---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
संसद की एक स्थायी समिति ने गरीबों की गणना में भारी धांधली को उजागर किया है। समिति के अनुसार गरीबी की रेखा के ऊपर (एपीएल) के ८६ प्रतिशत लोगों को गरीबी की रेखा के नीचे (बीपीएल) में शामिल कर लिया गया है। ग्रामीण इलाकों में भी स्थिति बुरी है जहां १७ प्रतिशत धनाढ्य लोगों को बीपीएल कार्ड दिये गए हैं। इस विषय पर आगे बढऩे से पहले २००८-०९ के आर्थिक सर्वेक्षण को याद करना जरूरी है जिसके अनुसार देश में ८०.५ प्रतिशत आबादी ऐसे लोगों की है जो बीस रुपये प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं। लेकिन देश में बेहद गरीबों की संख्या को लेकर आंकड़ों पर विवाद रहा है। अर्जुन सेनगुप्ता की अगुआई वाले आयोग ने कहा था कि ७७ प्रतिशत आबादी ऐसे लोगों की है जो बीस रुपये रोज पर गुजारा कर रहे हैं। इस तरह के दावों का तकनीकी आधार क्या था? इन्हें स्वीकार करने का मन नहीं हुआ लेकिन योजना आयोग द्वारा पी.तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित समिति ने पाया कि गरीबी की रेखा में जीवनयापन करने वालों की आबादी ३७ प्रतिशत है। यदि बीपीएल निर्धारण के मापदण्ड को देखें तब यह ३७ प्रतिशत वाला आंकड़ा भी हजम नहीं होता है। गरीबी रेखा का निर्धारण १९७८ में आय और खाद्य जरूरत को देखते हुए तय किया गया था। तब ग्रामीण क्षेत्रों में ६१.८० रुपये प्रतिमाह प्रतिव्यक्ति और शहरी क्षेत्र में ७१.३० रुपये प्रति व्यवित, प्रतिमाह को गरीबी की रेखा माना गया। योजना आयोग प्रत्येक वर्ष मुद्रास्फीति के आधार पर इसकी गणना करता है। वर्ष २००५-०६ में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ३६८ रुपये प्रति व्यक्ति, प्रतिमाह और शहरी क्षेत्रों के लिए ५६० रुपये प्रति व्यक्ति, प्रतिमाह को गरीबी की रेखा माना गया। इतनी आय से सिर्फ पेट की आग जैसे-तैसे शांत की जा सकती है। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी अन्य जरूरतों की पूर्ति इतनी कम राशि से नहीं हो सकती। जाहिर है कि इतनी आय पर किसी तरह जी रहे लोगों को सरकार समाज की ओर से सहारा मिलना जरूरी है। दूसरे शब्दों में कहें कि निश्चित रूप से देश के बेहद गरीब लोगों को कुछ मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहारा देना एक जिम्मेदारी भरी सोच है। लेकिन बीपीएल कार्डधारियों को रियायती दर पर खाद्यान्न, कुछ राज्यों में एक बत्ती विद्युत कनेक्शन जैसी सुविधाएं शुरू किये जाने के साथ ही इनकी संख्या बढऩे लगी। अधिकांश राज्यों में बीपीएल कार्डधारियों की संख्या बढऩे से यह संदेह मजबूत हुआ कि अपात्र लोग कतिपय शासकीय कर्मचारियों, पार्षदों, राजनेताओं और दलालों के सहयोग तथा संरक्षण से गरीबी की रेखा के नीचे जीने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाने में कामयाब हो गये हैं। ऐसी हरकत जहां अव्वल दर्जे की छिछोरी मानसिकता को दर्शाती है वहीं इसके कारण वास्तविक गरीबों का हक छिनने की आशंकाएं मजबूत होती हैं। बीपीएल आबादी में की गई गड़बड़ी का प्रमाण स्वयं संसद की समिति ने दिया है जो इस सूची में ८६ प्रतिशत लोग एपीएल के होने का दावा कर रही है। मध्यप्रदेश में एक जिला कलेक्टर ने बीपीएल सूची में फजी गरीबों की घुसपैठ को रोकने के लिए सराहनीय काम किया। उन्होंने बीपीएल सूची वाले परिवारों के मकान के बाहर उनका बीपीएल क्रमांक दर्ज करवाने के निर्देश दिये। बड़ा उत्साहजनक परिणाम सामने आया। कई लोग स्वेच्छा से आगे आए और बीपीएल सूची से अपने नाम हटवा लिये। प्रश्न यह है कि इतनी नैतिकता और साहस कितने परिवार दिखा पाएंगे? बीपीएल कार्डधारी परिवार के मकान के सामने विवरण दर्ज करना एक सही उपाय है। कोई गरीब है और सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाएं भोग रहा है, फिर उसे इस सत्य को स्वीकार करने में शर्म नहीं महसूस होनी चाहिए। उधर, सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि बीपीएल परिवार तय करते समय पुख्ता जांच हो। जान बूझकर या अनजाने में तथ्यों को छुपा या दबाकर बीपीएल सूची में आने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। आखिर बीपीएल परिवारों को मदद करदाताओं से वसूली गई रकम से ही की जाती है। ऐसे धन का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
Friday, April 8, 2011
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