Wednesday, April 20, 2011

बिनायक सेन, अब सुधर जाना

----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
राष्ट्र द्रोह और नक्सलियों को राज्य के विरुद्ध लड़ाई के लिए नेटवर्क बनाने में मदद करने के आरोप में छत्तीसगढ़ की निचली अदालत से उम्रकैद की सजा पा चुके कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता, ६१ वर्षीय डॉ. बिनायक सेन ने अब राहत महसूस की होगी। देश की सर्वोच्च अदालत ने सेन को जमानत दे दी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एच.एस. बेदी और जस्टिस सी.के. प्रसाद की बेंच ने सेन को जमानत देने की वजह नहीं बताई तथा जमानत की शर्तें तय करने का काम निचली अदालत पर छोड़ दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सेन अब जेल के बाहर आ सकेंगे लेकिन निचली अदालत के फैसले के विरुद्ध आगे की कानूनी लड़ाई उन्हें लडऩी होगी। अत: सेन या उनके हमदर्दो को यह समझ में आ जाना चाहिए कि जमानत मिलना बेगुनाह साबित होना नहीं है। बिनायक सेन पर यह आरोप है कि उन्होंने एक तरह से माओवादियों के कूरियर की तरह भूमिका अदा की थी। वह एक अभियुक्त पीयूष गुहा से ३० बार जेल में मिले थे तथा उनके पास से माओवादी पर्चे और दस्तावेज मिले थे। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सेन की जमानत मंजूर करते हुए जो टिप्पणी की है वह निश्चित रूप से दूरगामी प्रभाव वाली साबित होगी। बेंच ने कहा कि सेन के पास नक्सली गतिविधियों से जुड़े दस्तावेज मिले थे लेकिन इससे आप कैसे देशद्रोह का आरोप लगा सकते हैं। अदालत ने कहा कि ‘‘ जिस तरह महात्मा गांधी की आत्मकथा रखने से कोई गांधीवादी नहीं बन जाता, उसी प्रकार नक्सली साहित्य रखने से भी कोई नक्सली नहीं बन सकता। भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। वह (सेन) नक्सलियों के हमदर्द हो सकते हैं, इससे दोषी नहीं बन जाते।’’
सेन को जमानत विशुद्ध कानूनी तर्कों के चलते मिली है। नि:संदेह महात्मा गांधी की जीवनी लेकर घूमने वाले को गांधीवादी और नक्सली साहित्य रखने वाले को नक्सली नहीं कहा जा सकता है लेकिन यहां विचारधारा और उसका प्रभाव तथा व्यक्ति विशेष की रुचि पर भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है । किसी साहित्य को कोई भी व्यक्ति उसी स्थिति में अपने पास रखता है जब उसके प्रति उसमें झुकाव हो। बिना झुकाव अथवा रुचि के साहित्य का बोझ भला कोई क्यों उठाएगा? गांधी जी की आत्मकथा गांधीवाद से प्रभावित ही अपने पास रखना चाहेगा ताकि गांधी दर्शन से सीखकर अपने देश और समाज के लिए कुछ किया जा सके। ज्ञान बढ़ाने के लिए नक्सली साहित्य को कितने लोग ढोते हैं? भले लोग किसी विचारधारा से कितने भी सहमत क्यों न हों लेकिन यदि उनमें कानून के शासन और संविधान के प्रति आस्था एवं सम्मान हो तो वे उसके विवादास्पद साहित्य से दूर ही रहेंगे। इस देश में ऐसे हजारों उदाहरण सामने आ चुके हैं जब कथित अश्लील साहित्य रखने अथवा नीली फिल्मों की सीडी लिये लोगों को पुलिस ने दबोच लिया। वे अव्वल दर्जे के व्याभिचारी मान लिये गये। आये दिन अखबारों में कॉल गल्र्स पकड़ी जाने की खबरें आती हैं। बताया जाता है कि कैसे कोई पुलिस वाला ग्राहक बनकर पहुंचा और कथित कॉल गल्र्स को पकड़ लिया गया। वहां तो बात सिर्फ देह की कीमत तक ले पाती है। धन लेकर देह समर्पण कहां सम्पन्न होता है। फिर उन लड़कियों को जेलों में क्यों डाल दिया जाता है। कुल मिलाकर स्थिति बड़ी जटिल है। यदि राष्ट्रद्रोह पर उतारु किसी प्रतिबंधित संगठन के प्रति हमदर्दी को अपराध नहीं मानेंगे तब ऐसे प्रतिबंध का अर्थ क्या रह जाएगा? प्रतिबंध का अप्रत्यक्ष उद्देश्य ही आम लोगों को ऐसे व्यक्तियों और संगठनों से दूर रखना होता है। प्रतिबंधित संगठन से हमदर्दी को अपराध नहीं मानने पर पुलिस और सुरक्षा बलों का काम जटिल हो जाता है। बहरहाल, मिस्टर बिनायक सेन के हमदर्द अब खुश होंगे। संभव है कि बताशे बांटे जा रहे हों। क्योंकि बस्तर के जंगलों में मिठाई कहां मिलेगी। बिनायक सेन को सिर्फ इतना परामर्श देना है, ‘‘अब तो सुधर जाओ’’

Monday, April 18, 2011

काले परिधान में साफ लोगों की जरूरत

----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
भारत के प्रधान न्यायाधीश एस.एच.कापाडिय़ा ने कहा है कि ‘‘न्यायपालिका में काले परिधान में साफ लोगों की जरूरत है। इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सत्यनिष्ठा बनी रहेगी।’’ जस्टिस कापाडिय़ा की उक्त टिप्पणी में भ्रष्टाचार के आरोपों के माहौल में न्यायपालिका की छवि को लेकर उनकी चिंता प्रतिबिम्बित हो रही है। जस्टिस कापाडिय़ा को कहना पड़ा है कि जजों को आत्ममंथन बनाये रखना चाहिए और वकीलों, राजनेताओं, मंत्रियों और राजनीतिक दलों से सम्पर्क से बचें। उन्होंने यह भी सलाह दी कि उच्चस्तरीय जजों को अपने से निचली अदालत के प्रशासनिक कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। जस्टिस कापाडिय़ा की उक्त टिप्पणी का निचोड़ यही समझ में आ रहा है कि न्यायपालिका की पवित्रता बनाये रखने पर जोर दिया गया। संभवत: यही कारण है कि प्रधान न्यायाधीश ने जजों को राजनीतिक संरक्षण नहीं देने पर जोर दिया है। निष्पक्ष विश्लेषकों का यह निष्कर्ष काफी सही लग रहा है कि जस्टिस पीडी दिनाकरन और जस्टिस सौमित्र सेन से जुड़े भ्रष्टाचार के मुद्दों की पृष्ठभूमि में प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण बन गई है। साफ बात यह है कि राजनेताओं तक यह संदेश पहुंच चुका होगा कि न्यायपालिका को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने के लिए सहयोग करेंगे। इससे देश और समाज के साथ-साथ सियासी बिरादरी का ही भला होना है।
दो-तीन दिन पूर्व गांधीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने खुला आरोप लगाया था कि भ्रष्ट राजनेताओं ने आम लोगों के एक बड़े भाग को भी भ्रष्ट बना दिया है। अन्ना की टिप्पणी को वाकयुद्ध का एक हमला मानने की बजाय चिंतन इस बात पर किया जाए कि राजनेताओं ने अपने निहित स्वार्थों के लिए समाज के किस-किस हिस्से तक भ्रष्टाचार के कैंसर के वायरस को पहुंचाया है? इस संक्रमण से अगर अधिकांश विभाग और वर्ग प्रभावित हैं तब न्यायपालिका को भला कैसे सुरक्षित या अनछुआ माना जा सकता है? ऐसा माना जाता रहा है कि न्यायपालिका के निचले स्तर पर तुलनात्मक रूप से अधिक भ्रष्टाचार है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस मार्कण्डेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा द्वारा गत २६ नवंबर को की गई टिप्पणी को याद करें। न्यायाधीश द्वय ने कहा था कि ‘‘इस हाईकोर्ट के अधिकांश जज भ्रष्ट हैं और वकीलों से सांठ गांठ रखते हैं।’’ ऐतिहासिक फैसलों का समृद्ध इतिहास रखने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के संबंध में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आईना दिखाने जैसी है। बड़े दु:ख के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि हाईकोर्टों के कई जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले हैं। समस्या यह है कि उच्च न्यायपालिका के किसी न्यायाधीश को महाभियोग से ही हटाया जा सकता है। यह भी न्यायिक जांच के बाद संभव है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस वी.रामास्वामी का मामला याद करें। जांच में उन्हें दोषी पाया गया था। १९९२ में संसद में महाभियोग प्रस्ताव गिर गया। जाहिर है कि राजनीतिक बिरादरी में मौजूदा जस्टिस रामास्वामी के हमदर्दो ने वफादारी निभा दी। कर्नाटक के चीफ जस्टिस पी.डी. दिनाकरन को याद करें। गंभीर आरोपों के बाद भी वह अदालत में मामलों की सुनवाई करते और प्रशासनिक फैसले लेते रहे। गंगटोक स्थानांतरण आदेश का पालन उन्होंने विलंब से किया। इस हठी और अडिय़ल व्यवहार के पीछे के कारण राजनीतिक संरक्षण ही रहा है।
न्याय पालिका को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने के लिए जरूरी है कि नैतिक पतन, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के मामलों का निबटारा फास्ट ट्रैक कोर्ट से करवाया जाए। उच्च न्यायपालिका के भ्रष्ट जज को हटाने के लिए महाभियोग प्रक्रिया तेज हो। किसी न्यायाधीश के विरुद्ध कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति की ओर से मंजूरी की समय-सीमा तय की जाए। दरअसल, जजों की नियुक्ति से लेकर सेवानिवृत्ति तक के सभी फैसले लेने का अधिकार न्यायपालिका के हाथों में रहना चाहिए। कोई राजनेता न्यायाधीशों को किसी भी प्रकार से प्रलोभन देने की स्थिति में ही न रहे। इसके अलावा आचार संहिता के कड़ाई से पालन को सुनिश्चित करके न्यायपालिका को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है।

ठेका नहीं लिया है पाक खिलाडिय़ों को पालने का

----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी शाहिद आफरीदी ने इंडियन क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) से अपील की है कि इंडियन प्रीमियर लीग में शामिल किये जाने के समय पाकिस्तान क्रिकेट खिलाडिय़ों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। कराची में आफरीदी ने सफाई दी कि वह अपनी बात नहीं कर रहे हैं। वह चाहते हैं कि पाकिस्तानी युवा क्रिकेट खिलाडिय़ों को आईपीएल जैसे प्लेटफार्म पर खेलने का अवसर मिले। उल्लेखनीय है कि आईपीएल के पहले संस्करण (२००८) में ११ पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को खेलने का मौका मिला था। हैदराबाद टीम से उस आईपीएल में शामिल हुए शाहिद आफरीदी सबसे महंगे पाकिस्तानी खिलाड़ी थे जिसने पौने सात लाख डालर की मोटी रकम कमाई थी। मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद उत्पन्न सुरक्षा चिंताओं के चलते २००९ और २०१० के आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ी नहीं खेल पाए। आईपीएल के आज से शुरू हो रहे चौथे संस्करण में भी पाकिस्तानी खिलाड़ी नहीं हैं। यह तो आंकड़ों की बात हुई लेकिन आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाडिय़ों की रुचि के पीछे एक जुझारू और फटाफट क्रिकेट मुकाबले में खेलकर बल्ले और गेंद पर हाथ साफ करने और नाम कमाने की भावना के पीछे असल आकर्षण इस टूर्नामेंट से खिलाडिय़ों पर होने वाली नोटों की बारिश है। यह एक ऐसा अवसर होता है जब अच्छा खिलाड़ी नोटों की गठरी बांधकर घर लौटता है। वह आर्थिक चिंताओं से कई वर्षों तक मुक्त रह सकता है। इस देश में भी कुछ लोग आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को मौका देने की वकालत कर चुके हैं। उनका सिर्फ यही राग सुनाई देता है कि इससे दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य होने में मदद मिलेगी। लेकिन इतिहास गवाह है विभाजन के छह दशकों के दौरान भारत ने कम-से-कम ६०० बार पाकिस्तान से संबंध सामान्य बनाने की कोशिश की होगी। भारत ने पाकिस्तानियों के तमाम छल-कपट को नजरअंदाज किया है। पाकिस्तान के विषवमन की ओर कभी ध्यान नहीं दिया लेकिन बदले में भारत को मिला क्या? ईष्र्या, नफरत, साजिशें और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जहर की बौछार? अपनी दकियानूस सोच, कट्टरवाद, आतंकवाद को संरक्षण के कारण पाकिस्तान पिछड़ा है। वह कर्ज में डूबा है, मगर उसकी अकड़ कायम है। इस सबके बावजूद पाकिस्तानी कलाकारों को यहां काम दिया जाता है। गंभीर रूप से बीमार पाकिस्तानियों का यहां मुफ्त या रियायती दर पर इलाज होता है। कम-से-कम आधा दर्जन पाकिस्तानी शिशुओं और बच्चों के दिल यहां दुरुस्त किये गये। राजनीति और कूटनीति का फेर ऐसा है कि भारत, पाकिस्तानी कारस्तानियों को जानते हुए भी अक्सर चुप रहा। अधिकांश पाकिस्तानियों के दिमाग में भारत और भारतीय के प्रति कितनी नफरत और जहर भरा है इसका प्रमाण विश्वकप क्रिकेट के सेमीफाइनल में भारत के हाथों पराजय के बाद पाकिस्तान लौटे उनके कप्तान शाहिद आफरीदी के बयान से मिल गया। आफरीदी ने भारतीयों को छोटे दिल वाला बताया था। उसके अनुसार भारतीयों के साथ रहा ही नहीं जा सकता है। वहीं आफरीदी आज भारतीय क्रिकेट बोर्ड से कह रहा है कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को शामिल किया जाए। क्यों? क्या भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने ठेका लिया है पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को पालने का? हैरानी हो रही है कि शाहिद आफरीदी के बयान पर? क्या कोई इंसान इतना भी मक्कार हो सकता है? साफ शब्दों में कहें, पाकिस्तानियों को यहां खेलने देने की इजाजत का अर्थ सांप को दूध पिलाने की तरह होगा। यहां से दौलत, शोहरत कमाओ और अपने देश लौटकर हमें कोसो। अरे भई! आप आईपीएल में क्यों खेलना चाहते हैं। अपना खुद का पीपीएल शुरू कर लो। आश्वस्त करते हैं हमारा कोई खिलाड़ी उसमें खेलने देने के लिए आप के समक्ष नहीं गिड़गिड़ाएगा।

Friday, April 8, 2011

समस्या फर्जी गरीबों से निबटने की

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
संसद की एक स्थायी समिति ने गरीबों की गणना में भारी धांधली को उजागर किया है। समिति के अनुसार गरीबी की रेखा के ऊपर (एपीएल) के ८६ प्रतिशत लोगों को गरीबी की रेखा के नीचे (बीपीएल) में शामिल कर लिया गया है। ग्रामीण इलाकों में भी स्थिति बुरी है जहां १७ प्रतिशत धनाढ्य लोगों को बीपीएल कार्ड दिये गए हैं। इस विषय पर आगे बढऩे से पहले २००८-०९ के आर्थिक सर्वेक्षण को याद करना जरूरी है जिसके अनुसार देश में ८०.५ प्रतिशत आबादी ऐसे लोगों की है जो बीस रुपये प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं। लेकिन देश में बेहद गरीबों की संख्या को लेकर आंकड़ों पर विवाद रहा है। अर्जुन सेनगुप्ता की अगुआई वाले आयोग ने कहा था कि ७७ प्रतिशत आबादी ऐसे लोगों की है जो बीस रुपये रोज पर गुजारा कर रहे हैं। इस तरह के दावों का तकनीकी आधार क्या था? इन्हें स्वीकार करने का मन नहीं हुआ लेकिन योजना आयोग द्वारा पी.तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित समिति ने पाया कि गरीबी की रेखा में जीवनयापन करने वालों की आबादी ३७ प्रतिशत है। यदि बीपीएल निर्धारण के मापदण्ड को देखें तब यह ३७ प्रतिशत वाला आंकड़ा भी हजम नहीं होता है। गरीबी रेखा का निर्धारण १९७८ में आय और खाद्य जरूरत को देखते हुए तय किया गया था। तब ग्रामीण क्षेत्रों में ६१.८० रुपये प्रतिमाह प्रतिव्यक्ति और शहरी क्षेत्र में ७१.३० रुपये प्रति व्यवित, प्रतिमाह को गरीबी की रेखा माना गया। योजना आयोग प्रत्येक वर्ष मुद्रास्फीति के आधार पर इसकी गणना करता है। वर्ष २००५-०६ में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ३६८ रुपये प्रति व्यक्ति, प्रतिमाह और शहरी क्षेत्रों के लिए ५६० रुपये प्रति व्यक्ति, प्रतिमाह को गरीबी की रेखा माना गया। इतनी आय से सिर्फ पेट की आग जैसे-तैसे शांत की जा सकती है। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी अन्य जरूरतों की पूर्ति इतनी कम राशि से नहीं हो सकती। जाहिर है कि इतनी आय पर किसी तरह जी रहे लोगों को सरकार समाज की ओर से सहारा मिलना जरूरी है। दूसरे शब्दों में कहें कि निश्चित रूप से देश के बेहद गरीब लोगों को कुछ मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहारा देना एक जिम्मेदारी भरी सोच है। लेकिन बीपीएल कार्डधारियों को रियायती दर पर खाद्यान्न, कुछ राज्यों में एक बत्ती विद्युत कनेक्शन जैसी सुविधाएं शुरू किये जाने के साथ ही इनकी संख्या बढऩे लगी। अधिकांश राज्यों में बीपीएल कार्डधारियों की संख्या बढऩे से यह संदेह मजबूत हुआ कि अपात्र लोग कतिपय शासकीय कर्मचारियों, पार्षदों, राजनेताओं और दलालों के सहयोग तथा संरक्षण से गरीबी की रेखा के नीचे जीने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाने में कामयाब हो गये हैं। ऐसी हरकत जहां अव्वल दर्जे की छिछोरी मानसिकता को दर्शाती है वहीं इसके कारण वास्तविक गरीबों का हक छिनने की आशंकाएं मजबूत होती हैं। बीपीएल आबादी में की गई गड़बड़ी का प्रमाण स्वयं संसद की समिति ने दिया है जो इस सूची में ८६ प्रतिशत लोग एपीएल के होने का दावा कर रही है। मध्यप्रदेश में एक जिला कलेक्टर ने बीपीएल सूची में फजी गरीबों की घुसपैठ को रोकने के लिए सराहनीय काम किया। उन्होंने बीपीएल सूची वाले परिवारों के मकान के बाहर उनका बीपीएल क्रमांक दर्ज करवाने के निर्देश दिये। बड़ा उत्साहजनक परिणाम सामने आया। कई लोग स्वेच्छा से आगे आए और बीपीएल सूची से अपने नाम हटवा लिये। प्रश्न यह है कि इतनी नैतिकता और साहस कितने परिवार दिखा पाएंगे? बीपीएल कार्डधारी परिवार के मकान के सामने विवरण दर्ज करना एक सही उपाय है। कोई गरीब है और सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाएं भोग रहा है, फिर उसे इस सत्य को स्वीकार करने में शर्म नहीं महसूस होनी चाहिए। उधर, सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि बीपीएल परिवार तय करते समय पुख्ता जांच हो। जान बूझकर या अनजाने में तथ्यों को छुपा या दबाकर बीपीएल सूची में आने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। आखिर बीपीएल परिवारों को मदद करदाताओं से वसूली गई रकम से ही की जाती है। ऐसे धन का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।