Friday, January 14, 2011

एक ही थैली के चट्टे-बट्टे

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
२६ जनवरी, गणतंत्र दिवस पर श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भारतीय जनता पार्टी के कार्यक्रम को भले ही राजनीति निरुपित किया जाए लेकिन भाजपा के इसके विरोध में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मोहम्मद यासिन मलिक की धमकी को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। मोहम्मद यासीन मलिक ने कहा है कि २६ जनवरी को लाल चौक पर झंडा फहराया गया तो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आग लग जाएगी। हैरानी इस बात को लेकर है कि जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक ने भाजपा को उक्त ध्वजारोहण कार्यक्रम को रद्द करने के लिए कहा है। उमर अब्दुल्ला को आशंका इस बात की है कि तिरंगा फहराये जाने से कश्मीर घाटी के अलगाववादी बवाल मचा सकते हैं। भाजपा नेतृत्व को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने के लिए मुख्यमंत्री ने वरिष्ठ नेता अटल बिहारी बाजपेयी के नाम का सहारा लिया है। उमर अब्दुल्ला का कहना है कि भाजपा नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने कभी कट्टरपन नहीं दिखाया, अत: भाजपा को उसी लाइन पर चलना चाहिए। भाजपा के तिरंगा ध्वजारोहण के विरोध में न तो यासीन मलिक की धमकी पर आश्चर्य हुआ और ना ही उमर अब्दुल्ला की प्रतिक्रिया विशेष प्रभाव डालने वाली लगी। इन दोनों की लाइन और रणनीति अलग है। वे अपने व्यापक राजनीतिक और गैर-राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर ही ऐसी बातें बोल रहे हैं। इस घटनाक्रम के बीच मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की प्रतिक्रिया को आप कैसे खारिज कर सकते हैं? चौहान ने उमर अब्दुल्ला और विवादास्पद लेखिका अरुंधति राय को एक ही तराजू में तौलते हुए इन दोनों के लिए सही जगह जेल बताई है। एक राष्ट्रवादी नागरिक से इसी तरह की प्रतिक्रिया की आशा की जाती है। विचार करें कि यासीन मलिक, उमर अब्दुल्ला और अरुंधति राय की सोच में अंतर कितना है? यासीन मलिक घोषित अलगाववादी नेता है। इस लोकतंत्र में मिली जरूरत से ज्यादा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते मलिक जैसे नेता दिल्ली से कोलकाता तक हमारे देश, हमारे सुरक्षा बलों और हमारी सरकारों के विरुद्ध जुबान चलाते दिख जाते हैं। तिरंगा फहराने पर समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में आग लग जाने की धमकी देने वाले ऐसे व्यक्तियों को हम झेल क्यों रहे हैं? यही बात अरुंधति राय जैसी सिरफिरी महिला के विषय में कही जा सकती है। माओवादियों और कश्मीरी अलगाववादियों के प्रति अरुंधति राय के प्रेम पर चुप रह जाना ठीक नहीं है। इस महिला को माओवादियों के बीच जंगलों में छोड़ दिया जाए या फिर यह महिला कश्मीरी अलगाववादियों के बीच साथ रहे। दोनों स्थितियां संभव नहीं होने पर लेखिका को जेल में डालना ही Ÿोष्ठ विकल्प होगा। उमर अब्दुल्ला एक नाकाम मुख्यमंत्री साबित हो चुके हैं। इसे उमर की असफलता ही मानें जो अलगाववादी तत्व सन् २०१० में लगभग ६ माह तक सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करवाने में कामयाब होते रहे। वैसे भी कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग नहीं बताकर उमर अपनी अक्ल का प्रमाण दे चुके हैं। अब लाल चौक पर भाजपा के ध्वजारोहण कार्यक्रम का विरोध कर उमर अलगाववादियों के समक्ष अपना दब्बू चरित्र उजागर कर बैठे। जाहिर है कि या तो उमर अब्दुल्ला को अपने प्रशासन, पुलिस के अलावा सुरक्षा बलों की क्षमताओं पर भरोसा नहीं है या फिर वह अलगावादियों के हथकंडों से आतंकित हैं। ऐसे अटल सत्य के सामने यासीन मलिक, उमर अब्दुल्ला और अरुंधति राय के बीच भेद करना कठिन प्रतीत हो रहा है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने उमर और अरुंधति के संबंध में जो कहा उसमें गलत क्या है? दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं।

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