपने से निचली अदालत के प्रशासनिक कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। जस्टिस कापाडिय़ा की उक्त टिप्पणी का निचोड़ यही समझ में आ रहा है कि न्यायपालिका की पवित्रता बनाये रखने पर जोर दिया गया। संभवत: यही कारण है कि प्रधान न्यायाधीश ने जजों को राजनीतिक संरक्षण नहीं देने पर जोर दिया है। निष्पक्ष विश्लेषकों का यह निष्कर्ष काफी सही लग रहा है कि जस्टिस पीडी दिनाकरन और जस्टिस सौमित्र सेन से जुड़े भ्रष्टाचार के मुद्दों की पृष्ठभूमि में प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण बन गई है। साफ बात यह है कि राजनेताओं तक यह संदेश पहुंच चुका होगा कि न्यायपालिका को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने के लिए सहयोग करेंगे। इससे देश और समाज के साथ-साथ सियासी बिरादरी का ही भला होना है।
दो-तीन दिन पूर्व गांधीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने खुला आरोप लगाया था कि भ्रष्ट राजनेताओं ने आम लोगों के एक बड़े भाग को भी भ्रष्ट बना दिया है। अन्ना की टिप्पणी को वाकयुद्ध का एक हमला मानने की बजाय चिंतन इस बात पर किया जाए कि राजनेताओं ने अपने निहित स्वार्थों के लिए समाज के किस-किस हिस्से तक भ्रष्टाचार के कैंसर के वायरस को पहुंचाया है? इस संक्रमण से अगर अधिकांश विभाग और वर्ग प्रभावित हैं तब न्यायपालिका को भला कैसे सुरक्षित या अनछुआ माना जा सकता है? ऐसा माना जाता रहा है कि न्यायपालिका के निचले स्तर पर तुलनात्मक रूप से अधिक भ्रष्टाचार है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस मार्कण्डेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा द्वारा गत २६ नवंबर को की गई टिप्पणी को याद करें। न्यायाधीश द्वय ने कहा था कि ‘‘इस हाईकोर्ट के अधिकांश जज भ्रष्ट हैं और वकीलों से सांठ गांठ रखते हैं।’’ ऐतिहासिक फैसलों का समृद्ध इतिहास रखने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के संबंध में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आईना दिखाने जैसी है। बड़े दु:ख के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि हाईकोर्टों के कई जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले हैं। समस्या यह है कि उच्च न्यायपालिका के किसी न्यायाधीश को महाभियोग से ही हटाया जा सकता है। यह भी न्यायिक जांच के बाद संभव है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस वी.रामास्वामी का मामला याद करें। जांच में उन्हें दोषी पाया गया था। १९९२ में संसद में महाभियोग प्रस्ताव गिर गया। जाहिर है कि राजनीतिक बिरादरी में मौजूदा जस्टिस रामास्वामी के हमदर्दो ने वफादारी निभा दी। कर्नाटक के चीफ जस्टिस पी.डी. दिनाकरन को याद करें। गंभीर आरोपों के बाद भी वह अदालत में मामलों की सुनवाई करते और प्रशासनिक फैसले लेते रहे। गंगटोक स्थानांतरण आदेश का पालन उन्होंने विलंब से किया। इस हठी और अडिय़ल व्यवहार के पीछे के कारण राजनीतिक संरक्षण ही रहा है।
न्याय पालिका को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने के लिए जरूरी है कि नैतिक पतन, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के मामलों का निबटारा फास्ट ट्रैक कोर्ट से करवाया जाए। उच्च न्यायपालिका के भ्रष्ट जज को हटाने के लिए महाभियोग प्रक्रिया तेज हो। किसी न्यायाधीश के विरुद्ध कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति की ओर से मंजूरी की समय-सीमा तय की जाए। दरअसल, जजों की नियुक्ति से लेकर सेवानिवृत्ति तक के सभी फैसले लेने का अधिकार न्यायपालिका के हाथों में रहना चाहिए। कोई राजनेता न्यायाधीशों को किसी भी प्रकार से प्रलोभन देने की स्थिति में ही न रहे। इसके अलावा आचार संहिता के कड़ाई से पालन को सुनिश्चित करके न्यायपालिका को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है।

ठेका नहीं लिया है पाक खिलाडिय़ों को पालने का

----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी शाहिद आफरीदी ने इंडियन क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) से अपील की है कि इंडियन प्रीमियर लीग में शामिल किये जाने के समय पाकिस्तान क्रिकेट खिलाडिय़ों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। कराची में आफरीदी ने सफाई दी कि वह अपनी बात नहीं कर रहे हैं। वह चाहते हैं कि पाकिस्तानी युवा क्रिकेट खिलाडिय़ों को आईपीएल जैसे प्लेटफार्म पर खेलने का अवसर मिले। उल्लेखनीय है कि आईपीएल के पहले संस्करण (२००८) में ११ पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को खेलने का मौका मिला था। हैदराबाद टीम से उस आईपीएल में शामिल हुए शाहिद आफरीदी सबसे महंगे पाकिस्तानी खिलाड़ी थे जिसने पौने सात लाख डालर की मोटी रकम कमाई थी। मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद उत्पन्न सुरक्षा चिंताओं के चलते २००९ और २०१० के आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ी नहीं खेल पाए। आईपीएल के आज से शुरू हो रहे चौथे संस्करण में भी पाकिस्तानी खिलाड़ी नहीं हैं। यह तो आंकड़ों की बात हुई लेकिन आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाडिय़ों की रुचि के पीछे एक जुझारू और फटाफट क्रिकेट मुकाबले में खेलकर बल्ले और गेंद पर हाथ साफ करने और नाम कमाने की भावना के पीछे असल आकर्षण इस टूर्नामेंट से खिलाडिय़ों पर होने वाली नोटों की बारिश है। यह एक ऐसा अवसर होता है जब अच्छा खिलाड़ी नोटों की गठरी बांधकर घर लौटता है। वह आर्थिक चिंताओं से कई वर्षों तक मुक्त रह सकता है। इस देश में भी कुछ लोग आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को मौका देने की वकालत कर चुके हैं। उनका सिर्फ यही राग सुनाई देता है कि इससे दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य होने में मदद मिलेगी। लेकिन इतिहास गवाह है विभाजन के छह दशकों के दौरान भारत ने कम-से-कम ६०० बार पाकिस्तान से संबंध सामान्य बनाने की कोशिश की होगी। भारत ने पाकिस्तानियों के तमाम छल-कपट को नजरअंदाज किया है। पाकिस्तान के विषवमन की ओर कभी ध्यान नहीं दिया लेकिन बदले में भारत को मिला क्या? ईष्र्या, नफरत, साजिशें और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जहर की बौछार? अपनी दकियानूस सोच, कट्टरवाद, आतंकवाद को संरक्षण के कारण पाकिस्तान पिछड़ा है। वह कर्ज में डूबा है, मगर उसकी अकड़ कायम है। इस सबके बावजूद पाकिस्तानी कलाकारों को यहां काम दिया जाता है। गंभीर रूप से बीमार पाकिस्तानियों का यहां मुफ्त या रियायती दर पर इलाज होता है। कम-से-कम आधा दर्जन पाकिस्तानी शिशुओं और बच्चों के दिल यहां दुरुस्त किये गये। राजनीति और कूटनीति का फेर ऐसा है कि भारत, पाकिस्तानी कारस्तानियों को जानते हुए भी अक्सर चुप रहा। अधिकांश पाकिस्तानियों के दिमाग में भारत और भारतीय के प्रति कितनी नफरत और जहर भरा है इसका प्रमाण विश्वकप क्रिकेट के सेमीफाइनल में भारत के हाथों पराजय के बाद पाकिस्तान लौटे उनके कप्तान शाहिद आफरीदी के बयान से मिल गया। आफरीदी ने भारतीयों को छोटे दिल वाला बताया था। उसके अनुसार भारतीयों के साथ रहा ही नहीं जा सकता है। वहीं आफरीदी आज भारतीय क्रिकेट बोर्ड से कह रहा है कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को शामिल किया जाए। क्यों? क्या भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने ठेका लिया है पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को पालने का? हैरानी हो रही है कि शाहिद आफरीदी के बयान पर? क्या कोई इंसान इतना भी मक्कार हो सकता है? साफ शब्दों में कहें, पाकिस्तानियों को यहां खेलने देने की इजाजत का अर्थ सांप को दूध पिलाने की तरह होगा। यहां से दौलत, शोहरत कमाओ और अपने देश लौटकर हमें कोसो। अरे भई! आप आईपीएल में क्यों खेलना चाहते हैं। अपना खुद का पीपीएल शुरू कर लो। आश्वस्त करते हैं हमारा कोई खिलाड़ी उसमें खेलने देने के लिए आप के समक्ष नहीं गिड़गिड़ाएगा।

Friday, April 8, 2011

समस्या फर्जी गरीबों से निबटने की

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
संसद की एक स्थायी समिति ने गरीबों की गणना में भारी धांधली को उजागर किया है। समिति के अनुसार गरीबी की रेखा के ऊपर (एपीएल) के ८६ प्रतिशत लोगों को गरीबी की रेखा के नीचे (बीपीएल) में शामिल कर लिया गया है। ग्रामीण इलाकों में भी स्थिति बुरी है जहां १७ प्रतिशत धनाढ्य लोगों को बीपीएल कार्ड दिये गए हैं। इस विषय पर आगे बढऩे से पहले २००८-०९ के आर्थिक सर्वेक्षण को याद करना जरूरी है जिसके अनुसार देश में ८०.५ प्रतिशत आबादी ऐसे लोगों की है जो बीस रुपये प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं। लेकिन देश में बेहद गरीबों की संख्या को लेकर आंकड़ों पर विवाद रहा है। अर्जुन सेनगुप्ता की अगुआई वाले आयोग ने कहा था कि ७७ प्रतिशत आबादी ऐसे लोगों की है जो बीस रुपये रोज पर गुजारा कर रहे हैं। इस तरह के दावों का तकनीकी आधार क्या था? इन्हें स्वीकार करने का मन नहीं हुआ लेकिन योजना आयोग द्वारा पी.तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित समिति ने पाया कि गरीबी की रेखा में जीवनयापन करने वालों की आबादी ३७ प्रतिशत है। यदि बीपीएल निर्धारण के मापदण्ड को देखें तब यह ३७ प्रतिशत वाला आंकड़ा भी हजम नहीं होता है। गरीबी रेखा का निर्धारण १९७८ में आय और खाद्य जरूरत को देखते हुए तय किया गया था। तब ग्रामीण क्षेत्रों में ६१.८० रुपये प्रतिमाह प्रतिव्यक्ति और शहरी क्षेत्र में ७१.३० रुपये प्रति व्यवित, प्रतिमाह को गरीबी की रेखा माना गया। योजना आयोग प्रत्येक वर्ष मुद्रास्फीति के आधार पर इसकी गणना करता है। वर्ष २००५-०६ में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ३६८ रुपये प्रति व्यक्ति, प्रतिमाह और शहरी क्षेत्रों के लिए ५६० रुपये प्रति व्यक्ति, प्रतिमाह को गरीबी की रेखा माना गया। इतनी आय से सिर्फ पेट की आग जैसे-तैसे शांत की जा सकती है। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी अन्य जरूरतों की पूर्ति इतनी कम राशि से नहीं हो सकती। जाहिर है कि इतनी आय पर किसी तरह जी रहे लोगों को सरकार समाज की ओर से सहारा मिलना जरूरी है। दूसरे शब्दों में कहें कि निश्चित रूप से देश के बेहद गरीब लोगों को कुछ मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहारा देना एक जिम्मेदारी भरी सोच है। लेकिन बीपीएल कार्डधारियों को रियायती दर पर खाद्यान्न, कुछ राज्यों में एक बत्ती विद्युत कनेक्शन जैसी सुविधाएं शुरू किये जाने के साथ ही इनकी संख्या बढऩे लगी। अधिकांश राज्यों में बीपीएल कार्डधारियों की संख्या बढऩे से यह संदेह मजबूत हुआ कि अपात्र लोग कतिपय शासकीय कर्मचारियों, पार्षदों, राजनेताओं और दलालों के सहयोग तथा संरक्षण से गरीबी की रेखा के नीचे जीने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाने में कामयाब हो गये हैं। ऐसी हरकत जहां अव्वल दर्जे की छिछोरी मानसिकता को दर्शाती है वहीं इसके कारण वास्तविक गरीबों का हक छिनने की आशंकाएं मजबूत होती हैं। बीपीएल आबादी में की गई गड़बड़ी का प्रमाण स्वयं संसद की समिति ने दिया है जो इस सूची में ८६ प्रतिशत लोग एपीएल के होने का दावा कर रही है। मध्यप्रदेश में एक जिला कलेक्टर ने बीपीएल सूची में फजी गरीबों की घुसपैठ को रोकने के लिए सराहनीय काम किया। उन्होंने बीपीएल सूची वाले परिवारों के मकान के बाहर उनका बीपीएल क्रमांक दर्ज करवाने के निर्देश दिये। बड़ा उत्साहजनक परिणाम सामने आया। कई लोग स्वेच्छा से आगे आए और बीपीएल सूची से अपने नाम हटवा लिये। प्रश्न यह है कि इतनी नैतिकता और साहस कितने परिवार दिखा पाएंगे? बीपीएल कार्डधारी परिवार के मकान के सामने विवरण दर्ज करना एक सही उपाय है। कोई गरीब है और सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाएं भोग रहा है, फिर उसे इस सत्य को स्वीकार करने में शर्म नहीं महसूस होनी चाहिए। उधर, सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि बीपीएल परिवार तय करते समय पुख्ता जांच हो। जान बूझकर या अनजाने में तथ्यों को छुपा या दबाकर बीपीएल सूची में आने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। आखिर बीपीएल परिवारों को मदद करदाताओं से वसूली गई रकम से ही की जाती है। ऐसे धन का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।

Tuesday, March 22, 2011

जिसकी लाठी उसकी भैंस

----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
आल इंडिया जाट आरक्षण समिति के आह्वान पर आंदोलनरत जाट समुदाय ने उत्तर प्रदेश में रेल लाइन और हाईवे से अवरोध हटा लिये हैं। जाटों के नेताओं ने कहा है कि केंद्र सरकार की नौकरियों में जाटो के लिए आरक्षण के बारे में जल्द निर्णय नहीं लिया गया तो वे नये सिरे से व्यापक आंदोलन शुरू करेंगे। खबर है कि हरियाणा में आंदोलनकारी जाट अभी भी अपने कदम पीछे हटाने को तैयार नहीं है। जाट आंदोलनकारियों ने गत ५ मार्च से रेल लाइन और हाइवे पर अवरोध पैदा कर आवागमन ठप्प सा कर दिया था। उनके आंदोलन से अकेले रेल्वे को एक अरब रूपये की चोट पड़ी है। आम आदमी को अलग परेशानी हुई। बीमार लोग इलाज के लिए दिल्ली नहीं जा पा रहे थे, कितने ही बेरोजगार समय पर इंटरव्यू के लिए नहीं पहुंच पाए। एक अनुमान के अनुसार हर दिन लखनऊ से ही १३-१४ हजार लोग देश की राजधानी जाते और कमोवेश इतनी ही बड़ी संख्या में वहां से लौटते हैं। कल्पना की जा सकती है कि रेल और सडक़ परिवहन ठप्प किए जाने से आम आदमी को कितनी पेरशानी हुई होगी। राजस्थान में गुर्जर आंदोलनों के समय इसी तरह का नजारा देखने को मिला था। गुर्जरों का आंदोलन भी आरक्षण के लिए रहा हैं। आरक्षण संबंधी गुर्जरों और जाटों की मांग के पक्ष-विपक्ष में सैंकड़ों तक दिये जा सकते है। मुद्दा यह है कि कोई भी समुदाय या सम्प्रदाय अथवा जाति के लोग अपनी मांग मनवाने के लिए आम आदमी का जीवन क्यों मुश्किल कर देते हैं? राष्ट्र की सम्पत्ति को क्यों नुकसान पहुंचाया जाता है? सबसे बड़ी बात यह है कि वोट बैंक खोने के डर से जहां सरकार चलाने वाले लोग नपुंसकों की तरह देखते हैं वहीं अवसरवादी राजनेता ऐसे आन्दोलन को अपने-अपने ढंग से हवा देते हैं। राजस्थान में गुर्जर आंदोलन के दौरान लोगों को हुई परेशानी और सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान के बावजूद तत्कालीन वसुन्धरा राजे सरकार और केंद्र हाथ पर हाथ बांधे ताकते रहे। उस समय भी न्यायपालिका को आगे आकर जवाब-तलब करना पड़ा। इस बार जाट आंदोलन से लोगों को हो रही परेशानी पर भी मायावती सरकार खर्राटे मार कर सो रही थी। हाईकोर्ट द्वारा रेल लाइन से आंदोलनकारियों को हटाये जाने का आदेश देने पर राज्य सरकार जागी। मुख्यमंत्री मायावती ने जाट आंदोलनकारियों के ट्रैक से हटने का Ÿोय लेने में पलभर की देर नहीं की। मायावती तो जाट समुदाय की मांग को पहले ही समर्थन दे चुकी हैं। मजाल है कि कोई उनसे पूछ सके कि आंदोलन के कारण आम लोगों ने १५ दिनों तक जो कष्ट भोगा उस समय आप कहां थीं? किसी की मांग कितनी न्यायोचित या वाजिब हैं, एक अलग प्रश्न है लेकिन लोकतंत्र में मिली आंदोलन की सुविधा का जैसा दुरूपयोग भारत में दिखाई देने लगा है वैसा दुनिया में और कहां देखा गया है? आप किसी भी जाति, समुदाय अथवा सम्प्रदाय के हों लेकिन यदि किसी भी प्रकार से अपने लोगों की भावनाएं उभारने का माद्दा है तब सिकन्दर बनते देर नहीं लगेगी। ट्रेनों का आवागमन रोक देना, ट्रेनों और अन्य परिवहन साधनों को निशाना बनाना, खाद्यान्न अथवा दूध आदि की आपूर्ति रोकने की धमकी देना, सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाना, आखिर यह सब क्या है? उस पर तुर्रा यह कि आपके विरूद्ध बल प्रयोग नहीं होना चाहिए। कानून के शासन के बावजूद ऐसी मनमानी क्या जंगल राज या जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावतों को सच साबित नही कर देती हैं? वोट बैंक की राजनीति से उठकर सभी को गंभीर रूप लेती इस प्रवृत्ति को रोकने पर विचार करना होगा। टीवी चैनलों गाल बजाने और अखबारों में कलम दौड़ाने वालों को भी निडर होकर सकारात्मक सुझाव देने होंगे।

Friday, March 18, 2011

उपदेश मत दीजिये!

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एस. एच. कपाडिय़ा ने कहा है, ‘‘न्यायाधीशों को अपना काम करते समय समाज को उपदेश नहीं देना चाहिए। उन्हें विधायिका की बुद्धिमत्ता का आकलन नहीं करना चाहिए।’’ जस्टिस कपाडिय़ा ने आगे कहा, ‘‘समस्या यह है कि हम अपने मूल्यों, अपनी पसंद-नापसंद समाज पर थोप देते हैं।’’ वह संवैधानिक नैतिकता विषय पर न्यायमूर्ति पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान दे रहे थे। प्रधान न्यायाधीश ने न्यायाधीशों को उपदेश नही देने की सलाह दी है। इसका सीधा अर्थ यह है कि मामले से जुड़े सिद्धान्तों के अलावा किसी विषय पर नही बोला जाना चाहिए। जस्टिस कपाडिय़ा की उक्त टिप्पणी उनके दीर्घ अनुभव पर आधारित हैं। उन्होंने वह बात कही है जिसके विषय मे लम्बे समय से लोग सोचते रहे हैं लेकिन विषय न्यायपालिका से जुड़ा होने के कारण खुलकर बोलने से बचते रहे। वास्तव में लोकतंत्र मे न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का अपना महत्व और अपनी-अपनी भूमिकाएं है’। आधुनिक लोकतंत्र में चौथे स्तम्भ के रूप में प्रेस/मीडिया को अघोषित मान्यता सी मिली हुई है। इन चारों की अपनी कार्य प्रणाली और सीमायें है। यह अपेक्षा की जाती है कि ये सभी अपनी सीमाओ में रहें तथा यह अवश्य सुनिश्चित किया जाए कि कोई किसी के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर टकराव पैदा नही कर रहा है। इसके लिए संवैधानिक प्रावधानों के साथ साथ नियम कानून हैं। लेकिन हमारे यहां कई बार विचित्र स्थिति उत्पन्न होती दिखी। मर्यादा की मेढ़ टूटने की आशंका हुई। गनीमत यह है कि लगभग चारों स्तम्भ समय रहते सजग हो गए। जस्टिस कपाडिय़ा की टिप्पणी पर विचार करते समय दो बिंदुओं पर केंद्रित हो सकते हैं। मसलन, न्यायाधीश फैसला सुनाते समय कहीं निजी धारणाओं के प्रवाह में तो नहीं आ गए और न्यायपालिका की अति सक्रियता। कुछ लोग न्यायपालिका की अति सक्रियता की बात करते हैं लेकिन भारत के संदर्भ में एक सकारात्मक बात यह है कि न्यायपालिका ने हमेशा उन्हीं विषयों पर व्यवस्था दी जहां किसी भी कारण से लोकतंत्र के अन्य स्तम्भ पीछे रह गए। यही कारण है कि ऐसी व्यवस्थाओं को आमजन का भरपूर समर्थन मिला तथा लोगों का न्यायपालिका के प्रति विश्वास और अधिक मजबूत हुआ। जब बात किसी न्यायाधीश द्वारा उपदेश शैली मे टिप्पणी की जाती है अथवा मामलो से जुड़े सिद्धांतो के अलावा किसी अन्य विषय पर कुछ कहा गया तब उसपर प्रतिक्रिया भी हुई। ऐसी प्रतिक्रियायें मर्यादा और अनुशासन की सीमाओं मे रहीं। हाल में ही कम से कम दो उदाहरण सामने आए जिनमें अदालत की किसी टिप्पणी पर खुलकर असहमति व्यक्त की गई तथा उसे वापस लेने या उसमें संशोधन के लिए उचित न्यायिक मंच का सहारा लिया गया। ऐसी ही एक टिप्पणी को स्वयं सुप्रीम कोर्ट पिछले दिनों संशोधन कर चुका है। निष्कर्ष यह है कि सभी को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए सीमाओ का ध्यान रखना चाहिए। यह बात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से जुड़े सभी लोगो पर लागू होती है। सवाल यह है कि कोई भी विषयान्तर क्यों हो? न्यायाधीश एक सम्मानीय और प्रतिष्ठापूर्ण पद है। वहां से निकले शब्दों का ब्रह वाक्य के रूप लिया जाता है। प्रधान न्यायाधीश की यह अपेक्षा उचित है ‘‘हमें सिर्फ संवैधानिक सिद्धांतो के लिए ही काम करना चाहिए।’’ संवैधानिक व्यवस्था में किसी को अधिकार नही है कि वह दूसरों को उनके काम के बारे में बताये। लोकतंत्र की परिपक्वता और सफलता इसी पर टिकी है।

Thursday, March 17, 2011

लीबिया को इराक बनाने अमादा अमेरिका

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने लीबियाई शासक मुअम्मर गद्दाफी को नया अल्टीमेटम दिया है। ओबामा का कहना है कि गद्दाफी के विरुद्ध बढ़ते जन आंदोलन के कारण उन्हें अब पद छोड़ देना चाहिए। दरअसल, अमेरिका को चिंता इस बात को लेकर है कि गद्दाफी की वफादार सेना एक बार फिर भारी पडऩे लगी है गद्दाफी के वफादारों ने विद्रोहियों के कब्जे से कुछ क्षेत्रों को मुक्त करा लिया है। लीबिया के घटनाक्रमों और गद्दाफी को पदच्युत कराने में अमेरिका और उसके पश्चिम दोस्तों की बढ़ती रुचि से आशंका यह होने लगी है कि लीबिया का हश्र इराक जैसा हो सकता है। लीबिया एक ऐसे लंबे गृहयुद्ध में उलझने जा रहा है जिसके बाद स्थायी शांति की आशा अगले कई सालों तक संभव नहीं दिखती। पिछले एक पखवाड़े के दौरान कुछ बातें स्पष्ट रूप से समझ में आई हैं। जैसे अमेरिका गद्दाफी के विरुद्ध सैन्य बल का उपयोग करने को छटपटा रहा है लेकिन इस मकसद की पूर्ति में सबसे बड़ा रोड़ा रूस, चीन और भारत हो सकते हैं। अमेरिका जैसी मनोदशा फ्रांस और ब्रिटेन की देखी जा रही है। फ्रांस और ब्रिटेन पहले ही लीबिया को नो फ्लाई जोन घोषित कर चुके हैं। ताजा रिपोर्टो से साबित हो चुका है कि ब्रिटेन ने पहले से ही अपने जासूस लीबिया में छोड़ रखे थे। अत: यह आरोप लगाने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए कि लीबिया में चल रहे मौजूदा विरोधी आंदोलन की रूपरेखा लंदन, पेरिस और वाशिंगटन में तैयार की गई होगी तथा मौजूदा प्रदर्शनों के रिमोर्ट कंट्रोल इन्हीं तीन राजधानियों में हैं। यह उत्सुकता का विषय हो सकता है कि लीबिया के नागरिकों के कथित दमन को लेकर आज अमेरिका, ब्रिटेन फ्रांस और यूरोपीय संघ इतना क्यों विचलित हैं? मुअम्मर गद्दाफी को इस तरह धमकियां क्यों दी जा रही हैं। हैरानी की बात है कि अमेरिका ने अपनी बातें संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव के मुंह से निकलवा कर अपने तर्कों को न्यायोचित ठहराने की कोशिश तक कर डाली। नि:संदेह मुअम्मर गद्दाफी को एक तानाशाह ही माना जाएगा। लीबिया के इस शासक के अब तक के कार्यकाल के दौरान आम लोगों को उतनी आजादी न मिली हो जैसी कहीं और देखी जा जाती है लेकिन यह भी सच है कि गद्दाफी ने पूरी दमदारी से चार दशकों तक लीबिया को एकसूत्र में बांधे रखा। गद्दाफी के आत्मविश्वास पूर्ण व्यवहार को लोग अकड़ कह सकते हैं। यही अकड़ अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की आंखों में मिर्च की तरह पीड़ा देती रही। गद्दाफी को सउदी अरब और मिस्र के पूर्व शासकों की तरह अमेरिका के समक्ष कभी मिमियाते नहीं देखा गया। दुनिया में इस तानाशाह के दोस्त भी कम नहीं है। भारत, रूस और चीन से लीबिया के रिश्ते ठीक-ठाक रहे हैं। ईरान, निकारागुआ, क्यूबा और ब्राजील के साथ लीबिया के संबंध बहुत अच्छे हैं। ईरान ने खुली धमकी दी है कि यदि लीबिया पर हमला किया गया तो वहां अमेरिका सैनिकों की कब्रगाह बना दी जाएगी। दरअसल, ऐसा लगता है कि अमेरिका वही गलती या साजिश लीबिया में दोहराने जा रहा है जो इराक में सद्दाम हुसैन के विरुद्ध की गई थी। एक आधुनिक इराक को अमेरिकी साजिश ने हिंसा ग्रस्त राष्ट्र में बदल डाला। अमेरिका ने अपनी कठपुतली सरकार बैठा दी परन्तु कहना मुश्किल है कि इराक में कल क्या होगा? लीबिया में अमेरिकी मंडली की रुचि गद्दाफी को सत्ता से हटाने तक सीमित नहीं है। यह क्यों न कहें कि इराक की तरह लीबिया के तेल के लिए यह सारा झगड़ा है। जार्ज डब्ल्यु बुश की सनक के चलते इराक बर्बाद हो गया। बराक ओबामा लीबिया को तहत-नहस करने पर उतारु हैं।

Monday, March 7, 2011

अरुंधति की जुबान को कूची का जवाब

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
कहना मुश्किल लग रहा है कि चित्रकार प्रणब प्रकाश की उस पेंटिंग की आलोचना करें या चुप रहा जाए जिसमें बूकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरुंधति राय को बिस्तर पर चीनी नेता माओ और अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के साथ नग्रा लेटे हुए चित्रित किया गया है। प्रणब प्रकाश इससे पहले प्रसिद्ध चित्रकार एम.एफ. हुसैन की न्यूड पेंटिंग बनाकर खबरों में रह चुके हैं। माओ और लादेन के साथ अंरुधति राय के न्यूड पेंटिंग बनाने के लिए प्रणब प्रकाश का अपना तर्क है। उनका कहना है कि ‘‘अरुंधति राय उन बेरहम नक्सलियों का समर्थन करती हैं जिन्होंने बेकसूर भारतीयों के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है।’’ यह लेखिका उन निर्दयी कश्मीरी हत्यारों के साथ सांठगांठ करती रही है जिन्हें अपने कृत्य पर रत्तीभर पश्चाताप नहीं होता।’’ प्रणब प्रकाश यही नहीं रुक रहे हैं। उन्होंने बुद्धिजीवी समुदाय के उन लोगों पर भी प्रहार किया जो अरुंधति राय का समर्थन करते हैं। ‘‘प्रणब का कहना है, ये लोग प्रचार की धुन में उस भूखे बंदर की तरह नाचते हैं जो एक केला खाने को मिलने की आशा में मदारी द्वारा बजाये जा रहे डमरू की आवाज में नाचता है।’’ प्रणब प्रकाश के पेंटिंग पर अंरुधति राय और उनकी बौद्धिक-वानर सेना की ओर से किसी प्रकार की प्रतिक्रिया सुनने में नहीं आई है।’’ वैसे भी वे किस मुंह से प्रणब प्रकाश की पेंटिंग का विरोध कर सकते हैं। जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अरुंधति राय और उनकी Ÿोणी के अन्य तथाकथित बुद्धिजीवी, तमाम बकबक करते हैं, उसी अधिकार का उपयोग प्रणब प्रकाश ने किया है। अरुंधति राय को लिखना और जुबान हिलाना आता है। प्रणब प्रकाश को कैनवास पर कूची के सहारे रंग बिखेरने की कला की गहरी समझ है। अरुंधति राय जुबान से निकले हजारों शब्दों का जवाब प्रणब प्रकाश ने एक चित्र बनाकर दे दिया। निश्चित रूप से उवत पेंटिंग को सिरफिरों की अक्ल को दुरुस्त कर देने वाला माने अरुंधति राय में हत्यारों और अलगाववादियों के प्रति हमदर्दी और मोहब्बत उमड़ती है। अत: उन्हें समझ लेना चाहिए कि करोड़ों राष्ट्र भक्तों को अरुंधति के नाम से या उनकी शक्ल देखकर वमन को जी करता है। उसकी अभिव्यक्ति प्रणब प्रकाश की यह पेंटिंग कर गई। एक नारी के रूप में अरुंधति की हैसियत के बावजूद यहां उनका समर्थन करने की इच्छा नहीं हो रही है। प्रणब प्रकाश ने प्रचार के भूखे कतिपय बुद्धिजीवियों पर बड़ा सटीक प्रहार किया है। ये अपनी सिरफिरी सोच से सरकार के फैसले प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। बिनायक सेन का मामला ही लें। छत्तीसगढ़ की अदालत ने इस माओवादी को दोषी पाकर सजा सुनाई है लेकिन तथाकथित मानव अधिकारवादी और प्रचार के भूखे बुद्धिजीवी अदालत के फैसले को ही गलत बताने में जुट गये। रैलियां और प्रदर्शन आयोजित किये गये। अंग्रेजी मीडिया में बैठी वामपंथी लॉबी ने बिनायक सेन के समर्थन में अपनी पूरी ताकत झोंक डाली। सारी दुनिया में बिनायक सेन जैसे ड्रामेबाज को महान समाजसेवी और गरीबों के हमदर्द के रूप में प्रचारित किया गया। लंदन में ऐमनेस्टी इंटरनेशनल तक ने सेन की रिहाई की मांग कर दी। राहत की बात है कि सरकार न डरी न डिगी। बिनायक सेन जेल में हैं और उसे अपने अपराध के कारण जेल में ही रहना चाहिए। सेन की पत्नी कह चुकी हैं कि उसे यहां के न्याय प्रणाली पर भरोसा नहीं है। अरुंधति भी इस देश को कोस चुकी हैं। हमारा मानना है कि मिसेज सेन और अरुंधति को उस देश में चले जाना चाहिए जो उन्हें झेलने को तैयार हो। हां, अरुंधति राय को प्रणब प्रकाश की पेंटिंग की प्रिंट कापी अवश्य भेंट की जाए। उसे अहसास होना चाहिए कि ‘‘जैसे देव की वैसी पूजा’’ इसी को कहते हैं।

Sunday, March 6, 2011

बच्चों को वाहन न थमायें!

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में पंद्रह वर्षीय एक किशोरी की दुपहिया वाहन दुर्घटना में मौत से आहत नीमा समाज ने बच्चों को वाहन चलाने देने के संबंध में जो निर्णय लिये उन पर सभी अभिभावकों को अवश्य ध्यान देना चाहिए। खबरों के अनुसार समाज ने निर्णय लिया है कि अब कोई भी अभिभावक अपने १८ साल से कम उम्र के बच्चों को वाहन चलाने की अनुमति नहीं देगा। १८ साल से अधिक उम्र के बच्चों को पहले वाहन चलाने का विधिवत प्रशिक्षण लेकर यातायात नियमों को जानना होगा। इसके बाद ही वे ड्राइविंग लाइसेंस के लिए आवेदन करेंगे। निश्चित रूप से नीमा समाज की यह पहल अनुकरणीय है। देश में इस समय जिस तेजी से सडक़ दुर्घटनाओं और उनमें मरने वालों की संख्या बढ़ रही है उसके साथ एक तथ्य यह जुड़ा है कि दुर्घटनाओं में दुपहिया वाहन सवारों की संख्या काफी अधिक है। ऐसा क्यों हो रहा है? मोटे तौर पर समझ में यह आता है कि देखा-देखी और होड़ के चलते बच्चे माता-पिता पर दुपहिया वाहन के लिए दबाव डालते हैं। कभी माता-पिता दबाव में आकर दुपहिया वाहन दे देते हैं और कभी अपनी सुविधा के लिए ऐसा करते हैं। कुछ अभिवाहक यह देखकर फूले नहीं समाते कि उनका बेटा या बेटी (जो पाय:१८ वर्ष से कम आयु के ही होते हैं) कैसे फर्राटे से मोटर साइकिल दौड़ा लेते हैं। ऐसे ही बच्चों के साथ दुर्घटना की स्थिति अक्सर बनते देखी जाती है। नि:संदेह १६ वर्ष से अधिक के बच्चों को बिना गियर की दुपहिया वाहन चलाने की अनुमति है लेकिन उसे चलाने से पूर्व तेज रफ्तार के जोखिम और यातायात नियमों के बारे में जानकारी होनी ही चाहिए। देखा यह जा रहा है कि संतुलन साध लेने, रफ्तार बढ़ाने-घटाने की समझ और ब्रेक लगाना सीख लेने को पर्याप्त मान लिया जाता है। जबकि इसके साथ यातायात नियमों के कड़ाई से पालन की शिक्षा जरूरी होती है। जब से तेज रफ्तार मोटर साइकिलों का चलन बढ़ा है दुर्घटनाओं की संख्या काफी बढ़ गई। छोटे-छोटे शहर से लेकर महानगरों की सडक़ों पर इन आधुनिक फटफटियों की धमा चौकड़ी देखी जा सकती है। इस मामले में नव धनाढ्यों की संतानें आगे पाई जाती हैं। वे अपनी जान जोखिम में डालने के साथ-साथ दूसरों के जीवन पर भी संकट खड़े करते रहते हैं। पुलिस रिकार्ड छान लिये जाएं ऐसे सैकड़ों मामले सामने आ जाएंगे जिनमें किसी किशोर या युवक दुपहिया वाहन चालक की गफलत से किसी की जान चली गई या कोई जीवन भर के लिए लाचार बन गया। इस स्थिति के लिए तीन पक्ष जिम्मेदार माने जा सकते हैं। एक-बच्चों को बगैर प्रशिक्षण के दुपहिया वाहन थमाने वाले माता-पिता, दो-सडक़ परिवहन विभाग जहां कुछ रुपये दलालों के माध्यम से रिश्वत देकर आसानी से ड्राइविंग लायसेंस थमा दे दिया जाता है और तीन-ट्रैफिक पुलिस जो आमतौर पर वसूली में ही व्यस्त रहती है। पिछले दिनों एक खबर आई थी। सरकार ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन पर सजा और जुर्माने के प्रावधानों को कड़ा कर रही है। सवाल उठता है कि इससे होगा क्या? पहले आप ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने की प्रक्रिया को सख्त बनाइये? बिना लाइसेंस वाहन चलाने वालों पर भारी जुर्माने का प्रावधान हो। नाबालिग बच्चे वाहन चलाते मिलें तो अभिभावकों पर दस गुना जुर्माना लगाया जाये। इसके बाद ही स्थिति में सुधार की गुंजाइश है। लेकिन नीमा समाज ने एक अभूतपूर्व रास्ता दिखाया है। सभी समाजों को विचार करना चाहिए कि हमारे बच्चों का जीवन अमूल्य है। उसकी रक्षा के लिए कुछ कड़े फैसले लेना ही चाहिए ताकि बाद मेें पछताना न पड़े।

कहां जा रहा है पाकिस्तान ?

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव

पाकिस्तान में अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री शहबाज भट्टी को भी अपने उदारवादी दृष्टिकोण की कीमत चुकानी पड़ी। वह ईश निन्दा कानून में बदलाव के समर्थक थे। जब से उन्होंने ईशनिन्दा कानून की निन्दा की थी, उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थी। इस कानून की आलोचना करने के बाद पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या उन्हीं के सुरक्षा कर्मी ने कर दी थी। आशंका व्यक्त की जा रही है कि तासीर और भट्टी के बाद कट्टरपंथी आतंकवादी अब पूर्व सूचना एवं प्रसारण मंत्री तथा सत्तारूढ़ पीपीपी की नेता शेरी (शहरबानो) रहमान को निशाना बना सकते हैं। रहमान ने पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली में एक बिल पेश कर ईश निन्दा कानून में बदलाव की मांग की थी। बाद में उन्होंने अपनी पार्टी नेताओं के दबाव में अपने प्रायवेट बिल को वापस ले लिया था। कट्टरपंथी आतंकवादी तत्व ईसाई समुदाय की महिला आसिया बीवी को आत्मघाती हमले में उड़ा देने की धमकी पहले ही दे चुके हैं। कट्टरपंथियों की योजना आसिया पर जेल में ही हमला करवाने की है। आरोप है कि कुछ महिलाओं से आपसी बातचीत के दौरान आसिया ने अल्लाह की निंदा की थी। उदारवादी वर्ग और अल्पसंख्यकों का मानना है कि गरीब आसिया को आपसी रंजिश में फंसाया गया है। पहले तासीर और अब भट्टी की हत्याओं के बाद इस आशंका पर पुष्टि की मुहर लग गई है कि पाकिस्तान पर कट्टरपंथी तत्वों का अप्रत्यक्ष कब्जा हो चुका है और अपना वर्चस्व दिखाने के लिए वे इसी तरह की वारदातें और उदारवादी लोगों को निशाना बनाते रहेंगे। आंकड़े बता रहे हैं कि जून २००९ से जून २०१० के बीच पाकिस्तान में डेढ़ हजार से अधिक लोग आतंकवादी हमलों में मारे गए। कई उदारवादी नेताओं की हत्या की जा चुकी है। पाकिस्तान सरकार, सेना, पुलिस और अद्र्धसैनिक बल सभी कट्टरपंथी आतंकवादी के आगे बेबस नजर आने लगे हैं। सच यह भी है कि बड़ी संख्या में पढ़े-लिखे लोगों और उदारवादी वर्ग को अपने बच्चों के भविष्य की चिन्ता हो रही है। साधन-सम्पन्न लोग बच्चों को विदेश पढऩे जाने और कहीं और बसने का इंतजाम करने की सलाह देने से नहीं चूक रहे। पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति के लिए दो कारण जिम्मेदार मान जा सकते हैं। एक-कट्टरपन और दो आतंकवाद। धर्म के नाम पर जन्म लेने वाले पाकिस्तान में शुरूआत से ही धार्मिक कट्टरवाद पर जोर दिया गया। स्थिति फौजी तानाशाह जनरल जिया उल हक के शासनकाल में अधिक बिगड़ी। ईशनिन्दा कानून जनरल जिया की देन है। जिया उल हक ने ही पाकिस्तान का इस्लामीकरण किया था। १९८०, १९८२ और १९८६ में वहां पाकिस्तान दण्ड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में संशोधन कर पैगम्बर साहिब की निन्दा करने पर मृत्युदण्ड का प्रावधान किया गया। इसी बीच अफगानिस्तान और भारत से अप्रत्यक्ष युद्ध लडऩे के लिए पाकिस्तान में आतंकवाद को खुला संरक्षण दिया गया। आज पाकिस्तान का आतंकवाद समूचे विश्व के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है। मैपलक्राफ्ट नामक संगठन द्वारा तैयार सूची के अनुसार आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित देशों में पाकिस्तान सोमालिया के बाद दूसरे नंबर पर है। कट्टरवाद और आतंकवाद का काकटेल पाकिस्तान के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर रहा है। पाकिस्तान उस दिशा की ओर बढ़ चुका है जहां से वापसी के कोई आसार नहीं हैं। सलमान तासीर की हत्या ने एक बार पुन: यह तथ्य सामने रखा था कि जिया उल हक द्वारा छोड़ा गया धर्मान्धता का विष पाकिस्तान की रग-रग मेें फैल चुका है। सेना, पुलिस अद्र्धसैनिक बल, राजनीति सहित लगभग हर क्षेत्र में कट्टरपंथी तत्व भर गये हैं। उस देश के लोगों की सोच का नजारा तासीर के हत्यारे को अदालत में पेश करने के लिए ले जाते समय देखने को मिला। लोग उस पर गुलाब के फूल बरसा रहे थे, उसे चूमने के लिए उछल रहे थे। पांच सौ से अधिक इस्लामिक विद्वानों ने तासीर के हत्यारे को ‘गाजी’ का खिताब दिया। उन्होंने ऐलान कर दिया तासीर के लिए गम का किसी भी किस्म का प्रदर्शन अनुचित होगा। यह प्रमाणित हो रहा है कि ईश निन्दा कानून का उपयोग पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को प्रताडि़त करने के लिए हो रहा है। उससे बुुरी बात यह है कि अब अल्लाह के नाम पर उदार लोगों की हत्या की जा रही है। यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि पाकिस्तान में बिगड़ते हालात से सबक लेकर भी कोई कुछ कर पाएगा। वहां बाजी हाथ से निकल चुकी है।

Monday, February 28, 2011

गोधरा फैसला : बैनर्जी का झूठ उजागर

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
गोधरा कांड पर विशेष अदालत के फैसले ने उन तमाम दावों और लोगों के इस विश्वास की पुष्टि की है कि २७ फरवरी २००२ को साबरमती एक्सप्रेस के स्लीपर कोच एस-६ में साजिश के तहत बाहर से आग लगाई गई थी। विशेष अदालत ने कल गोधरा कांड मामले में अपना फैसला सुनाते हुए दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। उस दिल दहला देने वाले हमले में सांप्रदायिक उन्मादियों के हाथों ५८ कारसेवक जिंदा जला दिये गये थे। अदालत ने तथ्यों, गवाहों के बयान और सबूतों के आधार पर ३१ लोगों को दोषी पाया है। ६३ अन्य आरोपी बरी कर दिये गये। सजा का ऐलान २५ फरवरी को किया जाएगा। गोधरा कांड मामले में विशेष अदालत का फैसला उन पाखण्डी सेकुलरिस्टों के मुंह पर करारा तमाचा है जिन्होंने गोधरा जैसी घटना तक में वोट बैंक की राजनीति करने में शर्म महसूस नहीं की। तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा अनावश्यक और विशुद्ध रूप से भ्रम फैलाने के मकसद से नियुक्त यूसी बैनर्जी कमेटी के निष्कर्ष अदालत के फैसले से झूठे और गलत साबित हुए हैं। बैनर्जी कमेटी ने कहा था कि गोधरा में कारसेवकों के स्लीपर कोच में आग दुर्घटनावश अंदर से ही लगी थी। कारसेवकों की मौत दम घुटने से हुई तथा इस साजिश में कोई बाहरी व्यक्ति शामिल नहीं था जबकि गोधरा कांड पर नानावटी कमीशन कह चुका था कि ट्रेन के डिब्बे में आग बाहर बाहरी से लोगों द्वारा जानबूझकर लगाई गई थी। नानावटी कमीशन ने मौतों का कारण आग से जल जाना बताया था। नानावटी कमीशन की रिपोर्ट और विशेष अदालत के फैसले ने यू.जी. बैनर्जी के समक्ष नैतिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता को लेकर सवाल खड़ा कर दिया है। इस तथ्य की जांच होनी चाहिए कि बैनर्जी कमीशन ने किस दबाव, अनुरोध, किसकी प्रेरणा और किस प्रलोभन के चलते सत्य पर पर्दा डालकर न्याय को गुमराह करने का पाप किया? इस बात की जांच होनी चाहिए कि गोधरा कांड के सच पर पर्दा डालने की कोशिश करके तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने कौन सा लाभ लेने की कोशिश की थी। हैरानी होती है कि लोग गुजरात के दंगों को लेकर आज तक मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश करते आ रहे हैं लेकिन कितने लोगों ने गोधरा में जिंदा जला दिये गये ५८ रेल यात्रियों के परिजनों की खबर ली। गुजरात के दंगों को गोधरा कांड की प्रतिक्रिया माना जाता है । न तो गुजरात के दंगाइयों का बचाव किया जाना चाहिए और ना ही गोधरा में निहत्थे रेल यात्रियों को घेर कर जला डालने वाली उन्मादियों की भीड़ के बचाव में किसी का किसी भी तरह से आगे आना शोभा देता है। दोनों ही स्थितियां बर्बर प्रवृत्तियों के पुन: सिर उठाने का प्रमाण रही हैं। कानून पसंद सभ्य समाज में ऐसी हरकतों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। आश्चर्य होता है कि कतिपय गैर-सरकार संगठन (एनजीओ) मीडिया, का एक वर्ग, कुछेक बुद्धिजीवी और राजनीति की धूर्त सेकुलरिस्ट लॉबी ने गुजरात दंगों की बात करते समय हमेशा ही गोधरा कांड की चर्चा से कन्नी काट ली। गुजरात दंगों को अगर आप प्रशासनिक मशीनरों की असफलता और कानून के शासन का पंगु हो जाना मानते हैं तब गोधरा कांड को क्या कहेंगे? कारसेवकों को ंिजदा जला रहे उन्मादी तत्वों में कानून का खौफ तो था नहीं, उन्हें भरोसा रहा होगा कि ऐसे जघन्य कृत्य के बाद उनका बाल बांका नहीं होने दिया जाएगा। ऐसे हत्यारों को सजा उनके रोंगटे खड़े कर देने वाली सुनाई जाना चाहिए।

Sunday, February 27, 2011

उपद ठूंठ पर बैठना

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
बाबा रामदेव ने कांग्रेस की चुनौती स्वीकार कर ली है। बाबा यहीं नहीं रुके। उन्होंने पलटवार किया है। बाबा अपने ट्रस्ट की जांच कराने को तैयार हैं लेकिन चाहते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के ट्रस्टों की भी जांच हो। बाबा ने मांग की है कि नेहरू-गांधी परिवार के प्रत्येक सदस्य की कमाई और उनके खर्च का विवरण राष्ट्र को दिया जाए। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा बाबा रामदेव के विरुद्ध छेड़े गये इस वाव् युद्ध में आगे काफी कुछ देखने-सुनने को मिलने की आशा है। एक बात तय है कि दिग्विजय सिंह ने बाबा रामदेव पर निशाना साधते समय कल्पना नहीं की होगी कि इस निशानेबाजी पर देश भर में इतनी व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि बिना झोली के फकीर सा दिखने वाला योगगुरु विशुद्ध राजनेताओं की स्टाइल में बखिया उधेडऩे की मुद्रा में आ जाएगा। दिग्विजय सिंह ने गत दिवस आरोप लगाया था कि बाबा रामदेव के ट्रस्ट के पास करोड़ों की सम्पत्ति है जिसकी जांच होनी चाहिए। यह योग गुरु पर सीधा हमला था। विश्लेषकों का कहना है कि कालेधन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध बाबा रामदेव द्वारा चलाये जा रहे अभियान को कांग्रेस के कुछ लोग राजनीतिक साजिश मान रहे हैं। उन्हें लगता है कि बाबा रामदेव संन्यासी हैं और अपनी लोकप्रियता के बूते वह कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह द्वारा लगाये गये आरोपों को उसी अभियान का जवाब माना जा रहा है। प्रश्न यह है कि बाबा रामदेव द्वारा चलाये रहे अभियान के बीच उन पर लगाया गया आरोप क्या गलत समय पर उठाया गया गलत कदम नहीं है।
कहा जा रहा है कि कालेधन और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने तथा उसकी अनदेखी करने जैसे आरोपों से घिरी कांग्रेस की अगुआई वाली संप्रग सरकार के बचाव में तो बाबा रामदेव को घेरने की कोशिश नहीं की गई है? यदि उत्तर हां है तब कहना होगा कि इससे कांग्रेस को ही नुकसान होगा। बाबा रामदेव ने टेलीविजन कैमरों के सामने सीना ठोंककर कह दिया है कि उनके नाम पर एक इंच भूमि तक नहीं है। उनका कोई बैंक एकाउण्ट नहीं है।’’ योग गुरु मानते हैं कि उनके ट्रस्ट के पास १११५ करोड़ रुपये की सम्पत्ति है। उन्हें देशवासियों के आध्यात्मिक उत्थान और सभी के लिए आरोग्य सुनिश्चित करने के लिए अधिक धन की आवश्यकता है। अत: आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण और बिक्री तथा योग प्रशिक्षण की फीस और दान के रूप में मिलने वाला धन उनका ट्रस्ट लेता रहेगा।
यह तय है कि बाबा रामदेव अपने कदम वापस नहीं लेंगे। कुछ लोग सलाह देते हैं कि बाबा योग गुरु हैं, संन्यासी हैं अत: उन्हें राजनीति की दलदल में नहीं उतरना चाहिए। सुनने में ऐसी टिप्पणी कुछ हद तक उचित लगती है किन्तु विचारणीय मुद्दा यह है कि बाबा ने अभी तक राजनीति के शुद्धिकरण और पुनर्जन्म की बात की है। उन्होंने कहां कहा है कि वह स्वयं राजनीति में आ रहे हैं। वैसे भी इस देवभूमि का इतिहास गवाह है कि यहां संकट की स्थिति और मुश्किलों के दौर में ऋषि-मुनि, संत और संन्यासी राष्ट्र की रक्षा के लिए आगे आते रहे हैं। कांग्रेस द्वारा छेड़े जाने से उन्हीं विभूतियों की Ÿोणी में बाबा रामदेव के आ खड़े होने की संभावना बन गई है। अब कांग्रेस क्या करेगी? बरबस एक मुहावरा याद आ गया, ‘‘उपद ठूंठ पर बैठना।’’ यह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से मिलता-जुलता है। कांग्रेस की स्थिति कुछ ऐसी ही दिखाई दे रही है।

Friday, February 25, 2011

मुस्लिम आरक्षण: वोट बैंक का खेल

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सोमवार को अखबारों में यह खबर पूरी सुर्खियों के साथ छपी है कि केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार मुस्लिम आरक्षण पर फैसला लेने का मन बना रही है। उल्लेखनीय है कि रंगनाथ मिश्र आयोग की संसद में पेश की गई रिपोर्ट में भी अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने का सुझाव दिया गया था। अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि सरकार का इरादा समूचे अल्पसंख्यक समुदाय को इस योजना में शामिल करने का है या फिर किसी सियासी तिकड़म के द्वारा सिर्फ मुस्लिमों को आरक्षण देने की कोशिश की जाएगी। वैसे सरकार की राह उतनी आसान नहीं होगी क्योंकि प्रमुख विपक्षी दल-भारतीय जनता पार्टी धर्म के आधार पर मुसलमानों को आरक्षण देने का विरोध करती आई है। मुसलमानों को आरक्षण देने की बात सोनिया गांधी द्वारा अल्पसंख्यक आयोग को दिये गए आश्वासन से जोड़ी जा रही है। सच यह है कि यह सारा खेल असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी और केरल विधानसभा के इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर खेला जा रहा है। कांग्रेस की नजर उत्तर प्रदेश के मुस्लिम वोट बैंक पर भी लगी जो अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे जानकारियों के अनुसार मुसलमानों को आरक्षण की रेवड़ी देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, केरल, कर्नाटक और कुछ अन्य राज्यों में आरक्षण के फार्मूलों का सहारा लिया जाएगा। ऐसे राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कोटे में से मुसलमानों को आरक्षण दिया जा रहा है। मुसलमानों को आरक्षण को लेकर देश में कभी भी आम सहमति नहीं बन पाई। कतिपय राजनीतिक दल जिनमें वामपंथी गठबंधन भी शामिल हैं मुस्लिम आरक्षण की वकालत करते रहे हैं लेकिन इस समर्थन का एक मात्र उद्देश्य मुसलमानों के वोटों को हथियाना ही रहा है। दूसरी ओर भाजपा समेत बहुसंख्यक समुदाय का एक बड़ा वर्ग मानता है कि धर्म के आधार पर आरक्षण एक खतरनाक और विध्वंसकारी सोच है। उनका मानना है कि आरक्षण से मुस्लिम समुदाय का कोई विशेष भला नहीं होगा। जरूरत मुस्लिमों में शिक्षा के प्रसार, और स्व-रोजगार आदि पर जोर दिये जाने की है। जरूरत उन कारणों को तलाशने और उन्हें दूर करने की है जिनके चलते मुस्लिम अन्य समुदायों की तुलना में पिछड़ गए। इस काम में मुस्लिम धार्मिक और सामाजिक नेताओं का सहयोग मिलना चाहिए। यह कड़वा सच है कि कुछ स्वार्थी तत्व आम गरीब, अशिक्षित और पिछड़े मुसलमानों का मार्गदर्शन करने की बजाय उन्हें बरगलाते हैं। धार्मिक शिक्षाओं की अपने-अपने अंदाज में व्याख्यायें कर दी जाती हैं। अलग पहचान दिखाने के नाम पर कोशिश उन्हेंं मुख्य धारा से अलग रखने की होती है। जब तक आम मुसलमान को भ्रमित किया जाता रहेगा वह मुख्य धारा से जुड़ाव कैसे महसूस कर पाएगा? कैसे वह अन्य समुदायों के साथ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की चुनौती का जवाब दे सकेगा? पिछले दिनों दारूल उलूम देवबंद के नए चान्सलर ने तक आरक्षण की बैसाखी की बजाए मुस्लिमों की शिक्षा को जरूरी बताया था। इस देश के साथ यह दुर्भाग्य जुड़ गया है कि यहां के अकर्मण्य राजनेताओं ने जातिवाद और छद्म धर्मनिरपेक्षता को समानता के नाम पर हथियार के रूप में उपयोग शुरू कर दिया है। उनके खेल ने अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए शुरू की गई आरक्षण व्यवस्था के मूल उद्देश्य को ही तार-तार कर दिया। आज आबादी के अनुपात में सीना ठोंक कर आरक्षण मांगा जाता है। समझ में नहीं आता कि आरक्षण का यह खेल कब तक चलेगा। आरक्षण देश को कहां ले जाएगा?

Thursday, February 24, 2011

साजिशों की शिकार बी.एस.एन.एल

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
एक रिपोर्ट के अनुसार भारत संचार निगम लिमिटेड यानी बी.एस.एन.एल को हर माह ४०० करोड़ का नुकसान उठाना पड़ रहा है। यही स्थिति रही तो इस वर्ष के अंत तक बी.एस.एन.एल दिवालिया हो जाएगी। लोगों को यह जानने की उत्सुकता अवश्य होगी कि मात्र छह सालों में ऐसा क्या हो गया जो बी.एस.एन.एल इतने बड़े आर्थिक संकट की ओर बढऩे लगी है। सन् २००४ में जब पहली बार केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार आई थी उस समय बी.एस.एन.एल के नाम पर ३० हजार करोड़ की नकदी थी। २००९-१० में बी.एस.एन.एल के राजस्व में १० फीसद कमी आई। इसके अलावा इस कंपनी को ३जी स्पेक्ट्रम की फीस के तौर पर १८५०० करोड़ रूपये चुकाने पड़े हैं।

हालांकि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने वादा किया है कि इस कंपनी को डूबने नहीं दिया जाएगा लेकिन प्रश्न यह है कि सरकार की ओर से मिलने वाली किसी भी आर्थिक-बैसाखी के सहारे बी.एस.एन.एल कितने कदम और चल पाएगी? तीन लाख से अधिक कर्मचारियों वाली बी.एस.एन.एल को देश की सबसे बड़ी और पुरानी दूर संचार कंपनी कहा जा सकता है। कंपनी का नया रूप ग्रहण करने से पूर्व यह दूरसंचार विभाग की इकाई के रूप में काम कर रही थी। दूरसंचार सेवाओं में निजी कंपनियों को प्रवेश की अनुमति देकर सरकार ने निश्चित रूप से देश में एक क्रांति सी ला दी। अफसोस इस बात पर है कि जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा के इस दौर में बी.एस.एन.एल को अपनों के विश्वासघात, प्रतिस्पर्धियों के व्यावसायिक प्रपंच और सरकार की अदूरदर्शिता की मार खानी पड़ी। बी.एस.एन.एल के हाथों को नियमों की रस्सियों से बांध कर निजी कंपनियों से मुकाबला करने के लिए छोड़ दिया गया। निजी कंपनियों ने पहले उसके लैण्डलाइन आधार में सेंध मारी। इसके बाद शुरू हुआ मोबाइल सेवा में मुकाबला। प्रमोद महाजन, रामविलास पासवान, दयानिधि मारन से लेकर ए.राजा तक जितने भी दूरसंचार मंत्री हुए उनके फैसले बी.एस.एन.एल के हित में नहीं रहे। प्रमोद महाजन के कार्यकाल में बी.एस.एन.एल को मोबाइल सेवा शुरू करने की अनुमति विलम्ब से मिली। नतीजा यह हुआ कि निजी आपरेटर बाजार पर कब्जा जमाने में कामयाब हो गए। इसके बाद उपकरण के टेंडर आदि में राजनीतिक अड़ंगेबाजी देखी गई। बी.एस.एन.एल की मोबाइल सेवा शुरू होने में इतना अधिक विलम्ब करवा दिया गया कि उपभोक्ताओं में इसके प्रति आकर्षण ही खत्म हो गया। फिर निजी कंपनियों की तरह बी.एस.एन.एल पेशेवर अंदाज नहीं अपना पाई। लैण्ड लाइन, मोबाइल और ब्रॉड बैण्ड सेवाओं में उसकी योजनाएं प्रतिस्पर्धी नहीं रहीं। सत्ताधारी राजनेताओं की खुराफातों से कमजोर हुई बी.एस.एन.एल में विभीषण पैदा हो गए। कुछ माह पूर्व भोपाल में एक उदाहरण सामने आया। बताया जाता है कि एक व्यक्ति ने ब्रॉड बैण्ड सेवा के लिए बी.एस.एन.एल द्वारा लगाई गई केनापी में जानकारी चाही। वह वहां से वापस अपने घर नहीं पहुंचा और एक निजी कंपनी के लोग आ धमके। वे काफी कम दर पर ब्रॉड बैंड सेवा उपलब्ध कराने का वादा कर रहे थे। ऐसे आरोप सुनने में आते रहे हैं कि कुछ बड़े अधिकारी भारी वेतन के लालच में बी.एस.एन.एल छोडक़र निजी कंपनियों में चले गए। उन्होंने भी बी.एस.एन.एल के हितों पर गहरी चोट की है।

हाल के वर्षों में बी.एस.एन.एल के विनिवेश की चर्चा चली थी। यह आरोप लगाने में संकोच नहीं हो रहा कि साजिश के तहत बी.एस.एन.एल को बीमार बनाया जा रहा है ताकि इसके विनिवेश में अधिक विरोध का सामना न करना पड़ा। २जी स्पेक्ट्रम और एस बैंड आवंटन में हुए भ्रष्टाचार के पर्दाफाश के बाद बी.एस.एन.एल के विरूद्ध चौतरफा साजिशों की आशंका से कैसे इंकार किया जा सकता है। ऐसा लगता, पिछले डेढ़ दशक में बी.एस.एन.एल को जिस तरह नुकसान पहुंचाया गया उसमें हुए भ्रष्टाचार की राशि लाखों करोड़ों रूपयों में होगी।

Wednesday, February 23, 2011

वन्य जीवों का दुश्मन वन मंत्री

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
कल्पना के बाहर की बात है । देश के एक राज्य में ऐसे वन मंत्री महोदय हैं जिनका कहना है कि जंगलों में हाथी, गेंडे, तेंदुये, हिरण और जंगली भैंसों की बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाया जाए। उनका सुझाव कम विचित्र नहीं है। मंत्री जी फरमाते हैं, ‘‘इन अतिरिक्त पशुओं को उन शौकीन लोगों के लिए नीलाम कर देना चाहिए जो इन्हें पालना चाहते हों या फिर इन्हें विदेशी चिडिय़ाघरों में भेज दिया जाए। ’’ वन मंत्री महोदय का मानना है कि उपर्युक्त दो काम नहीं किये जा सकते हैं तो इन वन्य जीवों की नसबंदी करके छोड़ दिया जाए ताकि उनकी आबादी न बढ़े। यह दो कौंड़ी का सुझाव पश्चिम बंगाल के वन मंत्री अनंत रे ने दिया है। उनकी विकृत सोच पर राज्य के वन विभाग के चापलूस अधिकारी मुग्ध हैं। तैयारी केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को पत्र भेजने की है ताकि इस मूर्खतापूर्ण पहल को केंद्र की मंजूरी मिल सके। हैरानी इस बात को लेकर है कि अनंत रे जैसे अज्ञानी और उलट दिमाग व्यक्ति को पश्चिम बंगाल के वन विभाग की जिम्मेदारी किसके सुझाव पर सौंपी गई? अनंत रे ने प्रेस के समक्ष अक्ल का नमूना पेश करते हुए साबित कर दिया है कि उन्हें वन और वन्य जीवों के महत्व का रत्तीभर ज्ञान नहीं है। वह वन्य जीव संरक्षण कानून तक के बारे में नहीं जानते। उन्हें तेजी से घट रही वन्य जीवों की संख्या, उसको लेकर दुनिया भर में व्यक्त की जा रही चिंता और वन्य जीवों की रक्षा के लिए किये जा रहे विश्वव्यापी प्रयासों की जानकारी नहीं है। वन मंत्री का यह तर्क कौन स्वीकार कर पाएगा कि वन्य जीवों की आबादी बढऩे से वे कई बार जंगलों से लगी इंसानी बस्तियों और गांवों में आ जाते हैं तथा लोगों को घायल कर देते हैं। रे को याद दिलाना जरुरी है कि हाल ही में हिमाचल प्रदेश में किसानों के संगठन के दबाव में सरकार ने बंदरों को गोली मारने की छूट दे दी थी। इस आदेश की सर्वत्र आलोचना हुई। राज्य सरकार को रक्षात्मक मुद्रा में आना पड़ा। लेकिन अनंत रे अपने आप में एक मात्र उदाहरण नहीं हैं। ऐसे निर्मोही, दुष्ट और क्रूर सोच वाले लोग आये दिन देखने-सुनने को मिलते हैं। पिछले दो-ढाई दशक में सैकड़ों तेंदुओं को लोगों ने घेर कर इसलिए मार डाला क्योंकि उन्होंने इंसानी बस्तियों में घुसने की गलती की थी। कितने लोग इस विषय पर विचार करते हैं कि हाथी, गेंडे और तेंदुये जैसे वन्य जीव अपने प्राकृतिक आवास से बाहर क्यों आ जाते हैं? वन्य जीव विशेषज्ञों का मत है कि बढ़ती मनुष्य आबादी के कारण शहर फैल रहे हैं। खेतों पर कांक्रीटी जंगल खड़े होने लगे। खेती के लिए जमीन और लकड़ी की लालच के चलते सुनियोजित ढंग से वनों का सफाया किया जा रहा। वन सिमट रहे हैं। जहां घने वन थे वहां पेड़ कम हो गए। जब छाया, पानी और भोजन नहीं मिलेगा तो भूखे-प्यासे वन्य जीव क्या करेंगे? वे बचे-खुचे जंगलों से बाहर निकलने का दुस्साहस करते हैं। वहां मौत उनके इंतजार में खड़ी मिलती है। पीट-पीट कर मार डाला जाता है। यह तथ्य कोई स्वीकार नहीं करता कि जब पेड़-पौधे और अन्य जीव ही इस धरती पर नहीं होंगे, ऐसी स्थिति में मनुष्य जीवन कितने दिन चलेगा? पश्चिम बंगाल के वन मंत्री अनंत रे पर वनों और वन्य जीवों की रक्षा का जिम्मेदारी है। यह विचित्र व्यक्ति वन्य जीवों की नसबंदी का सुझाव दे रहा है। ऐसे व्यक्ति को वन मंत्री पद पर रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। रे को तत्काल चलता किया जाना चाहिए।

Saturday, February 19, 2011

एक धोती, एक कुर्ता, एक पैजामा, एक रूमाल....!

संदर्भ : विदेश मंत्री की लापरवाही

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
वाह, यह भी खूब रही। एक तो अव्वल दर्जे की लापरवाही उस पर तुर्रा देखिये। गलती मानने की बजाय विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा कह रहे हैं कि ‘‘ संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में उनके सम्बोधन के समय हुई गड़बड़ी कोई बड़ी बात नहीं है।’’ कृष्णा का तर्क है कि ‘‘ सुरक्षा परिषद की उस बैठक के दौरान उनके सामने बहुत से कागज पड़े थे। इसलिए गलती से गलत सम्बोधन उनके हाथ में आ गया।’’ पिछले शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में कृष्णा लगभग तीन मिनट तक पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण पढ़ते रहे। वह शायद रुकते भी नहीं अगर समय रहते उन्हें इस गलती का अहसास संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के राजदूत हरदीप सिंह पुरी ने नहीं करवाया होता। नि:संदेह गलती किसी भी इंसान से हो सकती है। लेकिन यह मामला लापरवाही का था। उस पर कृष्णा की ढिठाई देखिये गलती मानने और खेद व्यक्त करने की बजाय उस चूक को साधारण बात निरुपित कर रहे हैं। यह क्यों न कहें कि जो हुआ उसकी वजह विषय के प्रति कृष्णा का अ-गंभीर रुख था या यह आरोप लगायें कि उस महत्वपूर्ण बैठक के समय वह एब्सेंट माइंड थे। इस घटना से बरसों पहले, जब रेडियो सीलोन बेहद लोकप्रिय था, रेडियो पर प्रसारित एक कार्यक्रम में मशहूर कलाकार आईएस जौहर का सुनाया गया चुटकुला याद आ गया।
जौहर सुना रहे थे। एक कवि मंच पर आये, कुर्ते की जेब से एक डायरी निकाली और कविता पाठ करने लगे- ‘‘ एक धोती, एक कुर्ता, एक पैजामा, एक रूमाल...! ’’ कवि महोदय उक्त पंक्ति को चार-पांच बार दोहरा गये। दर्शकों में से किसी ने आवाज लगाई, ‘‘ आगे तो बोलिये!’’ कवि एक क्षण के लिए रुके फिर हाथ जोडक़र क्षमा मांगते हुए जवाब दिया, ‘‘ माफ कीजिए, पत्नी ने धोखे से कुर्ते की जेब में मेरी कविताओं की डायरी के स्थान पर धोबी के हिसाब की डायरी रख दी।’’ जौहर द्वारा सुनाया गया वह चुटकुला कृष्णा जैसे लोगों को देखते हुए आज भी सामयिक लगता है। यह घटना उन सभी लोगों के लिए एक सबक होना चाहिए जो लिखे-लिखाये भाषणों को किसी मंच पर अथवा फोरम में पढऩे से पहले उन पर एक नजर डालना भी जरूरी नहीं समझते। निश्चित रूप से कुछ विशेष आयोजनों में लिखित भाषण ही पढऩे का चलन है। बड़े-बड़े दिग्गज वक्ता भी तथ्यों के गलत प्रस्तुतीकरण और लय टूटने का जोखिम उठाने की बजाय लिखित भाषण पढऩे पर ही जोर देते हैं। कुछ लोग सिर्फ लिखित भाषण ही पढ़ते हैं। दरअसल, भाषण देना और भाषण पढऩा दोनों अलग-अलग कलायें हैं। कुछ लोग लिखे हुए भाषण को इतने बेहतरीन अंदाज में पढ़ते हैं कि श्रोता मंत्रमुग्ध से नजर आते हैं। कुछ की आवाज लिखे हुए भाषण को पढ़ते-पढ़ते कांपने लगती, जुबान लटपटा जाती है। जो लोग भाषण देते हैं, अर्थात बिना लिखित भाषण के बोलते हैं उनके शब्द उनके दिल की आवाज माने जाते। उसमें अध्ययन, अनुभव, बौद्धिक चातुर्य और बात संभालने की समझ होती है। जुबान जरा सी फिसली तो संभलने में देर नहीं लगती। लेकिन विशेष अवसर पर सरस्वती की कृपापात्र ऐसे दिग्गजों को तक लिखित भाषण पढ़ते देखा गया है। भाषण देने वालों की एक तीसरी Ÿोणी भी देखी जाने लगी है। इसमें मूल रूप से कुछ राजनेताओं और कुछेक श्रमिक नेताओं को रखा जा सकता है। ‘‘ जुबानी-अर्श’’ से पीडि़त इस तीसरी Ÿोणी के लोगों को सिर्फ जुबान फटकारना आता है। इसके अच्छे-बुरे प्रभावों से ये बे-परवाह होते हैं।
हमारे विदेश मंत्री से हुई चूक पर विचार करने पर समझ में यह आ रहा है कि अपने लिखित भाषण को पढऩे से पहले उस पर एक नजर डालने की जहमत तक उन्होंने नहीं उठाई थी। कृष्णा का यह तर्क अपना सिर धुन लेने के लिए काफी है कि टेबल में बहुत से कागज पड़े थे इसलिए गलती से वह पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण उठा बैठे। सवाल यह है कि ऐसी गलती या लापरवाही हुई कैसे? सुरक्षा परिषद जैसे महत्वपूर्ण मंचों पर ऐसी चूक से समूचे राष्ट्र के सम्मान को ठेस पहुंच सकती है। कृष्णा के लिए घटना बड़ी बात नहीं होगी परंतु उन्हें याद रखना चाहिए कि सुरक्षा परिषद में वह भारत के विदेश मंत्री और सवा अरब भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में मौजूद थे। ऐसी ‘‘ छोटी-छोटी बातें’’ हमारे विषय में कैसी छवि दुनिया में फैलाती होंगी? यही कि भारतीय इतने लापरवाह होते हैं? भविष्य में ऐसी गलतियों की पुनरावृत्ति की आशंका की स्थिति में कृष्णा से यह अपेक्षा की जाती है कि वह कागजों का अंबार लगाने की बजाय काम के कागज ही साथ में रखा करें।
वैसे, भारतीय राजनीति में कृष्णा एक मात्र उदाहरण नहीं हैं। लैंस लगाकर देखें और कई कृष्णा निकल आएंगे। अब वह जमाना कहां रहा जब देश में एक से बढक़र एक नेता थे। वे बोलते थे तो लगता था मस्तिष्क में गणपति और कंठ में सरस्वती विराजमान हैं। घण्टों तक धाराप्रवाह भाषण देने की क्षमता थी उन महान नेताओं में। गहरा अध्ययन, अनुभव और पक्का होमवर्क साफ समझ में आता था। रैली और सभाओं की छोडिय़े, संसद और विधानसभाओं तक में उन महान नेताओं का वाकचातुर्य देख लोग दांतों तले अंगुली दबा लेते थे। विधायिका में बहस का स्तर उच्च था। वहां कही जाने वाली बातों में गहराई थी। आज स्थिति उलट है। नेताओं के पास न तो पढऩे-समझने के लिए समय है और न उनमें इसके प्रति रुचि है। उस पर ज्ञानी और समझदार होने का भ्रम अलग एक मुसीबत है। बिना तैयारी के जुबान फटकार दी जाती है। सदन में चर्चा का स्तर गिरने की एक प्रमुख वजह यह भी है। कृष्णा से हुई चूक बिना तैयारी के युद्ध में कूद पढऩे जैसी स्थिति दर्शाती है। यह एक सबक है। घर में कुछ भी कहलें परंतु विश्व मंच पर यह सब नहीं चल सकता। कृष्णा का उदाहरण एक सबक है जो सियासी रंगरुटों को गहन प्रशिक्षण की जरूरत बता रहा है। ताकि, भविष्य में गलती से गलत कागज पकड़ में आ जाए तो भी उनका दिमाग स्थिति को संभालने में सक्षम हो।

Friday, February 18, 2011

राहत फतेह अली और गुलफाम हसन

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
विदेशी मुद्रा की तस्करी के आरोप में भारत में गिरफ्तार किये गये पाकिस्तानी गजल गायक राहत फतेह अली खान को पाकिस्तान की ओर से आए दबाव के चलते रिहा कर दिया गया। इस मामले से अनेक सवाल अवश्य उठ खड़े हुए। पहली बात यह है कि क्या इस देश में आम लोगों और खास लोगों के लिए अलग-अलग प्रावधान हैं। आशंका यह भी निराधार नहीं है कि सब चलता है की अपनी मानसिकता के चलते भारत सरकार इस पाकिस्तानी कलाकार को धीरे से चलता कर दे। खबर है कि राजस्व गुप्तचर निदेशालय ने राहत फतेह अली खान और उनके दो साथियों के पासपोर्ट जब्त कर लिये हैं। उन्हें आगे की पूछताछ के लिए १७ फरवरी को पुन: बुलाया गया है। इस बीच उस इवेंट मैनेजमेंट कंपनी की जांच की जा रही है जिसके न्यौते पर राहत यहां आए थे। राहत फतेह अली खान और उनके ट्रुप के सदस्यों को एक लाख २४ हजार डालर जैसी काफी बड़ी लेकिन अघोषित रकम ले जाते हुए रविवार की शाम राजस्व गुप्तचर निदेशालय ने नई दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पकड़ा था। यह कार्रवाई पुख्ता सूचना के आधार पर की गई थी। नियम यह है कि विदेशी मूल का कोई नागरिक ५००० अमेरिकी डालर से अधिक की नगद राशि और ५००० डालर किसी अन्य माध्यम के तौर पर नहीं रख सकता है। यदि इससे अधिक राशि है तब उसकी सूचना कस्टम डिपार्टमेंट को देनी चाहिए। साफ बात है कि राहत फतेह अली खान ने इस देश के कानून का उल्लंघन किया है।
राहत फतेह अली खान की गिरफ्तारी पर पाकिस्तान सरकार की सक्रियता स्वाभाविक थी। लेकिन इस गिरफ्तारी के विरोध में पाकिस्तानियों का सडक़ों पर उतर आना उनकी कुण्ठा और भारत के प्रति अविश्वास का प्रमाण है। राहत के बचाव में पाकिस्तानी अभिनेत्री वीना मलिक, रेशमा और मीरा के बयान दुनियादारी के प्रति उनकी ना समझी का प्रमाण है। यह कहना निरी मूर्खता ही है कि राहत ने जान बूझकर गलत काम नहीं किया है। ऐसे बचाव के बयानों से क्या अर्थ निकालें? दुनिया भर में कार्यक्रम और सैकड़ों बार विदेश यात्राएं कर चुके राहत इतना भी नहीं जानते कि विदेशियों के लिए किस देश के क्या कुछ खास नियम-कानून हैं। भारतीय फिल्म इश्किया मैं ‘‘दिल तो बच्चा है जी’’ गाकर फिल्म फेयर अवार्ड जीतने वाले इस गजल गायक को बच्चा मान कर माफ नहीं किया जा सकता।
राहत फतेह अली खान को विदेशी मुद्रा ले जाते पकड़े जाने पर काफी तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। किसी ने कहा है, राहत की गिरफ्तारी से १९९९ में आई फिल्म सरफरोश की याद आ गई। फिल्म में पाकिस्तानी गजल गायक गुलफाम हसन की भूमिका नसीरुद्दीन शाह ने अदा की है। फिल्म में गुलफाम हसन भारतीयों के बीच अपनी लोकप्रियता का दुरुपयोग करते हुए यहां आतंकवाद फैलाने का काम करता था। वह बाद में पकड़ा और मारा जाता है। हम नहीं कह रहे हैं कि राहत फतेह अली खान और सरफरोश के पात्र गुलफाम हसन के बीच कोई समानता है। लेकिन एक बात तो है गुलफाम हसन पाकिस्तानी था वह यहां के कानून का उल्लंघन कर रहा था। राहत भी पाकिस्तानी है उन पर भी कानून का उल्लंघन करने का आरोप लगा है। राहत के मामले में लीपा-पोती नहीं होना चाहिए। उन्होंने कानून तोड़ा है और उन पर कड़ी कार्रवाई जरूरी है। अभी कुछ माह पूर्व किसी अखबार में गजल गायक जगजीत सिंह और पाश्र्वगायक अभिजीत के बयान पढ़े थे। उन्होंने भारत में मौजूद पाकिस्तानी कलाकारों के हमदर्दों से सवाल किया था कि इस धरती में उन्हें कलाकार नहीं मिलते जो पाकिस्तानी कलाकारों के पीछे भागते हैं? बात सही है ये पाकिस्तानी कलाकार यहां आते, खूब कमाते और धन बटोरकर चलते बनते। दौलत और शोहरत यहां कमाते हैं और मौका आने पर जहर उगलने से तक पीछे नहीं रहते। मगर करें तो करें क्या? अपना सिक्का ही खोटा है। यह तय मानें की भारत सरकार राहत को रोके नहीं रख पाएगी। हां, उन लोगों को पहचान कर कानूनी कार्यवाही अवश्य की जाए तो देश का धन उलीच कर पाकिस्तानियों की जेब में डालते हैं।

आस्तीन की नागिन

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पार्टी-पीडीपी ने विजन आन कश्मीर नाम से एक पॉवर पाइंट पे्रेजेंटेशन तैयार किया है। खास बात यह है कि इस प्रेजेंटेशन में कराकोरम और अक्साई चिन को चीन का हिस्सा बताया गया है। यह एक तथ्य है कि भारत इस क्षेत्र को हमेशा से अपना मानता है। यही नहीं पीडीपी श्रीनगर को चीन के यारकंड से जोडऩा चाहती है। पीडीपी का यह कारनामा स्वीकार नहीं किया जा सकता। महबूबा मुफ्ती और पीडीपी सवालों के घेरे में हैं। पीडीपी की इस हरकत पर केंन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने गंभीरता से लेते हुए चेतावनी दे दी है कि पीडीपी ने नक्शे को नहीं सुधारा तो कार्रवाई करेंगे। गृहमंत्री की नाराजगी समझ मे आने वाली बात है परंतु पीडीपी के विरूद्ध तत्काल कोई कार्रवाई करने में केंद्र की झिझक उजागर हो रही है। यह तय मानें की पीडीपी ने यह हरकत जानबूझकर और किसी दूरगामी रणनीति को ध्यान में रखकर की है। इससे दो दिन पहले ही पीडीपी ने कश्मीर की तुलना मिस्र से की थी। यह कहने में झिझक नही हो रही कि महबूबा मुफ्ती सियासत के बुखार के चलते अपनी ज्ञान ज्योति खो बैठी हैं। नक्शे वाले मसले पर उनका मूर्खतापूर्ण तर्क यह है कि ‘‘नक्शे को गलत संदर्भ में लिया जा रहा है, यह कश्मीरियों की सहूलियत के लिए इस्तेमाल किया गया है।’’ कैसी सहूलियत और क्या संदर्भ? महबूबा मुफ्ती की अब तक की राजनीतिक यात्रा पर नजर डालें। एक बात साफ तौर पर समझ में आती है कि उनका रवैया टकराव वाला रहा है। वह विवाद को गरमाने और उसकी आंच में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने मे माहिर हो गई हैं। पिछले पांच सात सालों पर गौर करें महबूबा मुफ्ती और उनके अब्बा हुजूर के अधिकांश फैसलों और हरकतों से पाकिस्तान या पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों और कश्मीर अलगाववादियों को ही लाभ मिला होगा।
दो टूक शब्दों में कह सकते हैं कि महबूबा मुफ्ती और उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद की निष्ठा हमेशा संदिग्ध रही है। बाप बेटी की इस जोड़ी ने कितनी बार कश्मीर घाटी में अलगाववादियों के द्वारा पाकिस्तानी झंडा फहराये जाने का विरोध किया? अमरनाथ बोर्ड भूमि आवंटन के खिलाफ अलगाववादियों द्वारा किये गए उपद्रवों में महबूबा की भूमिका आग में घी जैसी रही। सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाने वालों के खिलाफ महबूबा ने कभी मुंह नहीं खोला। महबूबा ने हमेशा भारत के विरूद्ध नागिन की तरह जहर उगला है। वह जवाब दें कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर मे कश्मीरियों के मानव अधिकारों के हनन पर क्यों चुप रहती हैं ? विडम्बना यह है कि महबूबा मुफ्ती और मुफ्ती मोहम्मद सईद की फितरत से वाकिफ होते हुए भी इस देश का राजनीतिक नेतृत्व इन्हें मुंह लगाये रखता रहा। अब तो यह संदेह होने लगा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई वाली सरकार में मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृहमंत्री बनाया जाना किसी अंतरराष्ट्र्रीय साजिश का हिस्सा था। सईद ने १९९० में अपने बेटी रूबिया सईद के अपहरण के नाटक में अपहर्ताओं के सामने जिस तरह घुटने टेके उसी के बाद कश्मीर घाटी में आतंकवाद बढ़ा। गृहमंत्री रहते सईद यदि अपहर्ताओं को छोडऩे से इंकार कर देते तब उनकी छवि एक कायर और अक्षम गृहमंत्री के रूप बनने से बच जाती। वैसे महबूबा मुफ्ती के व्यवहार को देखते हुए यह आशंका निराधार नही कहीं जा सकती कि रूबिया का अपहरण सईद की जानकारी में ही और रूबिया की सहमति से किया गया होगा।
बहरहाल, यहां बरबस ही आस्तीन के सांप वाली कहावत याद आ गई। यह पक्की बात है कि आस्तीन में गोल-मटोल सांप नहीं रह सकता। यदि वह किसी तरह आस्तीन में घुस जाये तब उसे डसने में अधिक जुगत नही भिड़ानी पड़ेगी। ऐसा लगता है कि महबूबा मुफ्ती सईद जैसे लोगों को ध्यान में रख कर ही आस्तीन का सांप जैसी कहावत गढ़ी गई होगी। ऐसे लोग सांप ही हैं। आस्तीन में रहें या स्वतंत्र विचरण करें दोनों स्थिति में खतरनाक हैं। पिछले दिनों एक अनुसंधान रिपोर्ट पढ़ी। बताया गया था पहले सांपों के पैर होते थे। पता नहीं चल रहा कि विकास के क्रम में पैर कैसे गायब हो गये? वैज्ञानिकों का कहना है कि पैरों वाले सांप आज भी देख जाते हैं। हालांकि पैरों की मौजूदगी उनकी शारीरिक संरचना के समक्ष नगण्य सी होती है। ऐसे सांप आस्ट्रेलिया में दिखाई देते है। हम कहते हैं पीडीपी वालों ने अपनी देशद्रोही हरकत से साबित कर दिया कि वे भी पैरों वाले सांप की प्रजाति से ही हैं।

Friday, February 11, 2011

ड्रामेबाज बिनायक सेन

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
अब डॉ. बिनायक सेन और उनके हमदर्दों को क्या कहना है? छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सेन की जमानत अर्जी नामंजूर कर दी। अदालत को ऐसा कोई वैध कारण नहीं दिखा जिसके आधार पर सेन को रियायत दी जाए। हाईकोर्ट की यह व्यवस्था निचली अदालत में चली कार्रवाई और सेन को सुनाई गई सजा की पुष्टि के रूप में ली जा सकती है। हाईकोर्ट की व्यवस्था को न्यायपालिका की विषयों पर दृढ़ रुख की पुष्टि भी मानी जाए। एक बात साफ हो गई है कि सेन को निचली अदालत द्वारा सुनाई गई उम्रकैद की सजा के विरुद्ध तथाकथित मानवाधिकारवादी, बुद्धिजीवियों और इसी कैटेगरी के अन्य प्राणियों द्वारा मचाई गई चिल्ल-पौं का असर न्यायपालिका पर नहीं पड़ा।

डॉ. बिनायक सेन पर माओवादियों की मदद करने का आरोप था। यह देशद्रोह का मामला था। तथ्य, सबूत उनके विरुद्ध थे। अत: निचली अदालत ने उन्हें दोषी करार देते हुए सजा सुना दी। लेकिन अदालत के फैसले के बाद कुछ कानूनविद्, कुछ लेखक, कुछ डॉक्टर, कुछ समाजसेवी और कुछ अन्य लोग जिस तरह विरोध में उठ खड़े हुए वह आश्चर्यजनक रहा। पब्लिसिटी के उद्देश्य से कुछेक राजनेता तक बिनायक को चरित्र प्रमाण पत्र देने से नहीं चूके। दुनिया भर के ४० नोबल पुरस्कार विजेताओं का बयान इस राष्ट्रद्रोही के पक्ष में आ गया। लंदन से एमेनेस्टी इंटरनेशनल नामक मानव अधिकारों की ठेकेदार फर्म बिनायक सेन के समर्थन में कूद पड़ी। कंधे पर झोला लटकाये और आमतौर पर कुर्ता-पैजामा धारण करने वाले बिनायक सेन ने तक आशा नहीं की होगी कि उसके समर्थन में दुनिया भर में इतने गाल बज सकते हैं। बिनायक सेन की सजा के विरोध में वक्तव्यवीरों की सक्रियता हैरानी वाली रही है। इस लोकतांत्रिक देश में जहां कानून का शासन है, आप किस मुंह से निचली अदालत के फैसले के विरुद्ध जुबान दौड़ा रहे हैं? फिर वया दोषी साबित हो चुके व्यक्ति को इसलिए आजाद कर दिया जाए वयोंकि आप मांग कर रहे हैं? ऐसे माहौल में कानून के शासन का मतलब क्या रह जाएगा? बात तिलमिला देने वाली लेकिन सच है। गिनती लगा लें बिनायक सेन के समर्थन में सवा अरब आबादी वाले इस देश में कितने लोग सामने आए? संभवत: आंकड़ा चार अंक को तक पार नहीं कर पाएगा।

माना कि बिनायक एक बढिय़ा बाल रोग विशेषज्ञ हैं, उसने छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों में गरीबों की बहुत सेवा की है। फिर भी पेशे की योग्यता और गरीबों की सेवा के आधार पर उसे राष्ट्रद्रोह पर उतारू माओवादी नक्सलियों के साथ साठगांठ करने का अधिकार नहीं मिल जाता है। बिनायक सेन एक तरफ का माओवादी ही है। फर्क इतना है कि वह जंगलों में सक्रिय हथियारबंद तत्वों के संदेशवाहक और सम्पर्क अधिकारी जैसी भूमिका अदा करता रहा है। इसी प्रजाति के लोग भुवनेश्वर, हैदराबाद, वारंगल, कोलकाता, नई दिल्ली, रांची और गढ़चिरौली आदि में मिल सकते हैं। जंगलों में मौजूद माओवादी मरने-मारने पर उतारू होते हैं। शहरों में बुद्धिजीवी और मानव अधिकार समर्थक होने का बिल्ला लगाये घूमने वाले न मरने पर उतारू रहते न मारने पर। हां, उन्हें मरने-मारने का खेल देखने में आनंद आता है। बिनायक सेन अव्वल दर्जे का कायर और धूर्त है। उसमें दम है तो सीना ठोंककर कहना चाहिए कि हां वह माओवादियों का साथ देता रहा है। कायरों जैसी चुप्पी, स्वयं के बेकसूर बताने की ड्रामेबाजी और अदालती फैसले को निराशाजनक बताकर बिनायक कानून को मूर्ख नहीं बना सकता।

सारे कानून सिर्फ हिन्दुओं के लिए ?

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सुप्रीम कोर्ट ने अल्पसंख्यकों के पर्सनल लॉ में बदलाव न करने को लेकर एक बार फिर केंद्र सरकार की खिंचाई की है। अदालत ने यह सही सवाल उठाया है कि आखिर क्यों सरकार सिर्फ हिन्दुओं के कानून ही बदलती है? जस्टिस दलबीर भंडारी और जस्टिस ए.के. गांगुली ने राष्ट्रीय महिला आयोग की याचिका पर सुनवाई के दौरान बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘‘पर्सनल लॉ में सुधार की कोशिशें हिन्दू समुदाय से आगे नहीं बढ़तीं। ऐसा सुधार दूसरे धार्मिक समुदायों से जुड़े कानूनों में नहीं हो रहा।’’ सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से एक बार पुन: देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जरूरत महसूस हो रही है। इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले दो दशक से अधिक समय में अनेक बार जोर दिया है। खास बात यह है कि १९८५ में शाहबानो मामले में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस वाय.वी. चंद्रचूढ़ तक ने राष्ट्रीय एकीकरण के लिए समान नागरिक संहिता को जरूरी बताया था। जस्टिस कुलदीप सिंह ने साफ शब्दों में कहा था, ‘‘संविधान के अनुच्छेद-४४ को कोल्ड स्टोरेज से बाहर निकाला जाना चाहिए।’’ इसी अनुच्छेद में जोर देकर कहा गया है कि धर्म, जाति और जनजाति से हटकर सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। इस तर्क से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि सभ्य समाज में धार्मिक और पर्सनल लॉ के बीच किसी प्रकार का संबंध नहीं हो सकता है। अत: एक राष्ट्र में रहने वाले सभी लोगों, चाहे वे किसी भी धार्मिक समुदाय से संबंध रखते हों, एक ही या यह कहें कि समान कानून लागू किया जाना चाहिए।
हमारे यहां अधिकांश परिवार कानून का निर्धारण धर्म के द्वारा किया जाता है। हिन्दू, सिख, जैन और बौद्धों को हिन्दू कानून के तहत रखा गया है। मुसलमानों और ईसाइयों के अपने कानून हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि एक ही देश में रहने वालों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू हैं। ऐसी स्थिति में सभी के साथ समान व्यवहार, उनके बीच भावनात्मक लगाव और राष्ट्रीय एकता की कल्पना किस हद तक की जा सकती है? इस देश में समान नागरिक संहिता को लेकर बहस आजादी के पूर्व से चली आ रही है। १९४९ में संविधान में अनुच्छेद-४४ के प्रावधानों का उद्देश्य भी एकरूपता लाना रहा है, लेकिन स्वतंत्रता के बाद से ही शुरू हो गई तुष्टिकरण की कांग्रेसी राजनीति इस सकारात्मक सुधार की राह में सबसे बड़ा अड़ंगा बन गई। कालान्तर में वामदल धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाकर अप्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम तुष्टिकरण की राह पर चल पड़े। शाहबानो तलाक मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए राजीव गांधी की अगुआई वाले कांग्रेसी सरकार ने कानून में संशोधन कर तुष्टिकरण का निकृष्टतम उदाहरण पेश किया।
न्यायपालिका की चिंता अपनी जगह वाजिब है। समस्या वोट बैंक की गंदी राजनीति के कारण जटिल हो रही स्थिति की है। पिछले दो दशकों में राजनीति में ऊग आई स्वयंभू सेकुलरिस्टों की खरपतवार एक नई मुसीबत है। यह धारणा बनाने की कोशिशें देखी और सुनी गईं कि समान नागरिक संहिता अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के निजी और धार्मिक कानूनों में हस्तक्षेप जैसी बात है। देश की सियासत में सड़ांध मारती नकारात्मक और स्वार्थ पूर्ण सोच के चलते जो नुकसान हो रहा है उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। विद्वान न्यायाधीश-जस्टिस भंडारी और जस्टिस गांगुली का यह सवाल उचित और गंभीरतापूर्वक विचार करने योग्य है कि ‘‘ पर्सनल लॉ में सुधार की कोशिश हिंदू समुदाय से आगे क्यों नहीं बढ़ती?’’ विचार करें यही बात अन्य क्षेत्रों में तक देखी जाती है। बात कड़वी है किन्तु परिवार नियोजन अभियान को ले लें। आंकड़े स्वयं ही गवाह हैं ऐसा लगता है कि मानो इस कार्यक्रम की सफलता की जिम्मेदारी सिर्फ हिन्दुओं पर थोप दी गई है। हर क्षेत्र में इतना भेदभाव राष्ट्र को गंभीर स्थिति की ओर निरंतर धकेल रहा है।

Wednesday, February 9, 2011

सियासी चोट्टों पर चोट


---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
तर्क में दम है और बात काफी हद तक सही भी है। सब चलता है कि मानसिकता और नैतिकता मूल्यों की अनदेखी पूरी बेशर्मी से की जा रही हो, ऐसी स्थिति में सिर्फ आरोप के कारण किस मुंह से पी.जे. थॉमस से यह आशा करते हैं कि आप हाय तौबा मचायें और वह दबाव में आकर मुख्य सतर्कता आयुक्त पद से इस्तीफा दे देंगे। थॉमस ने स्वयं पर लगाये गये आरोप, मुख्य सतर्कता आयुक्त पद पर अपनी नियुक्ति और अपने विरुद्ध कही जा रही बातों के जवाब में जो सवाल उठाया है उस पर सरकार, राजनीतिक दलों, न्यायपालिका, मीडिया और आम आदमी को अवश्य विचार करना चाहिए। थॉमस की बात में दम है। उनका कहना है कि यदि विभिन्न अपराधों में संलिप्त व्यक्ति विधायक, संसद सदस्य और मंत्री बन सकता है तो उनके खिलाफ आरोपों को लेकर इतनी हायतौबा क्यों?

थॉमस के वकील के के.वेणुगोपाल द्वारा सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश एस.एच.कपाडिय़ा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ के समक्ष दी गई दलील का कोई जवाब मीडिया के महारथियों समेत किसी के पास है? वेणुगोपाल का कहना है कि ‘‘१५३ संसद सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं। इनमें से ७४ सांसदों के विरुद्ध गंभीर आपराधिक आरोप हैं। इसके बावजूद वे महत्वपूर्ण पदों पर रह सकते हैं तब उनके मुवक्किल (पीजे थॉमस) क्यों नहीं? ‘‘वेणु गोपाल के तर्क ठोस हैं। इसे ही कहते हैं सही समय पर सही जगह चोट करना। थॉमस के विरुद्ध आरोप अपनी जगह हैं। उनकी सच्चाई का फैसला अदालत करेगी। लेकिन उपर्युक्त टिप्पणी हमें अभी भी चेत जाने को आगाह कर रही है। सरकार को विचार करना होगा कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों, गंभीर अपराधों के आरोपियों और भ्रष्ट तत्वों को विधायिका से कैसे दूर रखा जा सकता है? राजनीतिक दलों का यह तर्क घिसा-पिटा, कालातीत और बेदम हो चला है कि जब तक किसी को अदालत दोषी करार नहीं दे देती वे उसे अपराधी कैसे मान सकते हैं। इसी तर्क की दम पर लालू प्रसाद यादव जैसे लोग चारा मामले में आरोपों के बावजूद सत्ता सुख भोगते रहे। इसी तर्क के कवच से शहाबुद्दीन जैसा अपराधी लोकतंत्र के सबसे पवित्र स्थान-संसद का सदस्य बन बैठा था। इसी तर्क को ढाल के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि अपने चहेते पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा के बचाव में कर रहे हैं।

मुद्दा यह है कि आरोप लगने पर सरकारी कर्मचारी या अधिकारी सस्पैंड किया जा सकता है अत: वैसी ही व्यवस्था राजनीति के रथियों के लिए क्यों नहीं की जा सकती है? बात सिर्फ यह हो कि दो साल से अधिक सजा वाले कानूनी प्रावधान के तहत मुकदमा दर्ज होते ही व्यक्ति की चुनाव लडऩे की पात्रता निलंबित कर दी जाए। वह मतदान कर सकता है लेकिन चुनाव न लड़ सके। हमारी राजनीति में अपराधीकरण का जो विष फैला है वह उपर्युक्त उपाय मात्र से ७५ फीसदी साफ हो जाएगा। भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त पिछले दो-चार माह में कम-से -कम एक दर्जन बार इस मुद्दे को उठा चुके हैं। उनकी मांग है कि जिसके विरुद्ध चार्जशीट अदालत में दाखिल हो चुकी हो उसे चुनाव लडऩे से अपात्र माना जाए। इस मांग में गलत और अनुचित क्या है? आरोप लगने पर शासकीय कर्मी सस्पैंड हो जाते हैं। अत: वही व्यवस्था नेतागिरी में भी लागू होनी चाहिए। फिर ऐसे चोट्टों के चुनाव नहीं लडऩे से हमारे लोकतंत्र और राज व्यवस्था पर कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा। मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा की जा रही मांग और थॉमस की ओर से वेणुगोपाल द्वारा दिये गये तर्क को अन्यथा नहीं लें। इसी में लोकतंत्र और राष्ट्र का हित है। इस समय कई देशों में मची उथल-पुथल से सबक लेकर ही कुछ कर लें। यह तय है कि अब तक हुई गलतियों को भविष्य माफ नहीं करेगा।

सूत न कपास.....!

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
२००२ के गुजरात दंगों पर मई २०१० में सौंपी गई विशेष जांच दल की रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं की गई है लेकिन एक साप्ताहिक पत्रिका ने दावा किया है कि रिपोर्ट में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दोषी ठहराया गया है। यह कथित खुलासा पूर्व में आई उन खबरों से बिल्कुल विपरीत है जिनमें कहा गया था कि विशेष जांच दल ने मोदी को क्लीन चिट दी है। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के पूर्व निदेशक आर.के. राघवन की अध्यक्षता में विशेष जांच दल गठित किया था। इस दल की रिपोर्ट पर सर्वोच्च न्यायालय की बेंच आगामी ३ मार्च को अगले कदम के बारे में आदेश देगी। निश्चित रूप से पत्रिका द्वारा किया गया खुलासा सनसनीखेज है लेकिन इसक सत्यता के बारे में अभी कुछ कह पाना मुश्किल है। फिर विचारणीय बिंदु यह हो सकता है कि रिपोर्ट सार्वजनिक होने से पहले किसने इसे लीक किया। उससे हटकर दूसरी बात यह है कि पत्रिका में छपी रिपोर्ट में तथ्य और प्रमाण कम तथा आकलन, अनुमान तथा अटकल अधिक समझ में आ रही है। यह कह सकते हैं कि पत्रिका ने रिपोर्ट के बारे में जो कुछ छापा उसमें आरोप अधिक समझ आ रहे हैं। प्रमाण कहां हैं? मोदी पर महत्वपूर्ण रिकार्ड नष्ट कर देने, साम्प्रदायिक विचारधारा, भडक़ाऊ भाषण, अल्पसंख्यकों से भेदभाव, संघ नेताओं को प्रमुखता और तटस्थ अफसरों को प्रताडि़त करने के आरोप लगाये गये हैं। राघवन की अगुआई वाले विशेष जांच दल की रिपोर्ट अधिकारिक रूप से सार्वजनिक हुए बगैर कैसे मान लिया जाए कि जिस रिपोर्ट को लेकर पिछले २४ घंटों से सनसनी पैदा करने की कोशिश की जा रही है, वह असल है। यदि रिपोर्ट सही है तब भी मोदी को कठघरे में खड़ा करने लायक अंश इसमें नजर नहीं आ रहे। विशेष जांच दल स्वयं स्वीकार कर रहा है कि मोदी के विरुद्ध सीधी कानूनी कार्रवाई शुरू करने का कोई पुख्ता प्रमाण उसके हाथ नहीं लगा है। प्रश्न यह है कि क्या विशेष जांच दल की कल्पना और अनुमानों को आधार बनाकर मोदी को अदालती कार्रवाई के लिए घसीटा जा सकता है। इस तरह का कोई प्रयास कानूनी लड़ाई में आखिर कितनी देर रुक पायेगा? असली रिपोर्ट सार्वजनिक होने पर ही अधिक कुछ कहना संभव होगा। इस बात में संदेह नहीं कि सन् २००२ के गुजरात दंगे हमारे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्षता की भावनाओं पर एक गहरा आघात रहे हैं। इन दंगों में हुई दो हजार से अधिक लोगों की मौत को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। वह हृदय पर एक गहरे जख्म की तरह है। यदि गोधरा में कारसेवकों को जिंदा जलाये जाने की घटना के बाद गुजरात में बड़े पैमाने पर भडक़े साम्प्रदायिक दंगे किसी बड़ी साजिश का परिणाम थे, तब इसके लिए दोषी व्यक्तियों को दंडित किया जाना जरूरी है। लेकिन यहां इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि अतीत में इस देश में कितनी ही साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत छोटी-छोटी बातों पर हुई थी। उनमें दोनों ओर के साम्प्रदायिक और असामाजिक तत्व मुख्य रूप से लिप्त रहे। यह बात हजम नहीं होती कि गुजरात दंगों की साजिश रचने में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोई प्रत्यक्ष भूमिका निभाई होगी। गुजरात दंगों के बाद कानून एवं व्यवस्था और राज्य के विकास के मामले में मोदी ने कसावट दिखाकर अपनी क्षमताओं और दूरदर्शिता का लोहा मनवा लिया है। वह हिंदुत्व के संरक्षण के समर्थक हो सकते हैं परंतु उनसे किसी सियासी मूर्खता की आशा करना अपने आप में मूर्खता होगी। हमारे यहां राजनीति, पत्रकारिता और कुछ अन्य क्षेत्रों में कथित सेकुलैरिस्टों की एक ऐसी लॉबी है जो घूम-फिर कर मोदी को घेरने की कोशिश करती रहती है। राघवन की अगुआई वाले विशेष जांच दल की असल रिपोर्ट सार्वजनिक होने दें। उससे पहले मोदी को घेरने के लिए छटपटाना अव्वल दर्जे की कम अवली कहलाएगी।

Monday, February 7, 2011

कौन सक्रिय कौन निष्क्रिय?

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सुप्रीम कोर्ट की एक ताजा व्यवस्था पर व्यापक चर्चा और बहस की जरूरत महसूस हो रही है। सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश द्वय मार्कण्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने कहा है कि किसी प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता मात्र के कारण किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं माना जा सकता जब तक कि वह हिंसा पर उतारू न हो जाए या लोगों को हिंसा के लिए उकसा न रहा हो। इस व्यवस्था के बाद सबसे पहला प्रश्न यही मस्तिष्क में उभरा कि जब प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता अपराध नहीं है ऐसी स्थिति में प्रतिबंध लगाने का औचित्य क्या रह जाएगा। वास्तव में ऐसी स्थिति में सुरक्षा एजेंसियों का काम और अधिक कठिन और उसमें काम करने वालों के लिए जोखिम-भरा हो जाएगा। इस बात में संदेह नहीं कि इस देश में पुलिस और सुरक्षा एजेंसियो द्वारा कई कानून और प्रतिबंधों की आड़ लेकर अधिकारों का दुरूपयोग किये जाने के आरोप लगते रहे हैं। प्रतिबंधित संगठनों के सक्रिय और निष्क्रिय सदस्यों को एक ही तराजू में तौल कर उनके साथ एक सा व्यवहार होता रहा है। लेकिन हमारी पुलिस, सुरक्षा एजेंसियों के कुछ लोगों की गलतियों के बाद भी उपर्युक्त व्यवस्था से सभी का सहमत हो पाना मुश्किल सा नजर आ रहा है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था प्रतिबंधित संगठन उल्फा के एक सदस्य अरूप भुयान को टाडा कानून की धारा ३(५) के तहत दोषी ठहराये जाने के संदर्भ में आई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह साबित नही किया गया कि अरूप उस संगठन का सक्रिय सदस्य था या सिर्फ निष्क्रिय सदस्य। अदालत ने ऐसी व्यवस्था देते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख किया। यहां दो बातें हैं। एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दो- प्रतिबंधित संगठन। सवाल यह है कि किसी संगठन पर प्रतिबंध की स्थिति में उसके निष्क्रिय सदस्य राज व्यवस्था, सरकार और समाज में लुके छिपे एक वैचारिक अभियान चलायेंगे, तब उनसे कैसे निबटा जा सकेगा? इस समय गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) कानून १९६७ के तहत ३२ संगठनों पर प्रतिबंध है। जिन संगठनों पर प्रतिबंध है उनमें अलकायदा, लश्कर ए तैयबा, जैश ए मोहम्मद, अल बद्र, माओवादी और नक्सली संगठन शामिल हैं। खतरनाक महसूस होने वाले संगठनों पर प्रतिबंध का एक उद्देश्य उनके विरूद्ध कार्यवाही करने वाले सुरक्षा बलों को अधिकार सम्पन्न करना होने के साथ साथ कहीं न कहीं आदमी को उनसे जुडऩे से रोकना हैं। कानून और संविधान के प्रावधानों के अनुरूप चलने वाली शासन व्यवस्थाओं में यह अपेक्षा की जाती है कि किसी संगठन में प्रतिबंध लगने पर कानून का सम्मान करने वाले लोग उससे स्वयं को अलग कर लें। इसमें निष्क्रिय और सक्रिय सदस्यता जैसे प्रश्न कहां रह जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति निष्क्रिय सदस्य का मुखौटा लगाये पर्दे के पीछे सक्रिय सदस्यों की तरह व्यवहार करें ऐसे लोगों को किस चश्मे से सुरक्षा बलों के लोग और पुलिस वाले अलग-अलग कर पाएंगे? तब तो कई शातिर लोगों को तमाम गैर कानूनी काम करने पर क्लीन चिट मिल जाएगी। उपर्युक्त व्यवस्था से शहरों मे रहने वाले और कई बार मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा बुद्धिजीवी का मुखौटा लगाकर प्रतिबंधित संगठनों के प्रति हमदर्दी व्यक्त करते रहे लोगों का मनोबल बढ़ जाएगा। अत: हमारा मानना है कि सरकार को उक्त व्यवस्था को चुनौती देनी चाहिए।

Tuesday, February 1, 2011

चेत जाएं सरकार चलाने वाले

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई.कुरैशी द्वारा लखनऊ में की गई इस टिप्पणी को सत्य से साक्षात्कार कराने का प्रयास मानना चाहिए कि लोकतंत्र की कमियों के कारण जनता का मोहभंग हो इससे पहले उन्हें दूर करना जरूरी है क्योंकि सही दिशा में सुधार नहीं हुए तो एक दिन जनता ही ऊबकर तख्तापलट कर देगी। मुख्य चुनाव आयुक्त की टिप्पणी काफी हद तक चुनाव सुधारों से जुड़ी है। लेकिन जिस समय श्री कुरैशी यह बात कह रहे थे लगभग उसी समय देश के ६० नगरों-महानगरों में भ्रष्टाचार के खिलाफ निकाली गई रैलियों में लाखों लोग भाग ले रहे थे। रैलियों में भाग लेने वाले आमजन, समाज सेवियों और धर्मगुरुओं ने मिलकर सरकार को यह संदेश दे दिया कि भ्रष्टतंत्र के विरुद्ध जनतंत्र जाग उठा है। वक्ताओं के विचारों से आम आदमी की भावनाएं सामने आई हैं। २जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों में भ्रष्टाचार, आदर्श सोसायटी घोटाला और बिल्कुल ताजी घटना मनमाड़ में एडीशनल कलेक्टर को तेल माफिया द्वारा जिंदा जला डालने ने लोगों को हिलाकर रख दिया। आम आदमी हैरान है कि मध्यप्रदेश में आईएएस दम्पत्ति ने मात्र दो दशकों में कैसे लगभग चार सौ करोड़ की सम्पत्ति जमा कर ली। सरकारी इंजीनियरों और अधिकारियों के यहां से पकड़ी जा रही अवैध संपत्ति संंबंधी रिपोर्टे पढक़र आंखें फटी रह जा रही हैं। मोटे तौर पर राजनेताओं, नौकरशाहों और अपराधी तत्वों के बीच सांठगांठ समझ में आ रही है जिसके कारण देश में भ्रष्टाचार खतरनाक स्तर तक जा पहुंचा और सरकार में बैठे लोग या तो भ्रष्ट तत्वों की अनदेशी करते रहे या फिर अकर्मण्यों की भांति ऊंघते दिखे। मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई कुरैशी विशुद्ध गैर-राजनीतिक व्यक्ति हैं। वह अपराधी तत्वों को राजनीति से दूर रखने की बात पर जोर दे रहे हैं तब इसका सीधा अर्थ है कि वह लोकतंत्र की पवित्रता सुनिश्चित करना चाहते हैं।

भ्रष्टाचार के खिलाफ ६० शहरों में निकाली गई रैलियों के मुख्य आयोजकों में श्रीश्री रविशंकर और आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल हैं। रैलियों की अगुआई जिन हस्तियों ने की उनमें से ९९.९ प्रतिशत का किसी राजनीतिक दल के साथ सक्रिय सम्पर्क अथवा संबंध नहीं है। नि:संदेह पानी सिर से ऊपर जाने वाली बात है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही भ्रष्टाचार के वायरस का प्रकोप भारत में बढऩे लगा था लेकिन उसे समय रहते कुचलने की जरूरत सरकार चलाने वालों ने महसूस नहीं की। कल केंद्रीय कानून मंत्री एम.वीरप्पा मोइली ने कहा कि भ्रष्टाचार के मामलों का निबटारा एक साल में हो जाएगा। उनका दावा है कि कोई भी केस तीन साल से अधिक नहीं चलेगा। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मोइली अदालतों में लगे करोडा़ें मामलों के शीघ्र निबटारे के लिए कमर कस चुके हैं। इसे एक अच्छा संकेत मान सकते हैं। प्रश्न यह है कि लोकतंत्र की पवित्रता और भ्रष्टाचार मुक्त तंत्र कैसे सुनिश्चित हो? दोनों ही विषयों पर गंभीर और ठोस प्रयास की जरूरत है। सत्ताधारी राजनेताओं को सिर्फ दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए कड़े फैसले लेने होंगे। विचार करें कि ट्यूनिशिया और मिस्र में सरकार के विरुद्ध आम आदमी सडक़ों पर क्यों उतर आया? वहां इन सरकार विरोधियों की अगुआई कोई स्थापित राजनेता नहीं कर रहा है। दोनों देशों में लोग भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और अन्य समस्याओं से इस हद तक त्रस्त हो गए कि जान की परवाह किये बगैर सडक़ों पर उत्तर आए हैं। मिस्र के घटनाक्रमों पर चीन तक सकते की हालत में है। हमारे यहां कल की भ्रष्टाचार विरोधी रैलियों को गंभीरता से लेकर सरकार ने ठोस कदम नहीं उठाये तो लोगों में आक्रोश बढ़ेगा। कुरैशी तख्ता पलट जैसी स्थिति की आशंका से आगाह कर चुके हैं। अब समझने और फैसला लेने की बारी सरकार चलाने वालों की है।

Monday, January 31, 2011

सरकार की ’गुल्लक’ नहीं हैं बैंक

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से आग्रह किया है कि शीतलहर, पाला और तुषार से मध्यप्रदेश में हुई फसलों की बर्बादी के मद्देनजर वह वाणिज्यिक बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को निर्देश दें कि फसल ऋण लेने वाले किसानों का बकाया ब्याज माफ किया जाए तथा ऋण का पुनर्निर्माण हो। इस संबंध में मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा है कि हमने (प्रदेश सरकार ने) सहकारी बैंकों द्वारा किसानों को दिये जाने वाले फसल ऋण का न केवल पुनर्निर्धारण किया गया है बल्कि इन बैंकों द्वारा दिये गये फसल ऋण को भी माफ करने का निर्णय लिया गया है। इस बात में संदेह नहीं कि मौसम की दगाबाजी-पाला, शीतलहर और तुषार के चलते इस बार बड़े पैमाने पर फसलों को नुकसान हुआ है। खबर यह भी है कि रसायनों के अंधाधुंध उपयोग के चलते धरती की उर्वरता क्षमता प्रभावित हुई है। कुल मिलाकर किसानों पर दो-तरफा मार पड़ी। बैंकों, वित्तीय संस्थानों और साहूकारों से कर्ज लेकर खेती करने वाले किसानों विशेषकर छोटे और सीमांत किसानों में से अधिकांश को इस दो-तरफा मार ने हिलाकर रख दिया। एक ओर कर्ज का बोझ और दूसरी ओर पेट की आग को शांत करने की चिंता ने उन्हें विचलित कर रखा है। अन्नदाताओं के समक्ष ही अन्न के लाले जैसी स्थिति है। इससे उपजे तनाव और भय के चलते कुछेक किसानों द्वारा आत्महत्या की गई है। किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के मामले प्रकाश में आने के बाद प्रदेश सरकार और इसकी मशीनरी की सक्रियता बढ़ी और इसी के तारतम्य में किसानों के कर्ज पर ब्याज माफी की बात उठ गई। सुनने में यह सुझाव संवेदनापूर्ण और काफी हद तक वाजिब लगता है। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति किसानों के महत्व को समझते हुए और उनके प्रति उपजी सहानुभूति के प्रभाव के कारण ब्याज माफी के प्रस्ताव का समर्थन ही करेगा। लेकिन, यहां बैंकों, विशेषकर वाणिज्यिक बैंकों के साथ एक व्यावसायिक पक्ष जुड़ा हुआ है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि प्रधानमंत्री कैसे बैंकों से कह सकते हैं कि वे फसल ऋण पर ब्याज माफ कर दें। व्यावसायिक बैंक अथवा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक किसी को भी कर्ज देते हैं अथवा व्यावसायिक गतिविधियां चलाते हैं उसमें खर्च होने वाला धन क्या बैंकों का होता है? इस तथ्य से सभी अवगत होंगे कि बैंकों के धन का अधिकांश भाग उनके ग्राहकों द्वारा जमा की गई रकम से आता है। इसके अलावा लोगों ने बैंकों के शेयर आदि खरीदकर निवेश कर रखा है। इसी धन से जरूरतमंद लोगों को ऋण देकर ब्याज वसूला जाता है। वसूले गये ब्याज से जमाकर्ताओं को ब्याज, निवेशकों लाभांश, बैंक का परिचालन व्यय आदि निकाला जाता है। हमारे यहां एक गलत धारणा यह है कि बैंक का धन उसका अपना है, मानो वह कुबेर का खजाना हो। जिसे देखिये इस खजाने से चुल्लु-दो चुल्लु, बाल्टी दो बाल्टी उलीचने को तत्पर है। बैंक से कर्ज लेकर डकार जाना और अन्य तरीकों से बैंक को आर्थिक चोट पहुंचाने वाले शायद जानते हों कि इससे जमाकर्ताओं, निवेशकों और राष्ट्र को चोट पहुंचाई जाती है। भारतीय बैंकिंग उद्योग के साथ यह विडम्बना जुड़ी है कि यहां सत्ताधारी राजनेता सरकारी और राष्ट्रीयकृत बैंकों को अपने घर की ’गुल्लक’ मानते हैं। जब मर्जी है गुल्लक को उल्टा करो और सिक्के निकाल लो। अतीत के बैंक कर्ज माफी मेलों को इसी क्रम में रखा जा सकता है। सरकार बताये कि कर्ज माफी मेलों से बैंकों को लगी चोट उसने कितने सालों बाद मरहम लगाया। साफ बात यह है कि कर्ज माफी या ब्याज माफी जैसी लोक लुभावन घोषणाएं होनी ही नहीं चाहिए। कर्ज लिया है तो उसे चुकाना होगा और वह भी मय ब्याज के। प्रधानमंत्री को यह घोषणा करने का अधिकार अवश्य है कि किसानों द्वारा लिये गये कर्ज के ब्याज का भुगतान सरकार बैंकों को करेगी वह भी शीघ्रातिशीघ्र। बैंकों को कुबेर का खजाना समझेंगे तब आज किसान पीडि़त हैं, कल बैंक दम तोड़ेंगे, समूची अर्थ व्यवस्था ही चरमरा जाएगी।

Friday, January 28, 2011

दो राष्ट्र सिद्धांत; दिग्विजय मत उखाडिय़े गड़े मुर्दे

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
लीजिये, अब पेश है दिग्विजयी शोध की एक और रिपोर्ट! कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा है कि दो राष्ट्र सिद्धांत के लिए पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना नहीं बल्कि वीर सावरकर जिम्मेदार थे, जिसे बाद में जिन्ना ने अपना लिया। दिग्विजय सिंह के इस बयान पर दो बातें तय हैं। एक-सभी जानते हैं कि इस बयान का उद्देश्य भाजपा, संघ अथवा हिंदु संगठनों को तिलमिला देने वाले प्रहार से अधिक एक-वर्ग विशेष तक कांग्रेस का मधुर संदेश पहुंचाना है। अब देखना यह चाहिए कि इस तरह की बातों का कितना राजनीतिक लाभ कांग्रेस को भविष्य में मिल पाएगा। दो-पिछला अनुभव बताता है कि दिग्विजय सिंह इस बार भी अपनी बात से टस-से-मस नहीं होंगे, भले ही आप इतिहास की कितनी ही किताबें और ग्रंथ लाकर उनके सामने पटक दें।
दिग्विजय सिंह के इस बयान पर भाजपा ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। भाजपा ने कहा कि कांग्रेस महासचिव अब बौखला उठे हैं। बहरहाल, यहां इस बात पर विचार करने की जरूरत महसूस हो रही है कि आज दो राष्ट्र सिद्धांत की बात छेडऩे की क्या आवश्यकता थी? मुंबई हमलों और हिंदू आतंकवाद पर दिये गये पिछले बयानों की शृंखला में यह नई कड़ी जोडऩे का प्रयास किसको खुश करने के लिए किया गया है? जाहिर है कि दिग्विजय सिंह द्वारा जारी किये इस बेदागी सर्टिफिकेट से जिन्ना की आत्मा को कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। पाकिस्तान में जारी अंदरुनी घमासान के बीच पाकिस्तानी के पास इतना वक्त नहीं है कि इस दिग्विजयी शोध पर नजर डालने की तकलीफ उठाये। सवाल यह भी है कि इस विशुद्ध सियासी वार के पीछे असल लक्ष्य क्या है? कह सकते हैं कि वीर सावरकर पर लक्ष्य साधने के पीछे कहीं न कहीं भावना मुस्लिम वोट पर कांग्रेस की पकड़ पुन: बनाने की है। वैसे विभाजन के छह दशक बाद जब पीढिय़ां बदल चुकी हैं कि यह जानने में कम ही लोगों की रुचि हो सकती है कि दो राष्ट्र सिद्धांत किसके दिमाग की उपज थी। इस बात में संदेह नहीं कि उस दौर में गुलामी से मुक्ति और आजादी का आगमन का अनुमान डेढ़-दो दशक पहले ही लोग लगाने लगे थे। भविष्य के नेतृत्व को लेकर ध्रुवीकरण की शुरूआत हो गई थी। कुछ प्रभावशाली लोगों को चिंता होने लगी थी कि आजाद ‘इंडिया’ का नेतृत्व कौन करेगा? बहुसंख्यक हिंदू या अल्पसंख्यक मुसलमान? ऐसा माना जाता है कि नेतृत्व में स्वयं और मुस्लिम समुदाय के लिए सीमित अवसरों की संभावनाओं के कारण मोहम्मद अली जिन्ना ने धर्म के आधार पर मुसलमानों के लिए अलग देश पर जोर दिया।
दरअसल, दो राष्ट्र सिद्धांत के लिए सिर्फ जिन्ना अथवा सावरकर जैसे हिंदू नेताओं को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। इसका बीज तो औरंगजेब जैसे बादशाह ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार डाल कर किया था। औरंगजेब ने मुगल शासन का इस्लामीकरण करके दोनों समुदायों के बीच संदेह और संशय शुरू किया था। कालान्तर में संदेह की खाई चौड़ी होती चली गई। अंग्रेजों ने अपने शासनकाल के दौरान हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में उलझाये रखने के लिए जो कारनामे दिखाये उसका वर्णन इतिहास की किताबों में दर्ज है। बीसवीं सदी के पहले तीन दशकों के दौरान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच से अनेक ऐसे नेता सामने आए जिन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव के लिए अथक प्रयास किये। निश्चित रूप से पाकिस्तान का जन्म दो राष्ट्र सिद्धांत के कारण संभव हो सका। लेकिन बंटवारे की वह पीड़ा क्या लोग आज तक भूल पाए हैं। उस बंटवारे से जो नुकसान हुआ वह कल्पनाओं में सीमित नहीं किया जा सकता। आज उसी बात को छेडऩा गड़े मुर्दे उखाडऩे जैसी बात है। सावरकर पर आरोप मढ़ कर क्या हासिल होगा? जिन्ना को कोसकर क्षतिपूर्ति संभव नहीं है। ऐसी हरकतें कटुता बढ़ाती हैं। आज के भारत में समुदायों के बीच सद्भाव पर जोर दिया जाना चाहिए। यह बात वोटबैंक की राजनीति के घातक तीर चलाने वाले क्या कभी समझ पाएंगे?

ईमानदारी की कीमत

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मालेगांव के अपर जिलाधिकारी यशवंत सोनावणे को तेल माफिया द्वारा जिंदा जला दिये जाने के बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठा है कि आखिर कब तक इस देश में ईमानदार अधिकारियों को अपनी जान से हाथ धोते रहना पड़ेगा? कब सरकार बेईमानों से निबटने के लिए कानूनों को सख्त करने और ईमानदार अधिकारियों की हत्या करने वालों को फांसी की सजा सुनिश्चित कर पाएगी? सोनावणे को मंगलवार को मनमाड़ के तेल माफिया पोपट शिन्दे और उसके साथियों ने कैरोसीन डालकर जिंदा जला दिया था। प्रारंभिक रिपोर्ट के अनुसार सोनावणे उस तेल माफिया के कारनामों की वीडियो शूट कर रहे थे। महाराष्ट्र में पेट्रोलियम उत्पादों में मिलावट कर हर दिन लाखों रुपयों की कमाई करने वाले तेल माफिया को काफी ताकतवर और खतरनाक माना जाता है। यह तय माना जा रहा है कि तेल माफिया के कारनामों की महाराष्ट्र सरकार को पूरी जानकारी थी। लेकिन सरकार इनसे निबटने की बजाय अब तक सोती रही। सोनावणे की हत्या के चलते आम लोगों तथा शासकीय अधिकारियों और कर्मचारियों में गुस्सा भडक़ गया है। अत: इसके बाद महाराष्ट्र सरकार को जागना ही था। वह जागी। खबर है कि राज्य में २०० स्थानों पर छापे मारे गये तथा १८० लोगों को हिरासत में ले लिया गया है। इस घटना से समाजसेवी अण्णा हजारे इतना नाराज हैं कि उन्होंने अपना मौनव्रत तोडक़र दोषियों को सरेआम फांसी देने की मांग की है। अण्णा हजारे जैसी हस्ती सोनावणे के हत्यारों को फांसी देने की मांग कर रहे हैं। इसी तथ्य से घटना को लेकर उनकी और आम लोगों की नाराजगी को समझा जा सकता है। प्रश्न यह है कि क्या सोनावणे के हत्यारों को फांसी देना संभव हो पाएगा? अनुभव इस तरह की किसी संभावना से इंकार करता है। लंबी न्याय प्रक्रिया और आजकल चल निकला ‘रेयरेस्ट इन रेयर’ के पहाड़े ने कितने ही हत्यारों को फांसी से बचा रखा है। एन.एच.आई.ए. के प्रोजेक्ट इंजीनियर सत्येंद्र दुबे और इंडियन आयल मार्केटिंग आफीसर एस.मंजूनाथन को अपनी ईमानदारी के कारण जान गंवानी पड़ी। दुबे की हत्या के मामले में तीन लोग दोषी पाये गये लेकिन उन्हें उम्र कैद की सजा हुई। वे फांसी से बच गये। मंजूनाथन की हत्या के दोषी पवन कुमार उर्फ उर्फ मोनू मित्तल को फांसी की सजा सुनाई लेकिन उसे फांसी पर लटकाये जाने के आसार कम हैं। रेयरेस्ट आफ रेयर का पहाड़ा उसे भी फांसी से बचा सकता है। पहले ही कितने ही हत्यारे दोषी ठहराये जा चुके हैं। उन्हें मृत्युदण्ड सुनाया गया। कानूनी तिकड़मों और अपीलों, क्षमायाचना अर्जी की आड़ में उन्हें फांसी से बचाया जा रहा है। जिस देश में सरकार हत्यारों को उनके अपराध के अनुसार सजा सुनिश्चित कर पा रही हो वहां हत्यारों, माफिया, अपराधी तत्वों और आतंकवादियों के हौसले बुलंद होंगे ही। मरने वाला अपनी जान से जाता है। जबकि लोगों की रक्षा और उन्हें न्याय दिलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। लेकिन हमारे यहां अपराध के अनुरूप कितनी बार न्याय सुनिश्चित हो पाया है। सोनावणे के हत्यारों को फांसी से कम सजा स्वीकार नहीं की जा सकती। वे पेट्रोलियम उत्पादों में मिलावट कर देशवासियों और राष्ट्र के साथ धोखा कर रहे थे। पकड़े जाने के भय से उन्होंने प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी को जिंदा जला दिया। इस जघन्य कृत्य के दौरान उन्हें एक पल के लिए कानून या सजा का भय नहीं हुआ? वैसे ही देश में जागरूक और ईमानदार लोग काफी कम हो गये हैं। प्रशासन में ईमानदारी दुर्लभ है। इन इने-गिने ईमानदारों को बचाने और इनका मनोबल बढ़ाने के लिए जरुरी है कि ईमानदारों को ललकारने वालों पर पूरी ताकत से हमला किया जाए। सोनावणे की आत्मा को शांति सही न्याय होने पर ही मिलेगी। सोनावणे के हत्यारों को फांसी पर लटकता देखना जरूरी है। ऐसी सजा ही कानून का खौफ पैदा कर पाएगी।

Thursday, January 27, 2011

सेना जैसी कार्रवाई हो भ्रष्ट तत्वों पर

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सुकना भूमि घोटाले में थल सेना के पूर्व उप प्रमुख मनोनीत लेफ्टिनेंट जनरल पी.के. रथ को कोर्ट मार्शल ने दोषी करार देते हुए उनकी वरिष्ठता में दो साल की कटौती का आदेश दिया है। भ्रष्टाचार के मामलों पर लगातार चिंता व्यक्त कर रहे लोगों ने कोर्ट मार्शल के आदेश का स्वागत किया है। यह आदेश उन लोगों के लिए सबक हो सकता है जो पद के मद में नियम-कानूनों को अपनी जेब में रखने का भ्रम पाल लेते हैं और भ्रष्ट और अनैतिक कृत्यों में लिप्त हो जाते हैं। यह पहला मामला है जब इतने शीर्ष स्तर के सैन्य अधिकारी को भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया। जनरल कोर्ट मार्शल ने लेफ्टिनेंट जनरल रथ को तीन आरोपों में दोषी पाया है। इनमें पश्चिम बंगाल के सुकना सैन्य केंद्र से लगे भूखंड पर शिक्षण संस्थान बनाने के लिए निजी रीयल एस्टेट व्यापारी को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करना शामिल है। अन्य आरोपों में शिक्षण संस्थान के निर्माण के लिए गीतांजलि ट्रस्ट के समझौते पर हस्ताक्षर करना और इस बाबत पूर्वी कमान में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित नहीं करना शामिल है।
लेफ्टिनेंट जनरल रथ थल सेना के पूर्व उप मुख्य मनोनीत जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहे हैं। कोर्ट मार्शल ने अपने फैसले में रथ की दो वर्ष वरिष्ठता में कटौती, पेंशन की गणना में १५ वर्षों की सेवा में कमी का आदेश देते हुए कड़ी फटकार लगाई है। इस सजा को रक्षा मंत्रालय की मंजूरी मिलने के बाद देखना यह है कि रथ का अगला कदम क्या होता है। वैसे लेफ्टिनेंट जनरल रथ की सिर्फ एक वर्ष की सेवा अवधि शेष रह गई है अत: यह मानें कि सेना से उनकी विदाई का समय आ गया है। देश में भ्रष्टाचार को लेकर इस समय सर्वत्र चिंता व्याप्त है। राजनीति से लेकर नौकरशाह बिरादरी तक भ्रष्टाचार की गंदगी में सने हुए लोग नजर आने लगे हैं। न्याय पालिका तक में भ्रष्टाचार के कैंसर के पहुंच जाने की बातें होने लगी हैं। भारतीय सेना को अब तक भ्रष्टाचार से काफी हद तक अछूता माना जाता रहा है लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल रथ के उदाहरण ने साबित कर दिया है कि भ्रष्टाचार का कैंसर हमारी सेना तक पहुंच चुका है। सेना की जिम्मेदारी राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा करने की है। आंतरिक स्थिति पर कभी पुलिस और प्रशासन का नियंत्रण नहीं रह पाता तब सेना को ही मदद के लिए बुलाया जाता है। यह कल्पना रीढ़ की हड्डी में कंपकंपी पैदा कर देती है कि यदि सेना में ही भ्रष्ट तत्व पहुंच जाएंगे तो राष्ट्र कितने दिन गुलाम होने से बचा रह सकता है?
पिछले दिनों एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार इस प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार कर रही है कि भ्रष्टाचार के आरोप में जिस शासकीय सेवक के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हो गई हो उसे तत्काल बर्खास्त किया जाना चाहिए। इस प्रस्ताव के पीछे मकसद लंबी अदालती लड़ाई का लाभ लेने से भ्रष्ट शासकीय सेवकों को रोकना है। इस आशय के निर्णय पर अमल की राह में सबसे बड़ी रुकावट राजनीतिक बिरादरी के भ्रष्ट तत्व होंगे। पिछले कुछ समय से मुख्य चुनाव आयुक्त मांग कर रहे हैं कि जिन लोगों के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल कर दिया जाए उन्हें चुनाव लडऩे से अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए। मुख्य चुनाव आयुक्त के इस सुझाव का सियासी बिरादरी से विरोध होना स्वाभाविक है। बहरहाल, यह समय केंद्र सरकार के लिए परीक्षा का है। भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के आरोपों में घिरी सरकार को साबित करना है कि वह बेदाग है और उसके इरादे अच्छे हैं। यह उसी स्थिति में संभव होगा जब भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध कड़े फैसले लिये जाएं। सेना का शीर्ष स्तर का एक अधिकारी दंडित किया जा सकता है। अत: भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों को दुरुस्त करने में कैसा संकोच?

Monday, January 24, 2011

उमर कुछ तो सियासी मर्दानगी दिखाओ

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सवाल सिर्फ यह है कि राष्ट्र ध्वज अगर अपने ही देश में नहीं फहराया जा सकता तब उसे और कहां फहराया जाए? श्रीनगर के लाल चौक पर २६ जनवरी, गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराने और श्रीनगर मार्च के भाजपा के कार्यक्रम का जिस तरह विरोध किया गया तथा भाजपा कार्यकर्ताओं को श्रीनगर जाने से रोका जा रहा वह आश्चर्यजनक और शर्मनाक है। २६ जनवरी को लाल चौक पर तिरंगा फहराने के कार्यक्रम के पीछे भाजपा का राजनीतिक उद्देश्य हो सकता है लेकिन इस कार्यक्रम का विरोध कर कांग्रेस और जम्मू कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने स्वयं ही भाजपा के उद्देश्य की पूर्ति कर दी। तिरंगा फहराये जाने की घोषणा पर पहली प्रतिक्रिया जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की आई। उन्हें लगता है कि यह अनावश्यक काम है। उमर को भय अलगाववादियों और कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी पिट्टुओं के भडक़ उठने का है। वह अपनी आशंकाएं और भय व्यक्त करने से नहीं चूके। केंद्र सरकार को अपनी चिंता से अवगत करा दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस उमर के सुर में सुर मिलाने लगी। भाजपा के ध्वजारोहण कार्यक्रम पर उमर जैसे राजनेता और अक्षम प्रशासक की चिंता समझी जा सकती है। हैरानी तो कांग्रेस द्वारा व्यक्त किये गये विरोध पर है। एक वाम नेता ने तक भाजपा के श्रीनगर मार्च का विरोध किया है। ताजा खबर यह है कि ध्वजारोहण कार्यक्रम के नाकाम करने जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार तथा केंद्र, दोनों ही सक्रिय हो गए हैं। जम्मू कश्मीर राज्य की सीमा सील कर दी गई हैं। प्रमुख प्रवेश मार्गों पर तैनात जम्मू कश्मीर सश बल के जवान तैनात हैं जो वाहनों की तलाशी ले रहे हैं। आज के अखबारों में चूहे-बिल्ली के खेल जैसा समाचार प्रमुखता से छपा है। समाचार में कहा गया है कि कर्नाटक के भाजपा के लगभग ढाई सौ कार्यकर्ताओं को ले जा रही ट्रेन रद्द कर दी गई। भाजपा वालों को श्रीनगर जाने से रोकने के लिए ऐड़ी-चोटी एक कर दी गई है। वैसे इस सच को हमें स्वीकार करना चाहिए कि लाल चौक पर तिरंगा फहराये जाने के कार्यक्रम का विरोध और इसको लेकर की गई मोर्चा बंदी की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। उमर अब्दुल्ला ने स्वयं ही भाजपा को प्रचार लूटने का मौका दे दिया है उमर से ही सवाल करना चाहिए कि भाजपा के कार्यक्रम को लेकर उन्हें किस बात की चिंता खाये जा रही थी? अरे जनाब! सियासी मर्दानगी नाम की कोई बात भी होती है। भाजपा के कार्यक्रम का विरोध करके उमर अब्दुल्ला ने स्वयं साबित कर दिया कि उनके दिमाग पर अलगाववादियों का खौफ किस हद तक है? भाजपा के कार्यक्रम को असफल करके आप आतंकवादियों और अलगाववादियों के हौसले ही बढ़ा रहा है। इससे संदेश यह जाएगा कि कश्मीर घाटी में सरकार, प्रशासन और पुलिस सिर्फ नाम के लिए हैं, वहां होता वही है जो अलगाववादी और आतंकवादी चाहते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि जिस क्षेत्र में पिछले ६ दशकों के दौरान राष्ट्र के लाखों, करोड़ रुपये लग गए और जिस क्षेत्र की रक्षा करते हजारों लोग शहीद हो चुके हैं, वहीं तमाम तरह की अड़चनें हैं। शेष भारत का कोई भी नागरिक कश्मीर घाटी में अचल संपत्ति नहीं खरीद सकता परंतु वास्तविक नियंत्रण रेखा और सीमा पार से पाकिस्तानी घुस आते और गड़बड़ी फैलाते रहते हैं। उमर अब्दुल्ला से यह सवाल करने का हक राष्ट्रवादियों को है कि आखिर क्यों वह राष्ट्रवाद के वैचारिक आंदोलन को अलगाववाद के हाथों पराजित देखना चाहते हैं? लालचौक पर तिरंगा फहराने के कार्यक्रम में कुछ गलत नहीं था? उमर की उछल कूद ने उसे अनावश्यक रूप से संवेदनशील बना दिया।

गुजरात का सच दिखाया वस्तानवी ने

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम मौलाना अहमद बुखारी और जमीयत-ए-उलेमा हिंद के नेता मौलाना महमूद मदनी इस समय दारुल ऊलूम के नये वाइस चांसलर मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी से नाराज हैं। देवबंद के नये चीफ ने गत दिवस गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हुए कहा था कि वह गुजरात के आर्थिक विकास से काफी इंप्रेस हैं। उन्होंने गुजरात के दंगा पीडि़तों के लिए चलाये जा रहे राहत कार्यों पर संतोष व्यक्त किया और कहा कि ‘‘सरकार और गुजरात के लोग इस मामले में काफी काम कर रहे हैं।’’ नि:संदेह २००२ के गुजरात दंगों से इस राज्य और स्वयं मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि देश-विदेश में प्रभावित हुई थी लेकिन पिछले आठ सालों में राज्य में कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर सरकार को जो सफलताएं मिलीं तथा गुजरात में जिस तेजी से आर्थिक विकास हुआ वह मोदी विरोधियों के लिए तक आश्चर्य का विषय है। मोदी की छवि एक सख्त प्रशासन, दूरदर्शी राजनेता और विकास का स्पष्ट खाका अपने मस्तिष्क में रखने वाले व्यक्ति के रूप में उभरी है। भारतीय कारपोरेट जगत ने मोदी सरकार के कामकाज के तरीके को सराहा है। कम-से-कम चार शीर्ष उद्योगपति खुलेआम कह चुके हैं कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य राजनेता हैं। विश्वास कर सकते हैं कि गुजरात का आम मुसलमान आज नरेंद्र मोदी के शासन में स्वयं को सुरक्षित महसूस करने लगा है । आठ साल पूर्व हुए दंगों के लिए मोदी को ही जिम्मेदार बताया जाता रहा है। हर समझदार और जिम्मेदार व्यक्ति दंगों के उस घाव को भूल जाना चाहता है। स्वयं देवबंद के वीसी वस्तानवी कह चुके हैं। ‘‘गुजरात दंगा मुद्दा आठ साल पुराना है और अब हमें आगे देखना चाहिए।’’
इन तथ्यों के बाद भी एक वर्ग रह-रहकर पुराने जख्मों को कुरेदने की कोशिश करता है। अहमद बुखारी और वस्तानवी की जानकारियों और सोच में अंतर स्वाभाविक है। कई विषयों पर उनका नजरिया भिन्न है। ऐसी स्थिति में इस बात पर विचार करना उचित होगा कि गुजरात में जो हुआ और आज वहां जो माहौल है उसके विषय में बुखारी और वस्तानवी में से किस के पास बेहतर जानकारी होगी। यहां धर्म की बात कतई नहीं की जा रही है। चर्चा का विषय विशुद्ध व्यावहारिक पक्ष है। इस दृष्टि से वस्तानवी का पलड़ा अवश्य भारी लगता है। सूरत के रहने वाले वस्तानवी एमबीए ग्रेजुएट हैं। यही तथ्य साबित करता है कि गुजरात के सच को उनसे बेहतर ढंग से उनके आलोचक नहीं देख पाए होंगे। फिर वस्तानवी राजनीति नहीं कर रहे। दूसरी ओर अहमद बुखारी एक पवित्र और ऐतिहासिक धर्मस्थल से अनेक बार ऐसी टिप्पणियां करते आए हैं जिन्हें राजनीतिक बयान कहा जाएगा। मौलाना महमूद मदनी राज्यसभा एमपी हैं ही। एक फर्क यह है कि मदनी और वस्तानवी को उदारवादी कहा जा सकता है। इसके विपरीत अहमद बुखारी के व्यवहार से दर्जनों बार महसूस हुआ मानो वे टकराव और ललकारने की मुद्रा में रहते हैं। नरेंद्र मोदी के प्रशासन की प्रशंसा का मुद्दा ही लें अहमद बुखारी ने दारूल उलूम के वाइस चांसलर वस्तानवी से इस मामले में माफी मांगने के लिए कह दिया। ऐसा लगता है कि वस्तानवी के यथार्थवादी नजरिये को अहमद बुखारी और उनसे सहमत लोग समझना नहीं चाहते। इतिहास गवाह है कि तरक्की पसंद लोग अतीत से चिपके रहने और किसी भी रूप बदला लेने या दिल में गांठ बांधे रखने में विश्वास नहीं रखते। ऐसे लोग और समाज आगे बढ़ जाते हैं। वस्तानवी मुस्लिम युवकों के लिए आधुनिक शिक्षा पर जोर देकर यह संदेश दे दिया है कि वह मुस्लिम समुदाय को अन्य समुदायों के बराबर लाने का स्वप्र संजोये हुए हैं। बुखारी साहब बतायें कि मुसलमानों की प्रगति के लिए उन्होंने स्वयं कितने प्रयास किये? आज दौर उदार आधुनिकता का है। इसमें कड़वाहट भूलनी होगी, वह चाहे अतीत की हो या बिल्कुल ताजा।

Thursday, January 20, 2011

काश, शिंगणांपुर सा हो जाए सारा देश

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
कानून एवं व्यवस्था के लिए लोगों में अनुशासन पर जोर और कानून का खौफ कितना आवश्यक है इसका प्रमाण महाराष्ट्र के शनिदेव तीर्थस्थल शिंगणांपुर में एक व्यवसायिक बैंक की तालाविहीन शाखा खुलने से मिल जाता है। शनि शिंगणांपुर में प्रतिदिन पांच से छह हजार श्रद्धालु पहुंचते हैं। शनिवार को यहां शनिदेव के दर्शन करने वालों की संख्या एक लाख तक पहुंच जाती है। मगर मजाल है कि अहमदनगर के इस छोटे से गांव में चोरी, उठाईगिरी, लूट की एक छोटी-सी भी घटना हो जाए। शनि शिंगणांपुर के घरों और दुकानों में कभी ताले नहीं लगाये जाते। मान्यता है कि उस क्षेत्र में चोरों की हिम्मत नहीं होती। उन्हें शनिदेव के कोप का खौफ रोके रखता है। इसलिए जब इस गांव में व्यावसायिक बैंक खोलने का अनुरोध यूनाइटेड कामर्शियल (यूको) बैंक को मिला तो बैंक शीर्ष प्रबंध ने तमाम सुरक्षा चेतावनियों के बावजूद वहां तालाविहीन बैंक शाखा खोलने का निर्णय ले लिया। यूको बैंक वालों से पहले अन्य बैंक शाखा खोलने के प्रस्ताव पर हाथ खड़े कर चुके थे। वे शिंगणांपुर के संबंध में मान्यता और विश्वास के कारण ताला सुविधा वाली शाखा नहीं खोल सकते थे और ताला विहीन शाखा खोलने का वे साहस नहीं जुटा पाए। यूको बैंक प्रबंधन को न्याय के देवता शनि देव के प्रभाव पर विश्वास रहा होगा अत: उन्होंने एक ऐसा प्रयोग कर दिखाया जो गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकाडर््स में दर्ज होने योग्य माना जा रहा है। इस शाखा परिसर में दरवाजे हैं लेकिन उसमें ताला नहीं लगाया जाएगा। महत्वपूर्ण दस्तावेजों और लाकर्स सुरक्षा के लिए पर्याप्त उपाय किये गये हैं। यूको बैंक द्वारा किया गया इस अभूतपूर्व प्रयोग की सफलता सभी सुनिश्चित मान रहे हैं। लोगों का कहना है कि जिसने भी बैंक प्रबंधन का विश्वास तोड़ा उसे और उसके समूचे खानदान को शनिदेव का कोप भोगना होगा। शिंगणांपुर के इस उदाहरण ने कानून एवं व्यवस्था के लिए सख्त कानून और त्वरित न्याय का महत्व प्रतिपादित सा कर दिया है। हाल के वर्षों में देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश ने नई दिल्ली में एक साक्षात्कार के दौरान कहा था कि ‘‘ अधिकांश लोगों में कानून का खौफ खत्म हो जाने से ही देश तमाम तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। यदि यह सुनिश्चित हो जाए कि कानून का उल्लंघन करने पर बचना असंभव है तब देखिये अपराधों में किस तेजी से कमी आती है।’’ उनके उपर्युक्त कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता। स्वतंत्रता के बाद से ही अनुशासन और नैतिक मूल्यों पर जोर क्रमश: कम होता चला गया। इसी के चलते भ्रष्टाचार, कानून का उल्लंघन और अपराधों का ग्राफ लगातार उठता रहा। कानून तोडऩा शान की बात समझी जाने लगी। यहां तक कि लोग यातायात नियमों तक का भी पालन करने से बचने की कोशिश करते हैं। इसका उदाहरण चौराहों पर लाल बत्ती को अनदेखा किया जाना है। ट्रैफिक पुलिस वाला रोके या कार्रवाई करे तब उसे किसी नेता और बड़े अधिकारी के नाम पर धौंस देने में पल भर देर नहीं की जाती। देश में आतंकवादी और माओवादी गतिविधियां तथा उन्हें दबे छुपे समर्थन/संरक्षण का कारण भी कानून का भय कम हो जाना है। आजादी के बाद तुरंत सामने आये जीप खरीद घोटाले के दोषियों को चौराहे पर चाबुक चिपकवाये जाते तब क्या बोफोर्स दलाली, २जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, आदर्श हाऊसिंग घोटाला जैसी ‘चोरियां’ हो पातीं? देश का धन चुराने और उसे विदेशी बैंकों में जमा कराने का साहस कोई गद्दार कर पाता? छोटे से शिंगणांपुर गांव ने शनिदेव के प्रभाव के चलते कानून के पालन और न्याय का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। कहते हैं न सख्त और न्यायप्रिय राजा ही सफल होता है। सख्त प्रशासन से सफलतापूर्वक देश चलाया जा सकता है। यह बात हमारी सरकार चलाने वालों को समझनी होगी।

छलनी लगा छान मारें भ्रष्टाचारियों को

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
आयकर छापों के शिकंजों में फंसे मध्यप्रदेश के निलंबित आईएएस दंपत्ति अरविंद जोशी और टीनू जोशी की काली कमाई पर छापा मारने और जांच करने वाले अधिकारी अचंभित हैं। जोशी दंपत्ति ने पिछले २१ सालों में साढ़े तीन सौ करोड़ की काली कमाई जुटाई है। काली कमाई और उसके निवेश की सूची काफी लंबी है। उसका उल्लेख करना जरूरी महसूस नहीं हो रहा। अब मध्यप्रदेश में ही एक इंजीनियर के यहां मारे गये लोकायुक्त छापे पर नजर डालें। नरसिंहपुर में पदस्थ लोक निर्माण विभाग के कार्यपालन यंत्री अशोक कुमार जैन के यहां से एक करोड़ ७९ लाख रुपये नकद और ९ किलो सोना जब्त किया जा चुका है। अभी उसकी और संपत्ति सामने आने की संभावना व्यक्त की जा रही है। जोशी दंपत्ति और अशोक कुमार जैन के उदाहरण इस बात का एक ओर प्रमाण हैं कि यह देश किस तरह भ्रष्टाचार के दल-दल में धंसता जा रहा है और उसे बचाने के लिए कहीं से ऐसी कोई ठोस पहल नहीं हो रही जिससे भ्रष्ट तत्वों की रीढ़ की हड्डी तक में कंपकंपी पैदा हो जाए। मध्यप्रदेश के अधिकांश अखबारों में बुधवार को जोशी दंपत्ति और अशोक कुमार जैन के कारनामे की खबर को पहले पन्ने पर प्रमुखता से स्थान दिया गया है। उक्ताशय की दोनों खबरों के साथ उद्योग जगत की हस्तियों द्वारा भ्रष्टाचार पर व्यक्त की गई चिंता को भी स्थान मिला है। एक विरले घटनाक्रम में कारपोरेट जगत की अगुआई करने वाले दिग्गजों, पूर्व न्यायाधीशों और अन्य हस्तियों ने एक खुला पत्र लिखा है। देश के नेताओं के नाम लिखे गये खुले पत्र में नेताओं से कहा गया है कि भ्रष्टाचार का मुकाबला करने के लिए तुरंत कदम उठाये जाएं, क्योंकि भ्रष्टाचार की वजह से राष्ट्र की उन्नति के लिए मिला अवसर हाथ से निकल जाने की आशंका पैदा होने लगी है। उपर्युक्त हस्तियों की चिंता बिल्कुल वाजिब है। इससे आम आदमी की चिंता और उसमें बढ़ता तनाव महसूस किया जा सकता है। आशंका यह होने लगी है कि लगभग सवा अरब की विशाल आबादी वाले इस राष्ट्र में क्या मु_ी भर ईमानदार लोग तलाशना तक मुश्किल हो जाएगा? २जी स्पेक्ट्रम, आदर्श हाउसिंग घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल में भ्रष्टाचार और मध्यप्रदेश के जोशी दंपत्ति एवं इंजीनियर अशोक कुमार जैन के मामलों को एक ही चश्मे से देखने की जरूरत है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा की थी कि भ्रष्ट तत्वों की अवैध कमाई राजसात कर ली जाएगी। भ्रष्टाचार के ताजा उदाहरणों को देखकर लगता है कि इस दिशा में तत्काल कदम उठाये जाने का समय आ गया है तथा इसकी शुरूआत जोशी दंपत्ति और इंजीनियर जैन से होनी चाहिए। कारपोरेट जगत ने नेताओं से अपील की है लेकिन वहां से कितनी आशा की जा सकती है? जिस देश की संसद में सौ से अधिक सदस्य विवादास्पद और आपराधिक पृष्ठभूमि के हों वहां तत्काल किसी ठोस एवं सकारात्मक प्रतिक्रिया की आशा करना व्यर्थ है। यहां तो जरूरत ऊपर से नीचे तक छलनी लगाने की है। भ्रष्ट तत्वों को चुन-चुनकर अलग निकाला जायेे। उनकी अवैध संपत्ति जब्त हो, उनका मताधिकार निलंबित करें तथा उन्हें यथा शीघ्र जेल भेजने का प्रबंध हो। सवाल सिर्फ यह है कि सरकार चलाने वालों में ऐसे कितने माई के लाल हैं जो भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए ऐसे किसी अभियान की अगुआई करने सामने आ सकें।