Monday, January 31, 2011

सरकार की ’गुल्लक’ नहीं हैं बैंक

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से आग्रह किया है कि शीतलहर, पाला और तुषार से मध्यप्रदेश में हुई फसलों की बर्बादी के मद्देनजर वह वाणिज्यिक बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को निर्देश दें कि फसल ऋण लेने वाले किसानों का बकाया ब्याज माफ किया जाए तथा ऋण का पुनर्निर्माण हो। इस संबंध में मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा है कि हमने (प्रदेश सरकार ने) सहकारी बैंकों द्वारा किसानों को दिये जाने वाले फसल ऋण का न केवल पुनर्निर्धारण किया गया है बल्कि इन बैंकों द्वारा दिये गये फसल ऋण को भी माफ करने का निर्णय लिया गया है। इस बात में संदेह नहीं कि मौसम की दगाबाजी-पाला, शीतलहर और तुषार के चलते इस बार बड़े पैमाने पर फसलों को नुकसान हुआ है। खबर यह भी है कि रसायनों के अंधाधुंध उपयोग के चलते धरती की उर्वरता क्षमता प्रभावित हुई है। कुल मिलाकर किसानों पर दो-तरफा मार पड़ी। बैंकों, वित्तीय संस्थानों और साहूकारों से कर्ज लेकर खेती करने वाले किसानों विशेषकर छोटे और सीमांत किसानों में से अधिकांश को इस दो-तरफा मार ने हिलाकर रख दिया। एक ओर कर्ज का बोझ और दूसरी ओर पेट की आग को शांत करने की चिंता ने उन्हें विचलित कर रखा है। अन्नदाताओं के समक्ष ही अन्न के लाले जैसी स्थिति है। इससे उपजे तनाव और भय के चलते कुछेक किसानों द्वारा आत्महत्या की गई है। किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के मामले प्रकाश में आने के बाद प्रदेश सरकार और इसकी मशीनरी की सक्रियता बढ़ी और इसी के तारतम्य में किसानों के कर्ज पर ब्याज माफी की बात उठ गई। सुनने में यह सुझाव संवेदनापूर्ण और काफी हद तक वाजिब लगता है। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति किसानों के महत्व को समझते हुए और उनके प्रति उपजी सहानुभूति के प्रभाव के कारण ब्याज माफी के प्रस्ताव का समर्थन ही करेगा। लेकिन, यहां बैंकों, विशेषकर वाणिज्यिक बैंकों के साथ एक व्यावसायिक पक्ष जुड़ा हुआ है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि प्रधानमंत्री कैसे बैंकों से कह सकते हैं कि वे फसल ऋण पर ब्याज माफ कर दें। व्यावसायिक बैंक अथवा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक किसी को भी कर्ज देते हैं अथवा व्यावसायिक गतिविधियां चलाते हैं उसमें खर्च होने वाला धन क्या बैंकों का होता है? इस तथ्य से सभी अवगत होंगे कि बैंकों के धन का अधिकांश भाग उनके ग्राहकों द्वारा जमा की गई रकम से आता है। इसके अलावा लोगों ने बैंकों के शेयर आदि खरीदकर निवेश कर रखा है। इसी धन से जरूरतमंद लोगों को ऋण देकर ब्याज वसूला जाता है। वसूले गये ब्याज से जमाकर्ताओं को ब्याज, निवेशकों लाभांश, बैंक का परिचालन व्यय आदि निकाला जाता है। हमारे यहां एक गलत धारणा यह है कि बैंक का धन उसका अपना है, मानो वह कुबेर का खजाना हो। जिसे देखिये इस खजाने से चुल्लु-दो चुल्लु, बाल्टी दो बाल्टी उलीचने को तत्पर है। बैंक से कर्ज लेकर डकार जाना और अन्य तरीकों से बैंक को आर्थिक चोट पहुंचाने वाले शायद जानते हों कि इससे जमाकर्ताओं, निवेशकों और राष्ट्र को चोट पहुंचाई जाती है। भारतीय बैंकिंग उद्योग के साथ यह विडम्बना जुड़ी है कि यहां सत्ताधारी राजनेता सरकारी और राष्ट्रीयकृत बैंकों को अपने घर की ’गुल्लक’ मानते हैं। जब मर्जी है गुल्लक को उल्टा करो और सिक्के निकाल लो। अतीत के बैंक कर्ज माफी मेलों को इसी क्रम में रखा जा सकता है। सरकार बताये कि कर्ज माफी मेलों से बैंकों को लगी चोट उसने कितने सालों बाद मरहम लगाया। साफ बात यह है कि कर्ज माफी या ब्याज माफी जैसी लोक लुभावन घोषणाएं होनी ही नहीं चाहिए। कर्ज लिया है तो उसे चुकाना होगा और वह भी मय ब्याज के। प्रधानमंत्री को यह घोषणा करने का अधिकार अवश्य है कि किसानों द्वारा लिये गये कर्ज के ब्याज का भुगतान सरकार बैंकों को करेगी वह भी शीघ्रातिशीघ्र। बैंकों को कुबेर का खजाना समझेंगे तब आज किसान पीडि़त हैं, कल बैंक दम तोड़ेंगे, समूची अर्थ व्यवस्था ही चरमरा जाएगी।

Friday, January 28, 2011

दो राष्ट्र सिद्धांत; दिग्विजय मत उखाडिय़े गड़े मुर्दे

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
लीजिये, अब पेश है दिग्विजयी शोध की एक और रिपोर्ट! कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा है कि दो राष्ट्र सिद्धांत के लिए पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना नहीं बल्कि वीर सावरकर जिम्मेदार थे, जिसे बाद में जिन्ना ने अपना लिया। दिग्विजय सिंह के इस बयान पर दो बातें तय हैं। एक-सभी जानते हैं कि इस बयान का उद्देश्य भाजपा, संघ अथवा हिंदु संगठनों को तिलमिला देने वाले प्रहार से अधिक एक-वर्ग विशेष तक कांग्रेस का मधुर संदेश पहुंचाना है। अब देखना यह चाहिए कि इस तरह की बातों का कितना राजनीतिक लाभ कांग्रेस को भविष्य में मिल पाएगा। दो-पिछला अनुभव बताता है कि दिग्विजय सिंह इस बार भी अपनी बात से टस-से-मस नहीं होंगे, भले ही आप इतिहास की कितनी ही किताबें और ग्रंथ लाकर उनके सामने पटक दें।
दिग्विजय सिंह के इस बयान पर भाजपा ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। भाजपा ने कहा कि कांग्रेस महासचिव अब बौखला उठे हैं। बहरहाल, यहां इस बात पर विचार करने की जरूरत महसूस हो रही है कि आज दो राष्ट्र सिद्धांत की बात छेडऩे की क्या आवश्यकता थी? मुंबई हमलों और हिंदू आतंकवाद पर दिये गये पिछले बयानों की शृंखला में यह नई कड़ी जोडऩे का प्रयास किसको खुश करने के लिए किया गया है? जाहिर है कि दिग्विजय सिंह द्वारा जारी किये इस बेदागी सर्टिफिकेट से जिन्ना की आत्मा को कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। पाकिस्तान में जारी अंदरुनी घमासान के बीच पाकिस्तानी के पास इतना वक्त नहीं है कि इस दिग्विजयी शोध पर नजर डालने की तकलीफ उठाये। सवाल यह भी है कि इस विशुद्ध सियासी वार के पीछे असल लक्ष्य क्या है? कह सकते हैं कि वीर सावरकर पर लक्ष्य साधने के पीछे कहीं न कहीं भावना मुस्लिम वोट पर कांग्रेस की पकड़ पुन: बनाने की है। वैसे विभाजन के छह दशक बाद जब पीढिय़ां बदल चुकी हैं कि यह जानने में कम ही लोगों की रुचि हो सकती है कि दो राष्ट्र सिद्धांत किसके दिमाग की उपज थी। इस बात में संदेह नहीं कि उस दौर में गुलामी से मुक्ति और आजादी का आगमन का अनुमान डेढ़-दो दशक पहले ही लोग लगाने लगे थे। भविष्य के नेतृत्व को लेकर ध्रुवीकरण की शुरूआत हो गई थी। कुछ प्रभावशाली लोगों को चिंता होने लगी थी कि आजाद ‘इंडिया’ का नेतृत्व कौन करेगा? बहुसंख्यक हिंदू या अल्पसंख्यक मुसलमान? ऐसा माना जाता है कि नेतृत्व में स्वयं और मुस्लिम समुदाय के लिए सीमित अवसरों की संभावनाओं के कारण मोहम्मद अली जिन्ना ने धर्म के आधार पर मुसलमानों के लिए अलग देश पर जोर दिया।
दरअसल, दो राष्ट्र सिद्धांत के लिए सिर्फ जिन्ना अथवा सावरकर जैसे हिंदू नेताओं को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। इसका बीज तो औरंगजेब जैसे बादशाह ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार डाल कर किया था। औरंगजेब ने मुगल शासन का इस्लामीकरण करके दोनों समुदायों के बीच संदेह और संशय शुरू किया था। कालान्तर में संदेह की खाई चौड़ी होती चली गई। अंग्रेजों ने अपने शासनकाल के दौरान हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में उलझाये रखने के लिए जो कारनामे दिखाये उसका वर्णन इतिहास की किताबों में दर्ज है। बीसवीं सदी के पहले तीन दशकों के दौरान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच से अनेक ऐसे नेता सामने आए जिन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव के लिए अथक प्रयास किये। निश्चित रूप से पाकिस्तान का जन्म दो राष्ट्र सिद्धांत के कारण संभव हो सका। लेकिन बंटवारे की वह पीड़ा क्या लोग आज तक भूल पाए हैं। उस बंटवारे से जो नुकसान हुआ वह कल्पनाओं में सीमित नहीं किया जा सकता। आज उसी बात को छेडऩा गड़े मुर्दे उखाडऩे जैसी बात है। सावरकर पर आरोप मढ़ कर क्या हासिल होगा? जिन्ना को कोसकर क्षतिपूर्ति संभव नहीं है। ऐसी हरकतें कटुता बढ़ाती हैं। आज के भारत में समुदायों के बीच सद्भाव पर जोर दिया जाना चाहिए। यह बात वोटबैंक की राजनीति के घातक तीर चलाने वाले क्या कभी समझ पाएंगे?

ईमानदारी की कीमत

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मालेगांव के अपर जिलाधिकारी यशवंत सोनावणे को तेल माफिया द्वारा जिंदा जला दिये जाने के बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठा है कि आखिर कब तक इस देश में ईमानदार अधिकारियों को अपनी जान से हाथ धोते रहना पड़ेगा? कब सरकार बेईमानों से निबटने के लिए कानूनों को सख्त करने और ईमानदार अधिकारियों की हत्या करने वालों को फांसी की सजा सुनिश्चित कर पाएगी? सोनावणे को मंगलवार को मनमाड़ के तेल माफिया पोपट शिन्दे और उसके साथियों ने कैरोसीन डालकर जिंदा जला दिया था। प्रारंभिक रिपोर्ट के अनुसार सोनावणे उस तेल माफिया के कारनामों की वीडियो शूट कर रहे थे। महाराष्ट्र में पेट्रोलियम उत्पादों में मिलावट कर हर दिन लाखों रुपयों की कमाई करने वाले तेल माफिया को काफी ताकतवर और खतरनाक माना जाता है। यह तय माना जा रहा है कि तेल माफिया के कारनामों की महाराष्ट्र सरकार को पूरी जानकारी थी। लेकिन सरकार इनसे निबटने की बजाय अब तक सोती रही। सोनावणे की हत्या के चलते आम लोगों तथा शासकीय अधिकारियों और कर्मचारियों में गुस्सा भडक़ गया है। अत: इसके बाद महाराष्ट्र सरकार को जागना ही था। वह जागी। खबर है कि राज्य में २०० स्थानों पर छापे मारे गये तथा १८० लोगों को हिरासत में ले लिया गया है। इस घटना से समाजसेवी अण्णा हजारे इतना नाराज हैं कि उन्होंने अपना मौनव्रत तोडक़र दोषियों को सरेआम फांसी देने की मांग की है। अण्णा हजारे जैसी हस्ती सोनावणे के हत्यारों को फांसी देने की मांग कर रहे हैं। इसी तथ्य से घटना को लेकर उनकी और आम लोगों की नाराजगी को समझा जा सकता है। प्रश्न यह है कि क्या सोनावणे के हत्यारों को फांसी देना संभव हो पाएगा? अनुभव इस तरह की किसी संभावना से इंकार करता है। लंबी न्याय प्रक्रिया और आजकल चल निकला ‘रेयरेस्ट इन रेयर’ के पहाड़े ने कितने ही हत्यारों को फांसी से बचा रखा है। एन.एच.आई.ए. के प्रोजेक्ट इंजीनियर सत्येंद्र दुबे और इंडियन आयल मार्केटिंग आफीसर एस.मंजूनाथन को अपनी ईमानदारी के कारण जान गंवानी पड़ी। दुबे की हत्या के मामले में तीन लोग दोषी पाये गये लेकिन उन्हें उम्र कैद की सजा हुई। वे फांसी से बच गये। मंजूनाथन की हत्या के दोषी पवन कुमार उर्फ उर्फ मोनू मित्तल को फांसी की सजा सुनाई लेकिन उसे फांसी पर लटकाये जाने के आसार कम हैं। रेयरेस्ट आफ रेयर का पहाड़ा उसे भी फांसी से बचा सकता है। पहले ही कितने ही हत्यारे दोषी ठहराये जा चुके हैं। उन्हें मृत्युदण्ड सुनाया गया। कानूनी तिकड़मों और अपीलों, क्षमायाचना अर्जी की आड़ में उन्हें फांसी से बचाया जा रहा है। जिस देश में सरकार हत्यारों को उनके अपराध के अनुसार सजा सुनिश्चित कर पा रही हो वहां हत्यारों, माफिया, अपराधी तत्वों और आतंकवादियों के हौसले बुलंद होंगे ही। मरने वाला अपनी जान से जाता है। जबकि लोगों की रक्षा और उन्हें न्याय दिलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। लेकिन हमारे यहां अपराध के अनुरूप कितनी बार न्याय सुनिश्चित हो पाया है। सोनावणे के हत्यारों को फांसी से कम सजा स्वीकार नहीं की जा सकती। वे पेट्रोलियम उत्पादों में मिलावट कर देशवासियों और राष्ट्र के साथ धोखा कर रहे थे। पकड़े जाने के भय से उन्होंने प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी को जिंदा जला दिया। इस जघन्य कृत्य के दौरान उन्हें एक पल के लिए कानून या सजा का भय नहीं हुआ? वैसे ही देश में जागरूक और ईमानदार लोग काफी कम हो गये हैं। प्रशासन में ईमानदारी दुर्लभ है। इन इने-गिने ईमानदारों को बचाने और इनका मनोबल बढ़ाने के लिए जरुरी है कि ईमानदारों को ललकारने वालों पर पूरी ताकत से हमला किया जाए। सोनावणे की आत्मा को शांति सही न्याय होने पर ही मिलेगी। सोनावणे के हत्यारों को फांसी पर लटकता देखना जरूरी है। ऐसी सजा ही कानून का खौफ पैदा कर पाएगी।

Thursday, January 27, 2011

सेना जैसी कार्रवाई हो भ्रष्ट तत्वों पर

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सुकना भूमि घोटाले में थल सेना के पूर्व उप प्रमुख मनोनीत लेफ्टिनेंट जनरल पी.के. रथ को कोर्ट मार्शल ने दोषी करार देते हुए उनकी वरिष्ठता में दो साल की कटौती का आदेश दिया है। भ्रष्टाचार के मामलों पर लगातार चिंता व्यक्त कर रहे लोगों ने कोर्ट मार्शल के आदेश का स्वागत किया है। यह आदेश उन लोगों के लिए सबक हो सकता है जो पद के मद में नियम-कानूनों को अपनी जेब में रखने का भ्रम पाल लेते हैं और भ्रष्ट और अनैतिक कृत्यों में लिप्त हो जाते हैं। यह पहला मामला है जब इतने शीर्ष स्तर के सैन्य अधिकारी को भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया। जनरल कोर्ट मार्शल ने लेफ्टिनेंट जनरल रथ को तीन आरोपों में दोषी पाया है। इनमें पश्चिम बंगाल के सुकना सैन्य केंद्र से लगे भूखंड पर शिक्षण संस्थान बनाने के लिए निजी रीयल एस्टेट व्यापारी को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करना शामिल है। अन्य आरोपों में शिक्षण संस्थान के निर्माण के लिए गीतांजलि ट्रस्ट के समझौते पर हस्ताक्षर करना और इस बाबत पूर्वी कमान में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित नहीं करना शामिल है।
लेफ्टिनेंट जनरल रथ थल सेना के पूर्व उप मुख्य मनोनीत जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहे हैं। कोर्ट मार्शल ने अपने फैसले में रथ की दो वर्ष वरिष्ठता में कटौती, पेंशन की गणना में १५ वर्षों की सेवा में कमी का आदेश देते हुए कड़ी फटकार लगाई है। इस सजा को रक्षा मंत्रालय की मंजूरी मिलने के बाद देखना यह है कि रथ का अगला कदम क्या होता है। वैसे लेफ्टिनेंट जनरल रथ की सिर्फ एक वर्ष की सेवा अवधि शेष रह गई है अत: यह मानें कि सेना से उनकी विदाई का समय आ गया है। देश में भ्रष्टाचार को लेकर इस समय सर्वत्र चिंता व्याप्त है। राजनीति से लेकर नौकरशाह बिरादरी तक भ्रष्टाचार की गंदगी में सने हुए लोग नजर आने लगे हैं। न्याय पालिका तक में भ्रष्टाचार के कैंसर के पहुंच जाने की बातें होने लगी हैं। भारतीय सेना को अब तक भ्रष्टाचार से काफी हद तक अछूता माना जाता रहा है लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल रथ के उदाहरण ने साबित कर दिया है कि भ्रष्टाचार का कैंसर हमारी सेना तक पहुंच चुका है। सेना की जिम्मेदारी राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा करने की है। आंतरिक स्थिति पर कभी पुलिस और प्रशासन का नियंत्रण नहीं रह पाता तब सेना को ही मदद के लिए बुलाया जाता है। यह कल्पना रीढ़ की हड्डी में कंपकंपी पैदा कर देती है कि यदि सेना में ही भ्रष्ट तत्व पहुंच जाएंगे तो राष्ट्र कितने दिन गुलाम होने से बचा रह सकता है?
पिछले दिनों एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार इस प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार कर रही है कि भ्रष्टाचार के आरोप में जिस शासकीय सेवक के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हो गई हो उसे तत्काल बर्खास्त किया जाना चाहिए। इस प्रस्ताव के पीछे मकसद लंबी अदालती लड़ाई का लाभ लेने से भ्रष्ट शासकीय सेवकों को रोकना है। इस आशय के निर्णय पर अमल की राह में सबसे बड़ी रुकावट राजनीतिक बिरादरी के भ्रष्ट तत्व होंगे। पिछले कुछ समय से मुख्य चुनाव आयुक्त मांग कर रहे हैं कि जिन लोगों के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल कर दिया जाए उन्हें चुनाव लडऩे से अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए। मुख्य चुनाव आयुक्त के इस सुझाव का सियासी बिरादरी से विरोध होना स्वाभाविक है। बहरहाल, यह समय केंद्र सरकार के लिए परीक्षा का है। भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के आरोपों में घिरी सरकार को साबित करना है कि वह बेदाग है और उसके इरादे अच्छे हैं। यह उसी स्थिति में संभव होगा जब भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध कड़े फैसले लिये जाएं। सेना का शीर्ष स्तर का एक अधिकारी दंडित किया जा सकता है। अत: भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों को दुरुस्त करने में कैसा संकोच?

Monday, January 24, 2011

उमर कुछ तो सियासी मर्दानगी दिखाओ

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सवाल सिर्फ यह है कि राष्ट्र ध्वज अगर अपने ही देश में नहीं फहराया जा सकता तब उसे और कहां फहराया जाए? श्रीनगर के लाल चौक पर २६ जनवरी, गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराने और श्रीनगर मार्च के भाजपा के कार्यक्रम का जिस तरह विरोध किया गया तथा भाजपा कार्यकर्ताओं को श्रीनगर जाने से रोका जा रहा वह आश्चर्यजनक और शर्मनाक है। २६ जनवरी को लाल चौक पर तिरंगा फहराने के कार्यक्रम के पीछे भाजपा का राजनीतिक उद्देश्य हो सकता है लेकिन इस कार्यक्रम का विरोध कर कांग्रेस और जम्मू कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने स्वयं ही भाजपा के उद्देश्य की पूर्ति कर दी। तिरंगा फहराये जाने की घोषणा पर पहली प्रतिक्रिया जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की आई। उन्हें लगता है कि यह अनावश्यक काम है। उमर को भय अलगाववादियों और कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी पिट्टुओं के भडक़ उठने का है। वह अपनी आशंकाएं और भय व्यक्त करने से नहीं चूके। केंद्र सरकार को अपनी चिंता से अवगत करा दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस उमर के सुर में सुर मिलाने लगी। भाजपा के ध्वजारोहण कार्यक्रम पर उमर जैसे राजनेता और अक्षम प्रशासक की चिंता समझी जा सकती है। हैरानी तो कांग्रेस द्वारा व्यक्त किये गये विरोध पर है। एक वाम नेता ने तक भाजपा के श्रीनगर मार्च का विरोध किया है। ताजा खबर यह है कि ध्वजारोहण कार्यक्रम के नाकाम करने जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार तथा केंद्र, दोनों ही सक्रिय हो गए हैं। जम्मू कश्मीर राज्य की सीमा सील कर दी गई हैं। प्रमुख प्रवेश मार्गों पर तैनात जम्मू कश्मीर सश बल के जवान तैनात हैं जो वाहनों की तलाशी ले रहे हैं। आज के अखबारों में चूहे-बिल्ली के खेल जैसा समाचार प्रमुखता से छपा है। समाचार में कहा गया है कि कर्नाटक के भाजपा के लगभग ढाई सौ कार्यकर्ताओं को ले जा रही ट्रेन रद्द कर दी गई। भाजपा वालों को श्रीनगर जाने से रोकने के लिए ऐड़ी-चोटी एक कर दी गई है। वैसे इस सच को हमें स्वीकार करना चाहिए कि लाल चौक पर तिरंगा फहराये जाने के कार्यक्रम का विरोध और इसको लेकर की गई मोर्चा बंदी की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। उमर अब्दुल्ला ने स्वयं ही भाजपा को प्रचार लूटने का मौका दे दिया है उमर से ही सवाल करना चाहिए कि भाजपा के कार्यक्रम को लेकर उन्हें किस बात की चिंता खाये जा रही थी? अरे जनाब! सियासी मर्दानगी नाम की कोई बात भी होती है। भाजपा के कार्यक्रम का विरोध करके उमर अब्दुल्ला ने स्वयं साबित कर दिया कि उनके दिमाग पर अलगाववादियों का खौफ किस हद तक है? भाजपा के कार्यक्रम को असफल करके आप आतंकवादियों और अलगाववादियों के हौसले ही बढ़ा रहा है। इससे संदेश यह जाएगा कि कश्मीर घाटी में सरकार, प्रशासन और पुलिस सिर्फ नाम के लिए हैं, वहां होता वही है जो अलगाववादी और आतंकवादी चाहते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि जिस क्षेत्र में पिछले ६ दशकों के दौरान राष्ट्र के लाखों, करोड़ रुपये लग गए और जिस क्षेत्र की रक्षा करते हजारों लोग शहीद हो चुके हैं, वहीं तमाम तरह की अड़चनें हैं। शेष भारत का कोई भी नागरिक कश्मीर घाटी में अचल संपत्ति नहीं खरीद सकता परंतु वास्तविक नियंत्रण रेखा और सीमा पार से पाकिस्तानी घुस आते और गड़बड़ी फैलाते रहते हैं। उमर अब्दुल्ला से यह सवाल करने का हक राष्ट्रवादियों को है कि आखिर क्यों वह राष्ट्रवाद के वैचारिक आंदोलन को अलगाववाद के हाथों पराजित देखना चाहते हैं? लालचौक पर तिरंगा फहराने के कार्यक्रम में कुछ गलत नहीं था? उमर की उछल कूद ने उसे अनावश्यक रूप से संवेदनशील बना दिया।

गुजरात का सच दिखाया वस्तानवी ने

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम मौलाना अहमद बुखारी और जमीयत-ए-उलेमा हिंद के नेता मौलाना महमूद मदनी इस समय दारुल ऊलूम के नये वाइस चांसलर मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी से नाराज हैं। देवबंद के नये चीफ ने गत दिवस गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हुए कहा था कि वह गुजरात के आर्थिक विकास से काफी इंप्रेस हैं। उन्होंने गुजरात के दंगा पीडि़तों के लिए चलाये जा रहे राहत कार्यों पर संतोष व्यक्त किया और कहा कि ‘‘सरकार और गुजरात के लोग इस मामले में काफी काम कर रहे हैं।’’ नि:संदेह २००२ के गुजरात दंगों से इस राज्य और स्वयं मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि देश-विदेश में प्रभावित हुई थी लेकिन पिछले आठ सालों में राज्य में कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर सरकार को जो सफलताएं मिलीं तथा गुजरात में जिस तेजी से आर्थिक विकास हुआ वह मोदी विरोधियों के लिए तक आश्चर्य का विषय है। मोदी की छवि एक सख्त प्रशासन, दूरदर्शी राजनेता और विकास का स्पष्ट खाका अपने मस्तिष्क में रखने वाले व्यक्ति के रूप में उभरी है। भारतीय कारपोरेट जगत ने मोदी सरकार के कामकाज के तरीके को सराहा है। कम-से-कम चार शीर्ष उद्योगपति खुलेआम कह चुके हैं कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य राजनेता हैं। विश्वास कर सकते हैं कि गुजरात का आम मुसलमान आज नरेंद्र मोदी के शासन में स्वयं को सुरक्षित महसूस करने लगा है । आठ साल पूर्व हुए दंगों के लिए मोदी को ही जिम्मेदार बताया जाता रहा है। हर समझदार और जिम्मेदार व्यक्ति दंगों के उस घाव को भूल जाना चाहता है। स्वयं देवबंद के वीसी वस्तानवी कह चुके हैं। ‘‘गुजरात दंगा मुद्दा आठ साल पुराना है और अब हमें आगे देखना चाहिए।’’
इन तथ्यों के बाद भी एक वर्ग रह-रहकर पुराने जख्मों को कुरेदने की कोशिश करता है। अहमद बुखारी और वस्तानवी की जानकारियों और सोच में अंतर स्वाभाविक है। कई विषयों पर उनका नजरिया भिन्न है। ऐसी स्थिति में इस बात पर विचार करना उचित होगा कि गुजरात में जो हुआ और आज वहां जो माहौल है उसके विषय में बुखारी और वस्तानवी में से किस के पास बेहतर जानकारी होगी। यहां धर्म की बात कतई नहीं की जा रही है। चर्चा का विषय विशुद्ध व्यावहारिक पक्ष है। इस दृष्टि से वस्तानवी का पलड़ा अवश्य भारी लगता है। सूरत के रहने वाले वस्तानवी एमबीए ग्रेजुएट हैं। यही तथ्य साबित करता है कि गुजरात के सच को उनसे बेहतर ढंग से उनके आलोचक नहीं देख पाए होंगे। फिर वस्तानवी राजनीति नहीं कर रहे। दूसरी ओर अहमद बुखारी एक पवित्र और ऐतिहासिक धर्मस्थल से अनेक बार ऐसी टिप्पणियां करते आए हैं जिन्हें राजनीतिक बयान कहा जाएगा। मौलाना महमूद मदनी राज्यसभा एमपी हैं ही। एक फर्क यह है कि मदनी और वस्तानवी को उदारवादी कहा जा सकता है। इसके विपरीत अहमद बुखारी के व्यवहार से दर्जनों बार महसूस हुआ मानो वे टकराव और ललकारने की मुद्रा में रहते हैं। नरेंद्र मोदी के प्रशासन की प्रशंसा का मुद्दा ही लें अहमद बुखारी ने दारूल उलूम के वाइस चांसलर वस्तानवी से इस मामले में माफी मांगने के लिए कह दिया। ऐसा लगता है कि वस्तानवी के यथार्थवादी नजरिये को अहमद बुखारी और उनसे सहमत लोग समझना नहीं चाहते। इतिहास गवाह है कि तरक्की पसंद लोग अतीत से चिपके रहने और किसी भी रूप बदला लेने या दिल में गांठ बांधे रखने में विश्वास नहीं रखते। ऐसे लोग और समाज आगे बढ़ जाते हैं। वस्तानवी मुस्लिम युवकों के लिए आधुनिक शिक्षा पर जोर देकर यह संदेश दे दिया है कि वह मुस्लिम समुदाय को अन्य समुदायों के बराबर लाने का स्वप्र संजोये हुए हैं। बुखारी साहब बतायें कि मुसलमानों की प्रगति के लिए उन्होंने स्वयं कितने प्रयास किये? आज दौर उदार आधुनिकता का है। इसमें कड़वाहट भूलनी होगी, वह चाहे अतीत की हो या बिल्कुल ताजा।

Thursday, January 20, 2011

काश, शिंगणांपुर सा हो जाए सारा देश

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
कानून एवं व्यवस्था के लिए लोगों में अनुशासन पर जोर और कानून का खौफ कितना आवश्यक है इसका प्रमाण महाराष्ट्र के शनिदेव तीर्थस्थल शिंगणांपुर में एक व्यवसायिक बैंक की तालाविहीन शाखा खुलने से मिल जाता है। शनि शिंगणांपुर में प्रतिदिन पांच से छह हजार श्रद्धालु पहुंचते हैं। शनिवार को यहां शनिदेव के दर्शन करने वालों की संख्या एक लाख तक पहुंच जाती है। मगर मजाल है कि अहमदनगर के इस छोटे से गांव में चोरी, उठाईगिरी, लूट की एक छोटी-सी भी घटना हो जाए। शनि शिंगणांपुर के घरों और दुकानों में कभी ताले नहीं लगाये जाते। मान्यता है कि उस क्षेत्र में चोरों की हिम्मत नहीं होती। उन्हें शनिदेव के कोप का खौफ रोके रखता है। इसलिए जब इस गांव में व्यावसायिक बैंक खोलने का अनुरोध यूनाइटेड कामर्शियल (यूको) बैंक को मिला तो बैंक शीर्ष प्रबंध ने तमाम सुरक्षा चेतावनियों के बावजूद वहां तालाविहीन बैंक शाखा खोलने का निर्णय ले लिया। यूको बैंक वालों से पहले अन्य बैंक शाखा खोलने के प्रस्ताव पर हाथ खड़े कर चुके थे। वे शिंगणांपुर के संबंध में मान्यता और विश्वास के कारण ताला सुविधा वाली शाखा नहीं खोल सकते थे और ताला विहीन शाखा खोलने का वे साहस नहीं जुटा पाए। यूको बैंक प्रबंधन को न्याय के देवता शनि देव के प्रभाव पर विश्वास रहा होगा अत: उन्होंने एक ऐसा प्रयोग कर दिखाया जो गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकाडर््स में दर्ज होने योग्य माना जा रहा है। इस शाखा परिसर में दरवाजे हैं लेकिन उसमें ताला नहीं लगाया जाएगा। महत्वपूर्ण दस्तावेजों और लाकर्स सुरक्षा के लिए पर्याप्त उपाय किये गये हैं। यूको बैंक द्वारा किया गया इस अभूतपूर्व प्रयोग की सफलता सभी सुनिश्चित मान रहे हैं। लोगों का कहना है कि जिसने भी बैंक प्रबंधन का विश्वास तोड़ा उसे और उसके समूचे खानदान को शनिदेव का कोप भोगना होगा। शिंगणांपुर के इस उदाहरण ने कानून एवं व्यवस्था के लिए सख्त कानून और त्वरित न्याय का महत्व प्रतिपादित सा कर दिया है। हाल के वर्षों में देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश ने नई दिल्ली में एक साक्षात्कार के दौरान कहा था कि ‘‘ अधिकांश लोगों में कानून का खौफ खत्म हो जाने से ही देश तमाम तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। यदि यह सुनिश्चित हो जाए कि कानून का उल्लंघन करने पर बचना असंभव है तब देखिये अपराधों में किस तेजी से कमी आती है।’’ उनके उपर्युक्त कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता। स्वतंत्रता के बाद से ही अनुशासन और नैतिक मूल्यों पर जोर क्रमश: कम होता चला गया। इसी के चलते भ्रष्टाचार, कानून का उल्लंघन और अपराधों का ग्राफ लगातार उठता रहा। कानून तोडऩा शान की बात समझी जाने लगी। यहां तक कि लोग यातायात नियमों तक का भी पालन करने से बचने की कोशिश करते हैं। इसका उदाहरण चौराहों पर लाल बत्ती को अनदेखा किया जाना है। ट्रैफिक पुलिस वाला रोके या कार्रवाई करे तब उसे किसी नेता और बड़े अधिकारी के नाम पर धौंस देने में पल भर देर नहीं की जाती। देश में आतंकवादी और माओवादी गतिविधियां तथा उन्हें दबे छुपे समर्थन/संरक्षण का कारण भी कानून का भय कम हो जाना है। आजादी के बाद तुरंत सामने आये जीप खरीद घोटाले के दोषियों को चौराहे पर चाबुक चिपकवाये जाते तब क्या बोफोर्स दलाली, २जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, आदर्श हाऊसिंग घोटाला जैसी ‘चोरियां’ हो पातीं? देश का धन चुराने और उसे विदेशी बैंकों में जमा कराने का साहस कोई गद्दार कर पाता? छोटे से शिंगणांपुर गांव ने शनिदेव के प्रभाव के चलते कानून के पालन और न्याय का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। कहते हैं न सख्त और न्यायप्रिय राजा ही सफल होता है। सख्त प्रशासन से सफलतापूर्वक देश चलाया जा सकता है। यह बात हमारी सरकार चलाने वालों को समझनी होगी।

छलनी लगा छान मारें भ्रष्टाचारियों को

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
आयकर छापों के शिकंजों में फंसे मध्यप्रदेश के निलंबित आईएएस दंपत्ति अरविंद जोशी और टीनू जोशी की काली कमाई पर छापा मारने और जांच करने वाले अधिकारी अचंभित हैं। जोशी दंपत्ति ने पिछले २१ सालों में साढ़े तीन सौ करोड़ की काली कमाई जुटाई है। काली कमाई और उसके निवेश की सूची काफी लंबी है। उसका उल्लेख करना जरूरी महसूस नहीं हो रहा। अब मध्यप्रदेश में ही एक इंजीनियर के यहां मारे गये लोकायुक्त छापे पर नजर डालें। नरसिंहपुर में पदस्थ लोक निर्माण विभाग के कार्यपालन यंत्री अशोक कुमार जैन के यहां से एक करोड़ ७९ लाख रुपये नकद और ९ किलो सोना जब्त किया जा चुका है। अभी उसकी और संपत्ति सामने आने की संभावना व्यक्त की जा रही है। जोशी दंपत्ति और अशोक कुमार जैन के उदाहरण इस बात का एक ओर प्रमाण हैं कि यह देश किस तरह भ्रष्टाचार के दल-दल में धंसता जा रहा है और उसे बचाने के लिए कहीं से ऐसी कोई ठोस पहल नहीं हो रही जिससे भ्रष्ट तत्वों की रीढ़ की हड्डी तक में कंपकंपी पैदा हो जाए। मध्यप्रदेश के अधिकांश अखबारों में बुधवार को जोशी दंपत्ति और अशोक कुमार जैन के कारनामे की खबर को पहले पन्ने पर प्रमुखता से स्थान दिया गया है। उक्ताशय की दोनों खबरों के साथ उद्योग जगत की हस्तियों द्वारा भ्रष्टाचार पर व्यक्त की गई चिंता को भी स्थान मिला है। एक विरले घटनाक्रम में कारपोरेट जगत की अगुआई करने वाले दिग्गजों, पूर्व न्यायाधीशों और अन्य हस्तियों ने एक खुला पत्र लिखा है। देश के नेताओं के नाम लिखे गये खुले पत्र में नेताओं से कहा गया है कि भ्रष्टाचार का मुकाबला करने के लिए तुरंत कदम उठाये जाएं, क्योंकि भ्रष्टाचार की वजह से राष्ट्र की उन्नति के लिए मिला अवसर हाथ से निकल जाने की आशंका पैदा होने लगी है। उपर्युक्त हस्तियों की चिंता बिल्कुल वाजिब है। इससे आम आदमी की चिंता और उसमें बढ़ता तनाव महसूस किया जा सकता है। आशंका यह होने लगी है कि लगभग सवा अरब की विशाल आबादी वाले इस राष्ट्र में क्या मु_ी भर ईमानदार लोग तलाशना तक मुश्किल हो जाएगा? २जी स्पेक्ट्रम, आदर्श हाउसिंग घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल में भ्रष्टाचार और मध्यप्रदेश के जोशी दंपत्ति एवं इंजीनियर अशोक कुमार जैन के मामलों को एक ही चश्मे से देखने की जरूरत है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा की थी कि भ्रष्ट तत्वों की अवैध कमाई राजसात कर ली जाएगी। भ्रष्टाचार के ताजा उदाहरणों को देखकर लगता है कि इस दिशा में तत्काल कदम उठाये जाने का समय आ गया है तथा इसकी शुरूआत जोशी दंपत्ति और इंजीनियर जैन से होनी चाहिए। कारपोरेट जगत ने नेताओं से अपील की है लेकिन वहां से कितनी आशा की जा सकती है? जिस देश की संसद में सौ से अधिक सदस्य विवादास्पद और आपराधिक पृष्ठभूमि के हों वहां तत्काल किसी ठोस एवं सकारात्मक प्रतिक्रिया की आशा करना व्यर्थ है। यहां तो जरूरत ऊपर से नीचे तक छलनी लगाने की है। भ्रष्ट तत्वों को चुन-चुनकर अलग निकाला जायेे। उनकी अवैध संपत्ति जब्त हो, उनका मताधिकार निलंबित करें तथा उन्हें यथा शीघ्र जेल भेजने का प्रबंध हो। सवाल सिर्फ यह है कि सरकार चलाने वालों में ऐसे कितने माई के लाल हैं जो भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए ऐसे किसी अभियान की अगुआई करने सामने आ सकें।

Tuesday, January 18, 2011

काली कमाई वालों का करें मुंह काला

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
अहम गोपनीय दस्तावेजों को उजागर कर अमेरिका सरकार को परेशान कर देने वाली वेबसाइट विकीलीक्स की ताजा घोषणा से दुनिया भर के कर चोरों, भ्रष्ट तत्वों और गैर-कानूनी ढंग से कमाई कर उसे विदेशी बैंकों में जमा करने वालों की नींद उड़ गई होगी। विकीलीक्स के अनुसार उसे स्विस बैंकों के दो हजार ऐसे खातों का पता चला है कि जिनमें खरबों रुपयों के बराबर की अवैध कमाई जमा है। ऐसा बताया जा रहा है कि इनमें ४० राजनेताओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रमुखों के गोपनीय खातों का भी विवरण है। उल्लेखनीय है कि विकीलीक्स की इस घोषणा के लगभग साथ एक अन्य चौंकाने वाली खबर आई । जर्मन बैंक द्वारा सौंपी गई सूची में २८ भारतीयों के नाम हैं। इन नामों का खुलासा अभी नहीं हुआ है। माना जा रहा है कि इनमें कुछ राजनेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों के नाम निश्चित रूप से होंगे।
विकीलीक्स के पिछले खुलासों से सबसे अधिक परेशानी अमेरिका को हुई क्योंकि कुछ ऐसे कड़वे सच सामने आए जिनकी जानकारी होते ही उनके प्रति अनभिज्ञता का स्वांग किया जाता था। विकीलीक्स अगर स्विस बैंक में अवैध कमाई रखने वालों के नाम सही-सही बताने में कामयाब हो जाती है तब भारत सहित कई विकासशील देशों में इसका व्यापक प्रभाव पडऩे की संभावना है। दस्तावेज बताते हैं कि विभिन्न विदेशी बैंकों में लगभग १.४ खरब अमेरिकी डालर की गैर-कानूनी कमाई जमा है। यह बहुत बड़ी रकम है। किसी कंगाल देश को मिल जाए तो वह दौडऩे लगेगा। पिछले दिनों ग्लोबल फायनेंशियल ट्रांसपरेन्सी ने दावा किया कि अकेले स्विस बैंकों में भारतीयों ने २०.८५ लाख करोड़ जमा कर रखे हैं। भारत का सकल घरेलु उत्पादन ५० से ५५ लाख करोड़ रुपये के बीच है। यह गणित आसानी से समझा जा सकता है कि स्विस बैंकों में जमा हमारे राष्ट्र के २०.८५ लाख करोड़ रुपये वापस सरकारी खजाने में आ जाएं तब न जाने कितनी विकास परियोजनाओं को गति मिल जाएगी। लेकिन यह वया इतना आसान काम है? क्या भारत सरकार में इतनी इच्छाशक्ति है? ग्लोबल फायनेंसियल ट्रांसपरेन्सी की रिपोर्ट आने से पहले से ही विपक्षी दल भाजपा विदेशी बैंकों खासकर स्विस बैंकों में जमा राष्ट्र का धन वापस लाने के लिए जरूरी कदम उठाने की मांग करती आ रही है। ऐसा नहीं लगता कि सरकार की कान में जूं रेंगी हो। निश्चित रूप से यह जटिल और लंबी प्रक्रिया है लेकिन आम आदमी की अपेक्षा सिर्फ इतनी है कि सरकार प्रक्रिया तो शुरू करे। सबसे पहले मौजूदा कानून को और सख्त बनाया जाना चाहिए। टैक्स चोरी पर सिर्फ अर्थदंड के प्रावधान से काम नहीं चलेगा। काली कमाई पर आपराधिक मुकदमा दर्ज हो, ऐसे मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रेक अदालतों से करवाई जाए, सिर्फ एक अपील का प्रावधान रखें और दोष साबित होने पर संपत्ति राजसात किये जाने के साथ-साथ जेल में डाल दिया जाए। काला धन रखने वालों को चुनाव ल$डऩे से अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए। जिस व्यक्ति का नैतिक पतन इस हद तक हो गया हो कि वह अवैध तरीकों से कमाई कर राष्ट्र के साथ विश्वासघात करे और उस कमाई को विदेशी बैंकों में जमा करवाये, ऐसे व्यक्ति को चुनाव लडऩे का अधिकार आखिर क्यों दिया जाए। ऐसे देशद्रोहियों का मताधिकार भी निलंबित किया जाना चाहिए।
बहरहाल, विश्वास करें कि विकीलीक्स की ताजा घोषणा ने विदेशी बैंकों में धन जमा करने वालों की नींद उड़ा दी है। सवाल यह है कि हमारी सरकार स्वयं जागी या वह अभी भी खर्राटे भर रही है? २जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले को लेकर आम आदमी में संप्रग सरकार की नीयत पर संदेह पैदा हो गया है। काला धन रखने वालों पर कार्रवाई करके सरकार अपने दामन में लगे भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने के आरोपों के छींटे कुछ हद तक साफ कर सकती है। काली कमाई करने वालों के मुंह काले कर उन्हें घुमाने का साहस सरकार दिखाये।

संवेदनशील मामले में भी राजनीति

-- अनिल बिहारी श्रीवास्तव
दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर दक्षिण दिल्ली के जंगपुरा में नूर मस्जिद की जमीन को दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा अपने कब्जे में लिये जाने को लेकर मुस्लिम समुदाय के लोगों की प्रतिक्रिया कुछ हद तक स्वाभाविक मानी जा सकती है लेकिन इस मुद्दे पर कतिपय राजनेताओं की उछलकूद आश्चर्यजनक है। यह विश्वास और अधिक मजबूत हुआ है कि हमारे कुछ राजनेताओं को वोट बैंक की राजनीति से हटकर सूझता ही नहीं है। वे लोगों की भावनाओं का शोषण करते समय एक पल के लिए विचार नहीं करते कि देश में कानून का शासन नाम की कोई चीज है, उनके व्यवहार से कानून एवं व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है और साम्प्रदायिक उन्माद फैल सकता है। डीडीए ने गत १२ जनवरी को उस जमीन पर बने निर्माण को ध्वस्त कर दिया था। यह एक अलग बात है कि इस कार्रवाई के कुछ घण्टों बाद ही, रातों रात उस भूखण्ड पर अस्थायी मस्जिद खड़ी कर दी गई और नूर मस्जिद नाम से एक बोर्ड लगा दिया गया। वहां तैनात पुलिस वाले कहते है कि उन्होंने ऐसा करने से लोगों को रोका था लेकिन वे नहीं माने। कितनी हैरानी की बात है कि लोग नही माने तो पुलिस वाले चुपचाप उन्हें देखते रहे। जाहिर है कि इस मामले में राजनेताओं की दिलचस्पी को देखते हुए दिल्ली विकास प्राधिकरण और पुलिस ने भी सब चलता है वाला रवैया अपना लिया होगा।
ऐसा कहा जा रहा है कि वह धार्मिक स्थल लगभग ३० वर्षो से वहां था। लेकिन इस बारे में कितने लोग मुंह खोल रहे है कि वह निर्माण वैध था अथवा अवैध? गत शुक्रवार को दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी ढहा दिये गए ढांचा स्थल पर नमाज अता की। उसके साथ मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों का वहां जाने की वजह समझ में आती है। प्रश्न यह है कि समाजवादी पार्टी के अगुआ मुलायम सिंह यादव उस समय वहां क्या कर रहे थे? यदि संवेदनशील मामलों में राजनीति में माहिर मुलायम कही धमक पड़ें ऐसी स्थिति में भला अन्य राजनेता चुप कैसे बैठेंगे? राजद के विधायक शोएब इकबाल भी ढहाए गए ढांचे की जगह पर गए और नमाज अता की। समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमरसिंह के साथ फिल्मी दुनिया से राजनीति में पदार्पण करने वाली सुंदरी जयाप्रदा आ धमकी। स्थानीय कांग्रेस विधायक तरविंदर सिंह मरवाह को पहुंचना ही था। आखिर मामला वोट बैंक का जो है।
इन घटनाक्रमों के बीच एक नई और साहसिक बात यह हुई कि जंगपुरा रेजिडेंटस एसोसिएशन ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू करने की मांग की है। यहां शेष राजनेताओं की बात करके उनका अनावश्यक रूप महत्व नहीं बढ़ाना चाहते लेकिन मुलायम सिंह यादव आखिर कब क्षुद्र स्वार्थो के लिए स्तरहीन राजनीति से मुक्त हो पाएंगे? मुलायम सिंह यादव को यह भ्रम हो गया है कि अपने पुराने सियासी हथकंडों के बूते वह उन मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने में सफल हो जाएंगे जो पिछले चुनावों मे सपा को ठेंगा दिखा चुके हैं। लंबी राजनीतिक पारी के बावजूद उनका कुलाटी खाना जारी है। मुलायम ऐसा कोई मौका नही छोडऩा चाहते जिससे वह मुस्लिम मतदाताओं के प्रति अपनी वफादारी साबित कर सकें। वैसे उन का पी.आर. कमजोर है। उन्हें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि उनके पुन: बदलते व्यवहार और हथकंडों पर आम आदमी क्या सोच रहा है। मुलायम की गिरगिटिया राजनीति से मुस्लिम मतदाता परिचित हो चुका है।

जुबानी बल्लेबाजी और दादागिरी

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
कोलकाता से खबर आई है कि कोलकाता नाइट राइट्र्स द्वारा पूर्व भारतीय क्रिकेट कप्तान सौरभ गांगुली को आईपीएल-४ सत्र के लिए नहीं खरीदे जाने से गांगुली के प्रशंसक नाराज हैं। सौरव गांगुली के प्रशंसकों के संगठन ने कह दिया है, ‘‘नो दादा नो केकेआर।’’ उन्होंने सडक़ों पर प्रदर्शन का कार्यक्रम तय कर रखा है। यह ज्ञात नहीं हो पा रहा है कि अपने प्रशंसकों की नाराजगी और उनके तेवरों पर स्वयं सौरव गांगुली क्या राय रखते हैं लेकिन उन्हें इस बात के लिए खुश होना चाहिए कि देश के कुछ पूर्व दिग्गज खिलाड़ी और ताकतवर राजनेताओं ने सौरव गांगुली की ओर से जुबानी बल्लेबाजी शुरू कर दी है। शिवसेना नेता बाल ठाकरे ने गत दिवस ‘सामना’ में अपनी सम्पादकीय में कोलकाता नाइट राइड्र्स के फ्रैंचाइजी, अभिनेता शाहरुख खान को अपने अंदाज में गरियाया। ठाकरे को शिकायत है कि शाहरूख ने पिछले सत्रों में खूब धन कूटा अब गांगुली जैसे बेहतरीन खिलाड़ी को दूध में गिरी मक्खी की तरह निकाल बाहर फेंका। भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान तथा धाकड़ आल राउंडर कपिल देव भी सौरव गांगुली के नहीं बिक पाने पर हैरान हैं। उधर, लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी इस बात को लेकर स्तब्ध हैं कि सौरव गांगुली जैसे हीरे को आईपीएल के १० फ्रैंचाइजी में से किसी ने भी नहीं खरीदा। स्वयं माकपाई राजनीति से पीडि़त सोमनाथ चटर्जी को सौरव गांगुली की पीड़ा का अहसास होगा।
आईपीएल चौथे सत्र के लिए सौरव गांगुली के नहीं बिक पाने के पीछे दर्जनों कारण गिनवाये जा सकते हैं। इस विषय में काफी कुछ लिखा और बोला जा चुका है। कुछ लोग इसे शाहरुख द्वारा किया गया विश्वासघात बता रहे तो वहीं कुछ को आईपीएल बोली में गहरी राजनीतिक साजिश की गंध तक महसूस हो रही है। कोलकाता नाइट राइड्र्स की ओर से सफाई दे दी गई है कि गांगुली का प्रदर्शन भले ही संतोषजनक रहा हो लेकिन इस बार खिलाडिय़ों को खरीदते समय जीत की संभावनाओं को ध्यान में रखा गया। यह स्पष्टीकरण तर्क संगत है। जब आप कोई काम पूरे व्यवसायिक दृष्टिकोण के साथ करते हैं, ऐसी स्थिति भावनाओं और भावुकता के बहाव से बचा जाता है। आईपीएल फैंचाइजी ने खिलाड़ी खरीदते समय इसी बात पर जोर दिया। नि:संदेह सौरव गांगुली का अतीत कीर्तिमानों से भरा पड़ा है तथा उनकी गणना दुनिया के सफलतम क्रिकेट कप्तानों में होती है। आज स्थिति उससे उलट है। पिछले कुछ समय से वह क्रिकेट को पूर्व की तरह समय नहीं दे पा रहे। फटाफट क्रिकेट के लिए जरूरी समझ बूझ और स्टेमिना में फ्रैंचाइजी महसूस कर रहे थे। फिर उनका ऊंचा दाम एक अड़चन बन गया। शाहरुख खान समझ रहे हैं कि सौरव गांगुली को नहीं लेने से कोलकाता में सौरव समर्थक हंगामा कर सकते हैं। शायद इसीलिए उन्होंने सौरव गांगुली के समक्ष मेंटर बनने का प्रस्ताव रखा था। दादा की कोलकाता में दादागिरी से वाकिफ लोग जानते हैं कि उनका अहं सबसे बड़ी अड़चन रहा है। एक पल के लिए शाहरुख खान पर लगाये जा रहे आरोपों का सच मान लें लेकिन विचार करें कि शेष फैंचाइजी ने गांगुली को क्यों नहीं खरीदा? आईपीएल खेल में व्यवसाय है। टीम खरीदने वालों का उद्देश्य धन कमाना है। वे जोखिम क्यों उठाना चाहेंगे? आप गांगुली के प्रशंसक है इससे आपको यह अधिकार नहीं मिल जाता कि अपने प्रिय खिलाड़ी को खरीदने के लिए आप किसी व्यवसायी पर दबाव डालें। यह तो जबरन की दादागिरी हुई।

Friday, January 14, 2011

एक ही थैली के चट्टे-बट्टे

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
२६ जनवरी, गणतंत्र दिवस पर श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भारतीय जनता पार्टी के कार्यक्रम को भले ही राजनीति निरुपित किया जाए लेकिन भाजपा के इसके विरोध में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मोहम्मद यासिन मलिक की धमकी को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। मोहम्मद यासीन मलिक ने कहा है कि २६ जनवरी को लाल चौक पर झंडा फहराया गया तो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आग लग जाएगी। हैरानी इस बात को लेकर है कि जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक ने भाजपा को उक्त ध्वजारोहण कार्यक्रम को रद्द करने के लिए कहा है। उमर अब्दुल्ला को आशंका इस बात की है कि तिरंगा फहराये जाने से कश्मीर घाटी के अलगाववादी बवाल मचा सकते हैं। भाजपा नेतृत्व को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने के लिए मुख्यमंत्री ने वरिष्ठ नेता अटल बिहारी बाजपेयी के नाम का सहारा लिया है। उमर अब्दुल्ला का कहना है कि भाजपा नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने कभी कट्टरपन नहीं दिखाया, अत: भाजपा को उसी लाइन पर चलना चाहिए। भाजपा के तिरंगा ध्वजारोहण के विरोध में न तो यासीन मलिक की धमकी पर आश्चर्य हुआ और ना ही उमर अब्दुल्ला की प्रतिक्रिया विशेष प्रभाव डालने वाली लगी। इन दोनों की लाइन और रणनीति अलग है। वे अपने व्यापक राजनीतिक और गैर-राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर ही ऐसी बातें बोल रहे हैं। इस घटनाक्रम के बीच मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की प्रतिक्रिया को आप कैसे खारिज कर सकते हैं? चौहान ने उमर अब्दुल्ला और विवादास्पद लेखिका अरुंधति राय को एक ही तराजू में तौलते हुए इन दोनों के लिए सही जगह जेल बताई है। एक राष्ट्रवादी नागरिक से इसी तरह की प्रतिक्रिया की आशा की जाती है। विचार करें कि यासीन मलिक, उमर अब्दुल्ला और अरुंधति राय की सोच में अंतर कितना है? यासीन मलिक घोषित अलगाववादी नेता है। इस लोकतंत्र में मिली जरूरत से ज्यादा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते मलिक जैसे नेता दिल्ली से कोलकाता तक हमारे देश, हमारे सुरक्षा बलों और हमारी सरकारों के विरुद्ध जुबान चलाते दिख जाते हैं। तिरंगा फहराने पर समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में आग लग जाने की धमकी देने वाले ऐसे व्यक्तियों को हम झेल क्यों रहे हैं? यही बात अरुंधति राय जैसी सिरफिरी महिला के विषय में कही जा सकती है। माओवादियों और कश्मीरी अलगाववादियों के प्रति अरुंधति राय के प्रेम पर चुप रह जाना ठीक नहीं है। इस महिला को माओवादियों के बीच जंगलों में छोड़ दिया जाए या फिर यह महिला कश्मीरी अलगाववादियों के बीच साथ रहे। दोनों स्थितियां संभव नहीं होने पर लेखिका को जेल में डालना ही Ÿोष्ठ विकल्प होगा। उमर अब्दुल्ला एक नाकाम मुख्यमंत्री साबित हो चुके हैं। इसे उमर की असफलता ही मानें जो अलगाववादी तत्व सन् २०१० में लगभग ६ माह तक सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करवाने में कामयाब होते रहे। वैसे भी कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग नहीं बताकर उमर अपनी अक्ल का प्रमाण दे चुके हैं। अब लाल चौक पर भाजपा के ध्वजारोहण कार्यक्रम का विरोध कर उमर अलगाववादियों के समक्ष अपना दब्बू चरित्र उजागर कर बैठे। जाहिर है कि या तो उमर अब्दुल्ला को अपने प्रशासन, पुलिस के अलावा सुरक्षा बलों की क्षमताओं पर भरोसा नहीं है या फिर वह अलगावादियों के हथकंडों से आतंकित हैं। ऐसे अटल सत्य के सामने यासीन मलिक, उमर अब्दुल्ला और अरुंधति राय के बीच भेद करना कठिन प्रतीत हो रहा है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने उमर और अरुंधति के संबंध में जो कहा उसमें गलत क्या है? दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं।

अन्नदाताओं को अनाज के लाले

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मध्यप्रदेश में पिछले कुछ दिनों में किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने और आत्महत्या के प्रयासों के समाचारों ने समूचे देश का ध्यान एक बार फिर किसानों की समस्याओं की ओर खींचा है। यह सोचने पर हम विवश हुए हैं कि आखिर क्या कारण है जो सरकार चलाने वाले लोग अन्नदाताओं को ही भूखों मरने या उन्हें आत्महत्या जैसा कदम उठाने से नहीं रोक पा रहे हैं। हालांकि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने अथवा उनके आत्महत्या के प्रयासों को गंभीरता से लेकर कुछ कदम उठाते हुए प्रशासन को निर्देश दिये हैं लेकिन अभी उन निर्देशों का पालन और उसके प्रभाव का ऑकलन होना शेष है। हैरानी की बात कि इस कृषि प्रधान देश का कृषक ही सैकड़ों समस्याओं से जूझ रहा है। पहले महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके और कर्नाटक के किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के प्रति आमजन में नाराजगी काफी बढ़ी है। एक अनुमान के अनुसार इस देश में १९९७ से अब तक लगभग दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के जो प्रमुख कारण सामने आते रहे हैं उनमें आर्थिक तंगी, मौसम की मार के चलते फसलों के बर्बाद हो जाने, बैंकों और निजी स्रोतों से लिये गये कर्ज की अदायगी नहीं कर पाने, बिजली और पानी की अपर्याप्त आपूर्ति, घटिया बीज और नकली खाद आदि के कारण पर्याप्त फसल नहीं आ पाना आदि हैं। आज एक ओर विश्व के अधिकांश भागों में जब कृषि में वैज्ञानिक साधनों का उपयोग कर भरपूर उत्पादन प्राप्त किया जा रहा है, ऐसे दौर में भारत के दो-चार राज्यों को छोडक़र शेष सभी स्थानों पर किसान परम्परागत साधनों के साथ बंधा हुआ है। कितने ही राज्यों में बिजली के खम्बे खड़े और तार खिंचे दिख जाते हैं। लेकिन विद्युत आपूर्ति चार-छह घंटे भी नहीं हो पाती। विशेषज्ञों का मानना है कि विश्व व्यापार संगठन की मुक्त व्यापार नीतियों की मार भारतीय किसानों पर पड़ी है। कृषि उत्पादों के दाम इतने टूटे कि वे लागत तक नहीं निकाल पाते। उस पर बीज बिक्री से लेकर उत्पादन, वितरण तक में वैश्विक कारपोरेट की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष घुसपैठ ने किसानों को विचलित कर दिया है। इसके अलावा बिचौलियों ने उनके लाभ पर अलग डाका डाल रखा है। यह सुनिश्चित माना जाए कि इस देश में कम से कम सात राज्यों का किसान लगातार तनावग्रस्त रहता है। इनमें छोटे और सीमान्त किसानों की स्थिति अधिक खराब है। दरअसल, सरकारी तंत्र की ओर से सहयोग, समर्थन और मार्गदर्शन नहीं मिलने से ९५ प्रतिशत किसान समस्याओं से अकेले जूझते हैं। सफल हो गये तो ठीक वरना असफलता उनमें निराशा, कुण्ठा और तनाव पैदा करती है। सर्वेक्षण करा लिया जाए किस राज्य सरकार अथवा केंद्र ने किसानों की समस्याएं जानने स्थानीय निकायों, पंचायतों ,गैर सरकारी संगठनों से कभी कोई सीधी बात की? किसानों के लिए बनी कल्याणकारी योजनाओं, सहायता योजनाओं का लाभ किसानों तक कितना पहुंच पा रहा है? किसानों को बैंक ऋण सहायता राज्य सरकार की गारंटी पर मिलनी चाहिए। किसानों को छोटे-छोटे समूहों में खेती करने के बजाय समूह में सहकारिता के तहत खेती करने के लिए प्रेरित किया जाना एक अच्छा विकल्प हो सकता है। इससे उत्पादन लागत घटने में मदद मिलेगी। दरअसल, खेती को एक फलदायी और आकर्षक पेशे के रूप में पुन: स्थापित किये जाने की जरूरत है। यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह खेती को आकर्षक कैसे बनायें। अन्नदाताओं को ही अनाज के लाले हों, हम कैसे चुपचाप बर्दाश्त कर सकते हैं।

Tuesday, January 11, 2011

खोटे सिक्के नहीं चलते आईपीएल में

-अनिल बिहारी श्रीवास्तव
यह बात सुनिश्चित रही है कि इंडियन प्रीमियर लीग के चौथे सत्र के लिए नीलामी में शामिल साढ़े तीन सौ खिलाडिय़ों में से एक सौ खिलाडिय़ों को नहीं बिक पाने के कड़वे सच का सामना करना होगा लेकिन कम ही लोगों ने कल्पना की होगी कि सच की यह कड़वी गोली कल के दिग्गज सौरव गांगुली, सनथ जयसूर्या और ब्रायनलारा जैसों के भाग्य में लिखी थी। आईपीएल चौथे सत्र में भाग लेने वाली दस टीमों के लिए ढाई सौ खिलाडिय़ों की नीलामी होनी है। नीलामी के पहले दिन यह उलटफेर देखने में आया कि बॉलीवुड सुपर स्टार शाहरुख खान ने अपने पूर्व कप्तान सौरव गांगुली और कैरिबियाई बल्लेबाज क्रिस गेल से पीछा छुड़ा लिया। शाहरुख ने अपनी टीम कोलकाता नाइटराइड्र्स के लिए गौतम गंभीर को ११.०४ करोड़ में खरीदकर अपने तेवरों का अहसास करा दिया। शाहरुख ने सौरव गांगुली तक यह संदेश पहुंचा दिया कि वह उनके स्तरहीन प्रदर्शन को सिर्फ इसलिए नजरअंदाज नहीं कर सकते क्योंकि वह कल के क्रिकेट सुपरस्टार रहे हैं। सौरव गांगुली जैसी स्थिति का सामना करने वालों में ब्रायन लारा और सनथ जयसूर्या के अलावा क्रिसगेल, जेसी राइडर, हर्शल गिब्स, मैट प्रायर, मार्क बाउचर, लक राइट, जेम्स एडरसन और कपुगेडरा के नाम सामने आए हैं। दरअसल, सौरव गांगुली और ब्रायन लारा का पहले दिन ही नहीं बिक पाना सीनियर और जूनियर क्रिकेटर खिलाडिय़ों के लिए एक सबक है। भविष्य में दौलत और शोहरत कमाने की कामना रखने वाले खिलाडिय़ों को आज ही कुछ बातें अपने दिमाग में बैठा लेनी चाहिए। मसलन, आईपीएल टीमों के फ्रैंचाइजी इमोशनल कम और प्रोफेशनल अधिक है। वे उन्हीं घोड़ों पर दाम लगाएंगे जो दौड़ें, फिर दौड़ में वह भले अव्वल न हो किन्तु उसे फिसड्डी भी नहीं होना चाहिए। दूसरा सबक यह है कि सीनियरिटी के गुरूर में मैदान से बाहर नहीं रहिये। लगातार खेलते रहें। छोटे मुकाबलों में उतरने में संकोच और झिझक न हो। बल्लेबाजी क्रम को लेकर रवैया अडिय़ल नहीं हो। आप विनम्र रहें। ज्यादा अहम और टकराव खेल के लिए जरूरी एकाग्रता को भंग करता है। आईपीएल जैसे विशुद्ध व्यावसायिक खेल आयोजन में जगह पाने के लिए अपनी मौजूदा क्षमताओं के अनुरूप कीमत की अपेक्षा की जानी चाहिए। सौरव गांगुली और ब्रायन लारा के संदर्भ में यह बात नकारात्मक पाई गई कि उन्होंने अपनी न्यूनतम मांग बहुत अधिक रखी थी। गांगुली अपने झूठे अहंकार से मुक्त होकर स्वयं ही रेट कम कर लेते तब संभव था कि दस टीम के मालिकों में से कोई न कोई उनके नाम पर पहले दिन ही विचार कर लेता। सीमित बीस-बीस ओवरों वाले आईपीएल मैचों ने लगभग समूची दुनिया में धूम मचा दी है। इस प्रतियोगिता का पेशेवराना अंदाज लगभग समूची क्रिकेट दुनिया के दिग्गजों को आकर्षित करता है। इस फटाफट क्रिकेट ने खेल की दिशा और दशा बदलकर रख दी। कम ही लोगों ने कल्पना की होगी कि भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड का यह प्रयोग इतना सफल होगा। इसमें खेलने वाले खिलाड़ी मालामाल हो रहे, इसकी टीम के मालिकों के खजाने ठसाठस भरे हैं, क्रिकेट बोर्ड की पांच अंगुलियां घी में और सिर कढ़ाई में नजर आ रहा एवं विज्ञापन दाता जमकर कमाई कूट रहे। सबसे बड़ी बात यह है कि दुनिया भर के क्रिकेट प्रेमी आईपीएल के दौरान गजब के बौराये से नजर आते हैं। क्रिकेट और कमाई के लिए ऐसी दीवानगी पहले कभी कहां देखी गई थी? सच यह है कि सीमित पचास ओवरों के एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों के शुरूआती दिनों में देखा गया क्रेज तक आईपीएल के सामने आज फीका नजर आता है। आईपीएल का रुतबा भविष्य में बढ़ता ही जाएगा । लेकिन टीमों के लिए खरीदे गए खिलाडिय़ों को एक बात समझ लेनी चाहिए जो व्यावहारिक होगा और अच्छा खेल सकेगा, वही चलेगा। अन्यथा कल सौरव गांगुली जैसी स्थिति का सामना उन्हें भी करना होगा।

Monday, January 10, 2011

कहां जा रहीं हमारी गोरैया ?

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
अंतरराष्ट्रीय संरक्षण संघ की रेड लिस्ट के अनुसार भारत में पक्षियों की ८२ प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। पक्षियों की लगभग सवा बारह सौ प्रजातियां इस देश में पाई जाती हैं। जिन पक्षी प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बताया जा रहा है उनमें सफेद सिर वाली बतख, कैरिना, स्कल, चुलाटा, ग्रेड इंडियन बस्टर्ड, बेंगाल फ्लोरिकन, लेजर फ्लोरिकन और जिप्स इंडिकस प्रजातियां शामिल हैं। इनमें से पक्षियों की कुछ प्रजातियां देखने को भी नहीं मिलतीं। कभी किसी का ध्यान इस बात पर नहीं जा रहा है कि खतरा पक्षियों अकेले पर नहीं मंडरा रहा है। पक्षी या वन्य जीवों का अस्तित्व खतरे में है तो यह तय मानें कि मनुष्य का भविष्य भी सुरक्षित नहीं है। पिछले दिनों कम-से-कम चार बड़े अखबारों में पक्षियों की घटती संख्या पर आंखें खोल देने वाले लेख प्रकाशित किये थे। तथ्यों के आधार पर बताया गया था कि आज हमारे आसपास दिखते रहे कौये, गिद्ध, गोरैया चिडिय़ा, तोते और फाख्ता अचानक बहुत कम हो गये हैं। यहां गिद्धों की संख्या में इतनी गिरावट आई है कि लंदन तक में उसको लेकर चिंता व्यक्त की गई। अब पितृपक्ष में कौये देख लेना भाग्य की बात हो गई है। तोतों के झुण्ड आकाश में कहां दिखाई देते हैं? बगुलों को मांस प्रेमियों से खतरा बढ़ा है। सबसे बड़ी बात हमारे घरों के आसपास फुदकने वाली नन्हीं चिरैया-गोरैया तक काफी कम हो गई हैं। गोरैया उन इने-गिने पक्षियों में से एक है जिसे मनुष्य बस्तियों में मनुष्यों के बीच फुदकते देखा जाता रहा है। कितने लोगों ने महसूस किया कि अब पहले जैसे गोरैया नहीं दिखतीं।
अंतरराष्ट्रीय संरक्षण संघ ने पक्षियों के विलुप्त होने के लिए जो कारण गिनाये हैं उनमें जंगलों की तेजी से कटाई, पक्षियों का शिकार, पक्षियों के प्राकृतिक आवासों में बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप तथा कृषि बागवानी में कीटनाशकों का अंधाधुंध उपयोग शामिल है। एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने व्यापक अध्ययन के बाद उन कारणों को गिनाया जो पक्षियों की हत्या के लिए जिम्मेदार पाए गए। बीस वर्षों तक किये गये अध्ययन के अनुसार कांच की खिड़कियों और दरवाजों से टकराकर हर साल १० से लेकर ९० करोड़ पक्षी मर जाते हैं। पश्चिमी देशों में बिल्ली पालने का शौक बहुत देखा जाता है। हर साल ७० लाख पक्षियों को पालतू बिल्लियां मार डालती हैं। विश्व भर के हाइवेज पर ५ से १० करोड़ पक्षी कारों ट्रकों की चपेट में आकर मारे जाते हैं। विद्युत पारेषण लाइनें, कृषि में कीटनाशकों के उपयोग, नगरों बस्तियों में विकास के लिए वृक्षों की कटाई, टेलीकॉम के संचार टावरों, वाहनों और कारखानों के कारण बढ़ रहे प्रदूषण, अवैध शिकार, बिजली लाइनों और व्यावसायिक मत्स्य दोहन कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जो हर साल करोड़ों पक्षियों का सफाया कर रहे हैं।
पक्षियों के साथ समस्या यह है कि मनुष्यों में बहुत थोड़े लोगों को ही परिस्थितिकी असंतुलन मेंं पक्षियों की भूमिका का महत्व मालूम है। सरकार चलाने और चलवाने लोगों को पक्षियों पर संकट की परवाह ही नहीं है। थोड़ी सी सक्रियता और सख्ती से पक्षियों को बेमौत मरने से बचाया जा सकता है। शहरीकरण में आज खड़े हो रहे कांक्रीट जंगलों के बीच एक पल के लिए पक्षियों के विषय में विचार होना चाहिए। आवासीय परिसरों में उद्यान अनिवार्य हो तथा कम से कम पांच बड़े वृक्ष लगाने के स्पष्ट निर्देश हों। बहुमंजिली इमारतों, अपार्टमेंट के चारों ओर वृक्षारोपण करने के साथ ही कुछ ऊंचाई तक ऐसी दीवार बनाई जाए जिसमें पक्षियों को घोंसले बनाने के लिए छोटे-छोटे चैम्बर हों। दरअसल, बच्चों में पशु -पक्षियों के प्रति प्रेम की भावना को बढ़ा कर इन मूक प्राणियों के संरक्षण में योगदान दिया जा सकता है। आप अपना घर बनाने के लिए वन्य जीवों और पक्षियों के प्राकृतिक आवास उजाड़ते जा रहे हैं। इससे परिस्थितिकी डगमगाने की ओर है। यह तय मानें कि इसका मानवीय जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। आज उनकी तो कल हमारी बारी है।

निकम्मी सरकारें, धूर्त राजनेता और बांग्लादेशी घुसपैठिये

(-अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
बड़ी हैरानी हुई, जब कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा असम में दिये गये बयान एक को पढ़ा। दिग्विजय सिंह ने इस विवादास्पद दावे को खारिज किया है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण असम की आबादी में असंतुलन आ गया है। बकौल दिग्विजय, ‘‘असम में १९९१ में जनगणना हुई ही नहीं थी। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का अनुपात १९८१ और २००१ की जनगणना के अनुसार है।’’ वह कहते हैं कि असम की स्थिति अन्य राज्यों से बहुत अधिक भिन्न नहीं है। कांग्रेस महासचिव ने यह भी कहा, कोई भी बांग्लादेशी जो भारत आया और बिना उचित औपचारिकताओं को पूरा किये यहां रह रहा है उसे अवैध आप्रवासी मानना होगा। दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि भारतीय जनता पार्टी आप्रवासियों के बीच हिन्दू और मुस्लिम जैसा भेद करने की कोशिश कर रही है।’’ कांग्रेस महासचिव के बयान पर आगे कुछ कहने से पहले जरुरी यह है कि असम में अवैध आप्रवासियों के संदर्भ में भारतीय जनता पार्टी के विचारों में आए ताजा बदलाव पर नजर डाली जाये। भाजपा ने सोमवार को चुनाव आयोग को ज्ञापन सौंपते हुए मांग की है कि असम विधानसभा के चुनाव से पूर्व राज्य की मतदाता सूचियों से बांग्लादेश से घुसपैठ कर आ बसे अवैध आप्रवासियों के नाम हटाये जाएं। भाजपा की यह मांग बहुत जायज है लेकिन भाजपा में असम के राजनीतिक मामलों को देखने वाले प्रभारी विजय गोयल ने अपनी टिप्पणी से कांग्रेस को स्थिति का लाभ उठाने और पलटवार का अवसर दे दिया। गोयल का कहना है कि मतदाता सूची में हिन्दू बांग्लादेशियों के नाम पर भाजपा को आपत्ति नहीं है। भाजपा की आपत्ति मुस्लिम बांग्लादेशियों के नामों पर है।
बांग्लादेश से घुसपैठ, घुसपैठियों को यहां मिल रहे संरक्षण और अब उनको लेकर चल रही वोट बैंक की राजनीति गंभीर विषय है। असम में कांग्रेस और पश्चिम बंगाल में वामदलों पर बांग्लादेशियों को संरक्षण देने के आरोप लगते रहे हैं। राजनीतिक स्वार्थों के चलते असम और पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों तथा केंद्र सरकार में बैठे लोग सियासी अंधों जैसे बने रहे। आज बांग्लादेश से लगे असम के कई इलाकों में आबादी में असंतुलन आ गया है। इस असंतुलन को कोई जनगणना नहीं होने का नाम लेकर स्वीकार नहीं करता है। तब वह राष्ट्र और हमारी आने वाली पीढियों के साथ गद्दारी कर रहा है। इसी तरह धर्म के आधार पर अवैध आप्रवासियों के बीच भेद करना भी क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए राष्ट्र के साथ विश्वासघात जैसी बात है। अवैध आप्रवासियों के प्रति ऐसी नरमी, उन्हें संरक्षण दिये जाने और उनके आगे राष्ट्रहित को हाशिये में डालने का निकृष्टतम उदाहरण हमारे राजनीतिक दल और राजनेताओं ने पेश किया है। संभवत: समूची दुनिया में कहीं और ऐसे उदाहरण देखने में नहीं आते होंगे। इस समय लगभग ढाई करोड़ बांग्लादेशी भारत में अवैध रूप से रह रहे हैं। इनके कारण हमारे संसाधनों पर भारी दबाव पड़ रहा है। हमारे सामाजिक ताने-बाने पर खतरा मंडरा रहा है। आंतरिक सुरक्षा पर खतरा महसूस होने लगा है।
पिछले चालीस सालों से बांग्लादेशी नागरिकों की घुसपैठ की समस्या पर चिंता व्यक्त की जा रही है। एक समूची पीढ़ी बूढ़ी हो गई लेकिन निकम्मी सरकारें और धूर्त राजनेता इस घुसपैठ को रोक नहीं पाये। राष्ट्र के साथ ऐसी मक्कारी पर भला किसे कोफ्त नहीं होगी? एक विचित्र बात यह देखी गई कि जब कभी किसी ने बांग्लादेशियों की घुसपैठ का मामला उठाया, वोट के सौदागरों ने इसे भारतीय मूल के बंगाली मुसलमानों के विरुद्ध साजिश नाम दे डाला। यह खेल रुकने का नाम नहीं ले रहा। प्रत्येक विधानसभा और लोकसभा चुनाव के पूर्व अवैध आप्रवासियों का मुद्दा जोड़ पकड़ लेता है। इस बार भी वही नजारा देखने में आ रहा। कांग्रेस और भाजपा दोनों से ही सवाल किया जा सकता है, ‘‘आखिर घुसपैठियों की आड़ में वे कब तक राजनीति की रोटियां सेंकेंगी ? अवैध आप्रवासियों के नाम मतदाता सूचियों से हटाने मात्र से समस्या का हल नहीं निकलेगा। टुच्ची राजनीति छोडक़र इन दोनों राजनीतिक दलों को चाहिए कि घुसपैठियों को पहचान कर उन्हें वापस उनके देश में खदेडऩे के उपायों पर विचार करें।

Monday, January 3, 2011

शिक्षा का कबाड़ा करने पर उतारू सरकार

(- अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
यह खबर सुनने में अच्छी लगी होगी कि देश में इंजीनियरिंग संस्थानों में दो लाख और प्रबंधन संस्थानों में पौने दो लाख सीटें बढ़ा दी जाएंगी। इस समय देश में तकनीकी शिक्षा दे रहे आठ हजार संस्थानों में इंजीनियरिंग की चार लाख और प्रबंधन की साढ़े तीन लाख सीटें हैं। लेकिन पिछले दो तीन सालों के दौरान देखा यह गया कि कई राज्यों में बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग और कुछ हद तक प्रबंधन की सीटें खाली जा रही हैं। पी.ई.टी मे फिसड्डी रहे छात्रों तक को इंजीनियरिंग कालेजों में प्रदेश दे दिया गया। सीटें भरने के लिए अनेक इंजीनियरिंग कालेजों ने अघोषित रूप से पहले वर्ष की शिक्षा नि:शुल्क तक देने का ऑफर दे दिया। आश्चर्य यह जानकर हुआ कि ऐसे लुभावने प्रस्ताव तक छात्रों को अधिक आकर्षित नहीं कर पाए। शिक्षाविदों का मत है कि इंजीनियरिंग पढ़ाई के प्रति कम होते रूझान की एक वजह कुछ ब्रांचों मे रोजगार की कम होती संभावनायें हैं। एक कारण यह भी है कि कुकरमुत्तों की तरह ऊग आए इंजीनियरिंग कालेजों में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की कमी है। अधिकांश इंजीनियरिंग कालेजों में पर्याप्त, कुशल और सक्षम शिक्षकों की भारी कमी है। नतीजा यह है कि अधकचरा ज्ञान लेकर निकल रहे इंजीनियरों को या तो अल्पवेतन वाली नौकरियां करनी पड़ रही हैं या फिर वे अर्जित ज्ञान से विपरीत पेशे में रोजगार तलाश रहे या बेरोजगारी से जूझ रहे हैं। कमोवेश यही स्थिति प्रबंधन पाठ्यक्रम चला रहे शिक्षण संस्थानों की बताई जाती है। उपर्युक्त सत्य को सामने रखकर विचार करने पर यही सवाल उठता है कि जब बेहतरीन शिक्षा आप सुनिश्चित नहीं कर पा रहे और बढिय़ा इंजीनियर बनाने में नाकाम रहे हैं, ऐसी स्थिति में इंजीनियरिंग की सीटें बढ़ाकर सरकार क्या राष्ट्र और छात्रों के साथ विश्चासघात नहीं कर रही?
इंजीनियरिंग और प्रबंधन जैसी स्थिति आने वाले दिनों में कानून की पढ़ाई में दिखाई देने लगेगी। इस समय देश में १४ राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय हैं। केंद्रीय कानून मंत्री ने कुछ माह पूर्व घोषणा की थी कि इसी तरह के १४ और विधि विश्वविद्यालय खोले जाएंगे। विधि मंत्री महोदय से सिर्फ यही एक प्रश्न करना है कि १४ और विधि विश्वविद्यालयों की आवश्यकता क्या है? इस समय देश में १६० सरकारी और प्रतिष्ठित निजी विधि शिक्षा संस्थान कानून की शिक्षा दे रहे हैं। विश्वविद्यालयों से संबद्ध विधि महाविद्यालयों को जोड़ लेने पर कानून की पढ़ाई कराने वाले संस्थानों की संस्था दो-सवा-दो सौ बैठेगी। मोटे तौर पर बीस हजार विधि स्नातक हर साल तैयार हो रहे हैं। यह शोध का विषय होना चाहिए कि इन विधि स्नातकों के दसवें हिस्से को भी क्या २४ कैरेट सोने की तरह का खरा कानून ज्ञाता कहा जा सकता है? अंदर की बात यह है कि मौजूदा १४ राष्ट्रीय लॉ स्कूल्स में से अधिकांश में बढिय़ा फैकल्टी का अभाव है। वहां दूर के ढोल सुहावने वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। चिन्ता का विषय यह है कि इंजीनियरिंग और कानूनी शिक्षा जैसी स्थिति चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में भी दिखाई देने लगी है। देश में लगभग ढाई सौ मेडिकल कालेजों में एम.बी.बी.एस. पाठ्यक्रम की ३२ हजार सीटें है। यह शिकायत लगातार सुनने में आती रही है कि कई निजी मेडिकल कालेज मोटी फीस वसूलने के बावजूद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहीं कराते है। कितने ही सरकारी मेडिकल कालेजो में शिक्षकों मे कमी के समाचार मीडिया में आते हैं। कमोवेश यही नजारा डेंटल और नर्सिंग कालेजों में देखा जा सकता है।
तथ्यों से साफ है कि हमारे यहां सरकार चलाने वालों का ध्यान गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की बजाय संख्या पूर्ण शिक्षा की ओर अधिक है। यह बात समझ में नहीं आती कि अभी आप अच्छे इंजीनियर, प्रबंधक और डॉक्टर बनाने में सक्षम नहीं है, फिर इन कोर्सो की सीटें बढ़ाकर कौन सा तीर मार लेंगे? पूर्व में डीम्ड विश्वविद्यालय और तकनीकी शिक्षा संस्थान खोलने की अनुमतियां फटाफट दे दी गई किन्तु उनके संसाधनों, सहूलियतों की ओर किसी ने ध्यान नही दिया। इस आशंका को निराधार कैसे माना जाए कि शिक्षा की दुकानों के खुलने में वे लोग भी मिले हुए है जिनके पास इन्हें अनुमति देने का अधिकार है। बेहतर होगा कि सरकार सीटें बढ़ाकर वाहवाही लूटने की बजाय गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा पर जोर दे।

मोटे दिमाग वाले होते हैं वामपंथी

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
यूनिवर्सिटी कालेज, लंदन के अनुसंधानकर्ताओं ने एक अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष सामने रखा है कि दक्षिणपंथी या वामपंथी होना आपके दिमाग के आकार पर निर्भर करता है। उनके अनुसार राजनीतिक झुकाव को तय करने में दिमाग के आकार की अहम भूमिका होती है। अध्ययन के मुताबिक दिमाग के एमीगाडला लोब हिस्से से भावुक प्रतिक्रियाएं निकलती हैं। स्वयं को लिबरल और वामपंथी मानने वाले लोगों में एंटीरियर सिंगुलेट दक्षिणपंथी लोगों से मोटे पाये गये। कंजरवेटिव और दक्षिणपंथी लोगों में वामपंथियों की तुलना में दाहिने हिस्से में एमीगाडला लोब बड़े आकार का पाया गया। मोटे शब्दों में कहें कि जिनका दिमाग मोटा होता है वे वामपंथी विचारधारा के समर्थक होते हैं। हालांकि उक्त अध्ययन ९० लोगों पर केंद्रित था और अध्ययनकर्ताओं का निष्कर्ष कुछ तर्कों पर आधारित हो किन्तु इसके बाद भी इसमें वैज्ञानिक तथ्यों की अभी भी कमी है।

पिछले तीन-चार सौ सालों के दौरान विश्व में कम से कम आधा दर्जन प्रमुख राजनीतिक विचारधाराओं का उदय और उनका फैलाव देखा गया। इनमें वामपंथी विचारधारा प्रमुख है जो कालान्तर में अनेक देशों तक फैली। सोवियत संघ के विघटन से वामपंथी विचारधारा को गहरा आघात लगा। अनेक पुराने वाम देशों में अब इसके नामलेवा नहीं मिलते। लगभग आधा दर्जन देशों में यह अभी भी प्रभावी है लेकिन इसके भविष्य पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आज अधिकांश लोग मूल रूप से वामपंथी अर्थात लेफ्टिस्ट और दक्षिण पंथी राइटिस्ट विचारधारा को जानते हैं। यह बात कितने लोग जानते हैं कि लेफ्टिस्ट और राइटिस्ट शब्दों का चलन कब तथा कहां शुरू हुआ? लगभग पूरी १९ वीं शताब्दी में फ्रांस लेफ्टिस्ट और राइटिस्ट विचारधारा में विभाजित रहा। गणतंत्र के समर्थकों को लेफ्टिस्ट (वामपंथी) और राजतंत्रीय व्यवस्था के समर्थकों को राइटिस्ट कहा जाता था। लेफ्ट विंग शब्द फ्रांसीसी क्रांति से आया। इस विचारधारा के मानने वाले अध्यक्षीय आसन के बायें ओर बैठते थे। कालांतर में इस सम्बोधन का उपयोग समाजवाद, साम्यवाद के लिए किया गया। कहीं-कहीं विरोधियों ने अराजकतावाद के लिए इसी सम्बोधन का उपयोग करने में झिझक नहीं दिखाई। जबकि, मूलत: सामाजिक लोकतंत्र और सामाजिक उदारवाद को व्यक्त करने वामपंथी या लेफ्टिस्ट शब्द का उपयोग किया जाता रहा है। इसको मानने वाले पूंजीवाद के विरोधी रहते रहे हैं।

दुनिया के अधिकांश हिस्सों से वामपंथ के पैर उखडऩे के बाद यह धारणा बनने लगी कि वामपंथ का एक रूप-साम्यवाद आज के विश्व में व्यावहारिक नहीं रहा। चीन जैसे साम्यवादी तीर्थ में व्यापक लोकतंत्र की मांग उठने लगी है। यही स्थिति म्यांमार और नार्थ कोरिया की बताई जा रही है। भारत में वामपंथी प्रभाव पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल तक सीमित रहा। साम्यवादी-वामपंथी आज केरल और पश्चिम बंगाल में वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं। वामपंथ के समर्थक भारतीय माओवादियों के लिए सही सम्बोधन अराजकतावादी होगा। हैरानी होती है कि आज माओवादियों और साम्यवादियों के बीच टकराव हो रहा है, वहीं भारत के बुद्धिजीवी साम्यवादी तत्वों की माओवादियों के प्रति सहानुभूति महसूस की जाती है। पिछले दो-सवा दो सौ साल का इतिहास गवाह है कि तमाम अच्छाइयों के बाद भी वामपंथ में आंतरिक विरोधाभास है। यही द्वन्द्व इसे प्राकृतिक रूप से फैलने-पसरने से रोके रहा। हमारे देसी वामपंथियों के बारे में सिर्फ यही कहें कि वे वाम विचारधारा की लाश ढो रहे हैं। किसी ने वामपंथियों पर सटीक कटाक्ष किया, ‘‘भारत में बायें हाथ को उल्टा हाथ और दाहिने हाथ को सीधा हाथ कहा जाता है। ९९ प्रतिशत लोग सीधे हाथ का ही अधिक प्रयोग करते हैं। बायें अर्थात वाम विचार वालों का काम ही उल्टा होता है। अत: उनका दिमाग मोटा हो तो कोई क्या करेगा?’’

Saturday, January 1, 2011

चवन्नी, ये देश हुआ बेगाना

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
खबर है आगामी ३० जून के बाद चवन्नी का सिक्का सरकारी तौर पर बंद हो जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि एक जुलाई २०११ से लेन-देन में सबसे कम मूल्य का सिक्का अठन्नी होगा। अंकों को कम-से-कम या पचास पैसे फिर एक रुपये में दर्शाना होगा। वैसे यह तय मानें कि आने वाले वर्षों में अठन्नी का हश्र भी चवन्नी जैसा होना तय है। देश के अधिकांश इलाकों में अठन्नी पहले ही चलन से बाहर है। हाल यह है कि कोई सामान लेते समय भुगतान राशि में अठन्नी शामिल करने पर दुकानदार या तो उसे लेने से इंकार कर देता है या फिर अठन्नी के बराबर राशि-पचास पैसे छोडऩे में नहीं झिझकता। महंगाई ने चवन्नी, अठन्नी की क्या गत बनाई इसका प्रमाण इसी तथ्य से मिल जाता है कि आज भिखारी तक एक रुपये से कम पैसे की भीख पर नाक-भौंह सिकोडऩे लगते हैं।
सिक्का संग्राहकों और सिक्का प्रेमियों का कहना है कि जिनके पास छोटे सिक्के हैं उन्हें इन सिक्कों को संभालकर रखना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में लोग आश्चर्य के साथ इतनी छोटी राशि के सिक्कों को देखा करेंगे। एक जमाना था जब एक पैसा, दो पैसे, पांच पैसे, दस पैसे और बीस पैसे के सिक्के चलते थे। ३५-४० साल पहले ये सिक्के धड़ल्ले से चलते थे। कारण यह है कि उस जमाने में चीजें ही इतनी सस्ती होती थीं। जैसे चक्की में गेहूं की पिसाई दो पैसा प्रतिकिलो ली जाती थी। आठ पेज का दैनिक अखबार दो या तीन पैसे में मिल जाता था। बढिय़ा पान और समोसा सिर्फ पांच पैसे प्रति नग के भाव पर मिलते थे। इससे भी पहले ६ पैसे के बराबर इकन्नी चलती थी। रुपये में सोलह आने के दौर में इकन्नी, दुअन्नी, चवन्नी, अठन्नी का बड़ा बोलबोला था। आजादी के बाद रुपया सौ पैसे का बना तो चवन्नी को २५ पैसे तक अठन्नी को ५० पैसे मानकर पेश किया गया। इकन्नी या एक आना और दुअन्नी या दो आना का स्थान क्रमश: पंजी (पांच पैसे) तथा दस्सी ( दस पैसे) ने ले लिया।
सिक्कों की इस लंबी यात्रा, समय के साथ उनके घटते आकार, कम होता महत्व और उनके विलुप्त होते जाने की लंबी कहानी है। इस कहानी से मुद्रा के अवमूल्यन, बढ़ती महंगाई और कई अन्य बातों को समझा जा सकता है। विचार करना चाहिए कि पांच पैसे का समोसा आज पांच रुपये या इससे अधिक मूल्य पर क्यों मिल रहा है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और कुछ हद तक न्यूज प्रिंट जैसी वस्तुएं अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम के अनुरूप हमें मिल पा रही हैं। लेकिन, जिन वस्तुओं का उत्पादन इसी भूमि पर हो रहा है, जिनका निर्माण यहीं किया जा रहा है उनके दाम इतना कैसे चढ़ गये कि चवन्नी, अठन्नी को लीलने लगे। कुछ स्वदेशी उत्पादों के संदर्भ में इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है महंगी आयातित सामग्री ने यहां देसी उत्पादों की लागत बढ़ा दी। इसमें डीजल, पेट्रोल तथा गैस की प्रमुख भूमिका अधिक रही। दूसरा कारण यह समझ में आ रहा है कि बढ़ती आबादी ने मांग बढ़ाकर रही-सही कसर पूरी कर दी। राजनीतिक दल और सरकार वोट बैंक की राजनीति के कारण परिवार नियोजन के विषय में बोलने से कतराते हैं। आबादी का दबाव बढ़ता जा रहा है। जमीन की मांग बढ़ रही है। अनाज की मांग बढ़ती जा रही। इनकी सीमायें हैं। आबादी के बेलगाम बढऩे पर दाम बढ़ेंगे ही। तब चवन्नी, अठन्नी को गायब होने से कैसे रोका जा सकता है। उपयोगिता नहीं होने पर भला कोई टिके भी क्यों रहना चाहेगा।

उपद्रवियों से वसूली जाए नुकसान की रकम

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
यदि अदालत में यह बात साबित हो जाती है कि गत दिवस पुणे में शिवसेना के आह्वान पर बंद और विरोध प्रदर्शन के दौरान १३ बसों को आग लगाये जाने की घटना शिवसेना नेताओं के उकसावे का परिणाम थी, तब उन बसों का मूल्य तथा बंद के दौरान हुए अन्य नुकसान की भरपाई शिवसेना के नेताओं से कराई जानी चाहिए। महाराष्ट्र पुलिस ने शिवसेना के एक्जीक्यूटिव प्रेसीडेंट उद्धव ठाकरे के निज सहायक मिलिंद नरवेकर तथा विधान परिषद के सदस्य नीलम गोरहे के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की है। इन पर कानून एवं व्यवस्था की समस्या खड़ी करने का आरोप है। पुलिस ने नरवेकर और गोरहे की फोन वार्ता टेप की थी जिसमें ये दोनों शिवसेना नेता बंद के दौरान बसों और अन्य सरकारी संपत्तियों पर हमला कराने तथा मुंबई-पुणे हाई-वे पर यातायात अवरुध्द करने के षड्यंत्र पर बात कर रहे थे। उस दिन लोनावाला के निकट दो ट्रेनों को रोकने पर शिवसेना के कुछ कार्यकर्ता गिरफ्तार किये गये थे। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नियंत्रण वाले पुणे नगर निगम ने एक प्रस्ताव पारित कर ऐतिहासिक लाल महल से छत्रपति शिवाजी के शिक्षक कोण्ददेव की प्रतिमा हटाने का फैसला लिया था। प्रतिमा हटा दी गई जिस पर भाजपा और शिवसेना भडक़ उठी। धरना, प्रदर्शन, बहिष्कार, रैली, सभाएं इत्यादि लोकतंत्र में बहुत आम र्हं। लेकिन पिछले कई वर्षों से यह बात देखी जा रही है कि प्रदर्शनों और बंद के आयोजनों के दौरान हिंसा एवं उपद्रव भडक़ उठते हैं। सरकारी और निजी संपत्तियां नष्ट की जाती हैं और भय का माहौल बना दिया जाता है। अपनी मांग जबरिया मनवाने और ताकत दिखाने के लिए उपद्रवों और सडक़ जाम को प्रभावी हथियार मान लिया गया है। उधर, वोटबैंक की राजनीति के चलते सत्तापक्ष कड़ी कार्रवाई के आदेश देने से बचता है। कड़वा सच यह है कि उपद्रवी और तोडफ़ोड़ की घटनाओं से निबटने की बजाय नपुंसकों की तरह उसे बर्दाश्त कर सरकार चलाने वालों ने उपद्रवीं तत्वों के हौसले बढ़ा दिये हैं। हमारे आम जीवन में बढ़ी अनुशासन की अनदेखी ने स्थिति और अधिक बिगाड़ दी है। तुरंत और प्रभावी न्याय व्यवस्था के अभाव ने मुश्किल और बढ़ाई है। विध्वंसकारी मानसिकता के लोग ट्रेनों को रोकने और उनमें आग लाने में झिझकते । हाल के वर्षों में ट्रेनों पर ऐसे दो हमले देखने में आए कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब अम्बेडकर की प्रतिमा एक विक्षिप्त व्यक्ति ने मामूली सी क्षतिग्रस्त कर दी थी। उसकी प्रतिक्रिया महाराष्ट्र में एक ट्रेन को रोककर उसे आग लगा दिये जाने के रूपमें मिली। लोगों को जातिवादी राजनीति में माहिर एक नेता ने उकसाया था। राजस्थान में पिछले गुर्जर आंदोलन के दौरान रेल्वे और अन्य सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया था। गुर्जरों के मौजूदा आंदोलन में भी रेल पटरियों पर धरना देकर सीधे राष्ट्र को चोट पहुंचाई गई है। इस तरह के धरनों और जाम के कारण आम आदमी को काफी तकलीफ हुई। राजस्थान पर्यटन उद्योग को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। सवाल यह है कि आखिर कब तक हम बसों और ट्रेनों को आग लगाने, बस-ट्रेनों का आवागमन अवरुद्ध करने और अन्य निजी एवं सरकारी संपत्तियों को कब तक अनुशासनहीन, बिगड़ैल, उपद्रवी तत्वों का निशाना बनाने के दृश्यों को देखते रहेंगे? महाराष्ट्र पुलिस ने शिवसेना के विध्वंसकारी सोच वाले दो नेताओं को जिस तरह घेरा है वह सराहनीय है। राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों पर इसी तरह कानूनी शिकंजा जकड़ा जाना चाहिए। गुण्डागर्दी और विध्वंस की इजाजत लोकतंत्र नहीं देता।