----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
राष्ट्र द्रोह और नक्सलियों को राज्य के विरुद्ध लड़ाई के लिए नेटवर्क बनाने में मदद करने के आरोप में छत्तीसगढ़ की निचली अदालत से उम्रकैद की सजा पा चुके कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता, ६१ वर्षीय डॉ. बिनायक सेन ने अब राहत महसूस की होगी। देश की सर्वोच्च अदालत ने सेन को जमानत दे दी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एच.एस. बेदी और जस्टिस सी.के. प्रसाद की बेंच ने सेन को जमानत देने की वजह नहीं बताई तथा जमानत की शर्तें तय करने का काम निचली अदालत पर छोड़ दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सेन अब जेल के बाहर आ सकेंगे लेकिन निचली अदालत के फैसले के विरुद्ध आगे की कानूनी लड़ाई उन्हें लडऩी होगी। अत: सेन या उनके हमदर्दो को यह समझ में आ जाना चाहिए कि जमानत मिलना बेगुनाह साबित होना नहीं है। बिनायक सेन पर यह आरोप है कि उन्होंने एक तरह से माओवादियों के कूरियर की तरह भूमिका अदा की थी। वह एक अभियुक्त पीयूष गुहा से ३० बार जेल में मिले थे तथा उनके पास से माओवादी पर्चे और दस्तावेज मिले थे। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सेन की जमानत मंजूर करते हुए जो टिप्पणी की है वह निश्चित रूप से दूरगामी प्रभाव वाली साबित होगी। बेंच ने कहा कि सेन के पास नक्सली गतिविधियों से जुड़े दस्तावेज मिले थे लेकिन इससे आप कैसे देशद्रोह का आरोप लगा सकते हैं। अदालत ने कहा कि ‘‘ जिस तरह महात्मा गांधी की आत्मकथा रखने से कोई गांधीवादी नहीं बन जाता, उसी प्रकार नक्सली साहित्य रखने से भी कोई नक्सली नहीं बन सकता। भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। वह (सेन) नक्सलियों के हमदर्द हो सकते हैं, इससे दोषी नहीं बन जाते।’’
सेन को जमानत विशुद्ध कानूनी तर्कों के चलते मिली है। नि:संदेह महात्मा गांधी की जीवनी लेकर घूमने वाले को गांधीवादी और नक्सली साहित्य रखने वाले को नक्सली नहीं कहा जा सकता है लेकिन यहां विचारधारा और उसका प्रभाव तथा व्यक्ति विशेष की रुचि पर भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है । किसी साहित्य को कोई भी व्यक्ति उसी स्थिति में अपने पास रखता है जब उसके प्रति उसमें झुकाव हो। बिना झुकाव अथवा रुचि के साहित्य का बोझ भला कोई क्यों उठाएगा? गांधी जी की आत्मकथा गांधीवाद से प्रभावित ही अपने पास रखना चाहेगा ताकि गांधी दर्शन से सीखकर अपने देश और समाज के लिए कुछ किया जा सके। ज्ञान बढ़ाने के लिए नक्सली साहित्य को कितने लोग ढोते हैं? भले लोग किसी विचारधारा से कितने भी सहमत क्यों न हों लेकिन यदि उनमें कानून के शासन और संविधान के प्रति आस्था एवं सम्मान हो तो वे उसके विवादास्पद साहित्य से दूर ही रहेंगे। इस देश में ऐसे हजारों उदाहरण सामने आ चुके हैं जब कथित अश्लील साहित्य रखने अथवा नीली फिल्मों की सीडी लिये लोगों को पुलिस ने दबोच लिया। वे अव्वल दर्जे के व्याभिचारी मान लिये गये। आये दिन अखबारों में कॉल गल्र्स पकड़ी जाने की खबरें आती हैं। बताया जाता है कि कैसे कोई पुलिस वाला ग्राहक बनकर पहुंचा और कथित कॉल गल्र्स को पकड़ लिया गया। वहां तो बात सिर्फ देह की कीमत तक ले पाती है। धन लेकर देह समर्पण कहां सम्पन्न होता है। फिर उन लड़कियों को जेलों में क्यों डाल दिया जाता है। कुल मिलाकर स्थिति बड़ी जटिल है। यदि राष्ट्रद्रोह पर उतारु किसी प्रतिबंधित संगठन के प्रति हमदर्दी को अपराध नहीं मानेंगे तब ऐसे प्रतिबंध का अर्थ क्या रह जाएगा? प्रतिबंध का अप्रत्यक्ष उद्देश्य ही आम लोगों को ऐसे व्यक्तियों और संगठनों से दूर रखना होता है। प्रतिबंधित संगठन से हमदर्दी को अपराध नहीं मानने पर पुलिस और सुरक्षा बलों का काम जटिल हो जाता है। बहरहाल, मिस्टर बिनायक सेन के हमदर्द अब खुश होंगे। संभव है कि बताशे बांटे जा रहे हों। क्योंकि बस्तर के जंगलों में मिठाई कहां मिलेगी। बिनायक सेन को सिर्फ इतना परामर्श देना है, ‘‘अब तो सुधर जाओ’’
Wednesday, April 20, 2011
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