Saturday, January 1, 2011

चवन्नी, ये देश हुआ बेगाना

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
खबर है आगामी ३० जून के बाद चवन्नी का सिक्का सरकारी तौर पर बंद हो जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि एक जुलाई २०११ से लेन-देन में सबसे कम मूल्य का सिक्का अठन्नी होगा। अंकों को कम-से-कम या पचास पैसे फिर एक रुपये में दर्शाना होगा। वैसे यह तय मानें कि आने वाले वर्षों में अठन्नी का हश्र भी चवन्नी जैसा होना तय है। देश के अधिकांश इलाकों में अठन्नी पहले ही चलन से बाहर है। हाल यह है कि कोई सामान लेते समय भुगतान राशि में अठन्नी शामिल करने पर दुकानदार या तो उसे लेने से इंकार कर देता है या फिर अठन्नी के बराबर राशि-पचास पैसे छोडऩे में नहीं झिझकता। महंगाई ने चवन्नी, अठन्नी की क्या गत बनाई इसका प्रमाण इसी तथ्य से मिल जाता है कि आज भिखारी तक एक रुपये से कम पैसे की भीख पर नाक-भौंह सिकोडऩे लगते हैं।
सिक्का संग्राहकों और सिक्का प्रेमियों का कहना है कि जिनके पास छोटे सिक्के हैं उन्हें इन सिक्कों को संभालकर रखना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में लोग आश्चर्य के साथ इतनी छोटी राशि के सिक्कों को देखा करेंगे। एक जमाना था जब एक पैसा, दो पैसे, पांच पैसे, दस पैसे और बीस पैसे के सिक्के चलते थे। ३५-४० साल पहले ये सिक्के धड़ल्ले से चलते थे। कारण यह है कि उस जमाने में चीजें ही इतनी सस्ती होती थीं। जैसे चक्की में गेहूं की पिसाई दो पैसा प्रतिकिलो ली जाती थी। आठ पेज का दैनिक अखबार दो या तीन पैसे में मिल जाता था। बढिय़ा पान और समोसा सिर्फ पांच पैसे प्रति नग के भाव पर मिलते थे। इससे भी पहले ६ पैसे के बराबर इकन्नी चलती थी। रुपये में सोलह आने के दौर में इकन्नी, दुअन्नी, चवन्नी, अठन्नी का बड़ा बोलबोला था। आजादी के बाद रुपया सौ पैसे का बना तो चवन्नी को २५ पैसे तक अठन्नी को ५० पैसे मानकर पेश किया गया। इकन्नी या एक आना और दुअन्नी या दो आना का स्थान क्रमश: पंजी (पांच पैसे) तथा दस्सी ( दस पैसे) ने ले लिया।
सिक्कों की इस लंबी यात्रा, समय के साथ उनके घटते आकार, कम होता महत्व और उनके विलुप्त होते जाने की लंबी कहानी है। इस कहानी से मुद्रा के अवमूल्यन, बढ़ती महंगाई और कई अन्य बातों को समझा जा सकता है। विचार करना चाहिए कि पांच पैसे का समोसा आज पांच रुपये या इससे अधिक मूल्य पर क्यों मिल रहा है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और कुछ हद तक न्यूज प्रिंट जैसी वस्तुएं अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम के अनुरूप हमें मिल पा रही हैं। लेकिन, जिन वस्तुओं का उत्पादन इसी भूमि पर हो रहा है, जिनका निर्माण यहीं किया जा रहा है उनके दाम इतना कैसे चढ़ गये कि चवन्नी, अठन्नी को लीलने लगे। कुछ स्वदेशी उत्पादों के संदर्भ में इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है महंगी आयातित सामग्री ने यहां देसी उत्पादों की लागत बढ़ा दी। इसमें डीजल, पेट्रोल तथा गैस की प्रमुख भूमिका अधिक रही। दूसरा कारण यह समझ में आ रहा है कि बढ़ती आबादी ने मांग बढ़ाकर रही-सही कसर पूरी कर दी। राजनीतिक दल और सरकार वोट बैंक की राजनीति के कारण परिवार नियोजन के विषय में बोलने से कतराते हैं। आबादी का दबाव बढ़ता जा रहा है। जमीन की मांग बढ़ रही है। अनाज की मांग बढ़ती जा रही। इनकी सीमायें हैं। आबादी के बेलगाम बढऩे पर दाम बढ़ेंगे ही। तब चवन्नी, अठन्नी को गायब होने से कैसे रोका जा सकता है। उपयोगिता नहीं होने पर भला कोई टिके भी क्यों रहना चाहेगा।

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