Thursday, October 11, 2012

पंजाब में शांति के विरूद्ध साजिश तो नहीं?

बुधवार को अकाल तख्त में पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल अरूण श्रीधर वैद्य के हत्यारों का सम्मान करके किस तरह का संदेश देने की कोशिश की गई है? जनरल वैद्य के हत्यारों, हरजिन्दर सिंह जिन्दा और सुखदेव सुक्खा का सम्मान किए जाने की घटना वाकई चिन्ता का विषय है। दरबार साहिब के मैनेजर ने जिन्दा और सुक्खा की बरसी पर आयोजित अखण्ड पाठ के समापन के पश्चात उनके परिजन का सम्मान किया। जिन्दा के भाई भूपिन्दर सिंह और सुक्खा की मां सुरजीत कौर को सिरोपा भेंट किए गए। खास बात यह है कि इस अवसर पर शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के सचिव दलमेघ सिंह, दल खालसा के प्रवक्ता कंवरपाल सिंह और दमदमी टकसाल के प्रवक्ता भाई मोखम सिंह मौजूद थे। 10 अगस्त 1986 को जनरल वैद्य की हत्या के लिए दोषी पाए गए जिन्दा और सुक्खा को 9 अक्टूबर 1992 को फांसी दे दी गई थी। जिन्दा और सुक्खा की बीसवीं बरसी पर उनका सम्मान किए जाने की इस घटना को शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के उस फैसले से जोड़ कर देखने की जरूरत महसूस होने लगी है जिसमें आपरेशन ब्लू स्टार के दौरान मारे गए लोगों की याद में स्मारक बनाने का प्रस्ताव है। इन घटनाओं पर पंजाब में सत्ताधारी शिरोमणि अकाली दल -बादल की चुप्पी आश्चर्य का विषय है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने अवश्य चिन्ता व्यक्त की है। इस आशंका को निराधार नहीं कहा जा सकता कि पंजाब में कुछ कट्टरपंथी ताकतें पुराने जख्मों को कुरेदने की कोशिश कर रहीं हैं। उनकी बढ़ती सक्रियता राज्य के अल्पसंख्यकों में भय पैदा कर सकती है। पिछले दिनों रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल के एस बरार ने यह आरोप लगाया था कि पंजाब में अकाली दल की सरकार के कार्यकाल में कट्टरपंथी और पृथकतावादी शक्तियां पुन: सक्रिय होने लगीं हैं। उन्होंने यह टिप्पणी लंदन में स्वयं पर हुए आतंकवादी हमले के बाद की थी। जनरल बरार ने आपरेशन ब्लू स्टार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। 77 वर्षीय इस फौजी ने जोर देकर कहा है कि ब्लू स्टार में मारे गए लोग आतंकवादी थे, उन्हें शहीद नहीं माना जा सकता। दरअसल, जनरल बरार पर लंदन में किया गया हमला इस बात का प्रमाण हैं कि भारत हो या विकसित देश दोनों ही जगह मौजूद आतंकवादी और उनके हमदर्द पूरी तरह ठण्डे नहीं पड़े हैं। वे पंजाब को उसी बुरे दौर में पुन: धकेलने की कोशिश कर रहे हैं । संभवत: कांग्रेस और भाजपा भी इसी बात को महसूस करने लगीं हैं। आतंकवाद के उस काले दौर में पंजाब में मारे गए लोगों की संख्या को लेकर अलग-अलग दावे लिए जाते हैं। एक जानकारी के अनुसार 1981 से लेकर 1993 के बीच आतेकवादी हिंसा में 11694 लोग मारे गए थे। यह तथ्य हैं कि सिख धर्म की रक्षा और सिखों के साथ हुए कथित अन्याय के विरोध के नाम पर किए गए खून-खराबे में मारे गए इन लोगों में 7139 सिख थे। जाहिर है कि पंजाब में आतंकवाद के उस दौर में आतंकवादियों ने सिखों को ही अधिक नुकसान पहुंचाया था। लोगों का याद होगा कि उस बुरे दौर में आतंकवादी समूचे पंथ की ओर से बोलने का दावा करते थे। जिन सिखों ने आतंकवाद का विरोध किया या आतंकवादियों द्वारा पंथ के नाम पर बोलने के अधिकार पर सवाल उठाया, उन्हें आतंकवादियों ने अपना दुश्मन मान लिया था। पंजाब लगभग दो दशक से शांत है लेकिन लग रहा है कि पृथकतावादी और कट्टरपंथी ताकतें अंदर ही अंदर अपना काम कर रहीं हैं। उस दूसरी और तीसरी पीढी़ को गुमराह करने की कोशिश की जा रही है जो मैदानी सच्चाई को नहीं जानती है। ब्रिटेन, कनाडा और जर्मनी से फेसबुक में पेज लोड किए जा रहे हैं। विदेशों से संचालित वेबसाट्स में खालिस्तानी सामग्री, मैप और गाने भरे हैं। एक वेब साइट उन सिखों के समर्थन के नाम पर चंदा उगाहती है जो आतंकवाद संबंधी आरोपों के कारण भारतीय जेलों में हैं। कुल मिलाकर स्थिति को सामान्य नहीं माना जा सकता है। पूरी तरह नजर रखने और सतर्कता बरतने की जरूरत हैं। जनरल बरार ने जो आशंका व्यक्त की है उसे जिन्दा और सुक्खा का सम्मान किए जाने की घटना से बल मिला है। सवाल यह है कि पंजाब की बादल सरकार इस गंभीर विषय पर स्वयं कितनी गंभीर है। -----अनिल बिहारी श्रीवास्तव

Tuesday, October 9, 2012

मान का सम्मान नहीं करने वालों को मानद रैंक क्यों?

खिलाडिय़ों और ग्लैमर वल्र्ड से जुड़े लोगों को मानद रैंक देने से कम से कम वायु सेना ने तौबा कर ली है। यदि वायुसेना के एक शीर्ष अधिकारी के हवाले से आई खबर पर विश्वास करें तब साफ हो जाएगा कि ऐसी हस्तियों को मानद रैंक देने का कोई मतलब नहीं होता जो इसका महत्व नहीं जानतीं तथा उनका सम्मान करने से सेना को कोई लाभ तक नहीं मिलता। मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर को वायुसेना ने लगभग दो वर्ष पहले ग्रुप कैप्टेन का मानद रैंक प्रदान किया था। इसी तरह क्रिकेट कप्तान महेंद्रसिंह धोनी को लेफ्टिनेंट कर्नल का मानद रैंक दिया गया था। सेना के सूत्रों के अनुसार दोनों ने मानद रैंक प्राप्त करने के बाद एक बार भी पलटकर नहीं झांका। पिछले दो वर्षों के दौरान उनके इस उदासीन व्यवहार से ऐसा प्रतीत हुआ मानों सेना द्वारा प्रदत्त मानद रैंक स्वीकार करके उन्होंने सेना पर ही अहसान किया हो। उल्लेखनीय है कि खिलाडिय़ों और ग्लैमर वल्र्ड के लोगों को सेना मानद रैंक से सम्मानित करती रही है। पूर्व क्रिकेट कप्तान कपिल देव को सन 2008 में टेरिटोरियल आर्मी में लेफ्टिनेंट कर्नल के रैंक से सम्मानित किया जा चुका है। टेरिटोरियल आर्मी के विज्ञापनों और होर्डिंग्स में कपिलदेव की तस्वीर छपती रही है। टेरिटोरियल आर्मी के कार्यक्रमों में कपिलदेव शामिल होते रहे हैं। दक्षिण भारत के फिल्मी सुपर स्टार मोहनलाल और शूटर अभिनव बिन्द्रा को भी सेना ने मानद रैंक प्रदान किए हैं। सेना द्वारा मानद रैंक से सम्मानित हस्तियों में और भी नाम हैं। ऐसे लोगों को मानद रैंक देने के पीछे मकसद युवाओं को सेना की ओर आकर्षित करना रहता है। वे युवा पीढ़ी के लिए पे्ररणा के स्रोत की तरह होते हैं। सेना के इस प्रयोग की सफलता के आंकड़े जुटाना लगभग असंभव काम होगा। यह जानकारी भला कैसे एकत्र की जा सकती है कि सेना में शामिल युवकों में से कितनों ने इन हस्तियों से प्रेरणा ली थी। वायुसेना के उस अधिकारी ने जिस अंदाज में धोनी और तेंदुलकर के उदासीन रवैये के प्रति अप्रसन्नता व्यक्त की है उसके बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर सम्मान किस का होना चाहिए? सीधी सी बात है जो सम्मान का मान रखे उसी का सम्मान किया जाए। धोनी और तेंदुलकर ने पूरी ठसक के साथ क्रमश: थल सेना और वायुसेना की वर्दी पहन कर रैंक प्राप्त किए थे। उस कार्यक्रम की तस्वीरें आज भी लोगों का याद होंगी। आज वायुसेना के अधिकारी बता रहे कि रैंक लेने के बाद से धेानी और तेंदुलकर ने पलट कर नहीं देखा। खिलाडिय़ों का ऐसा रवैया वाकई निराशाजनक और खीझ पैदा करने वाला है। सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल और ग्रुप कैप्टेन के पदों का अपना खासा महत्व है। इनकी अपनी गरिमा है। सेना के किसी भी अंग के लोग ही बता सकते हैं कि संबंधित ओहदा पाने के लिए उन्होंने कितना परिश्रम और त्याग किया है। आप कितने भी बड़े तीस मार खां हो सकते है लेकिन अनुशासित बलों का हिस्सा बनना आसान नही होगा। अनुशासित बलों में शामिल होने के लिए एक कड़ी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। वहां कड़े अनुशासन का पालन करना होता है। धोनी और तेंदुलकर की अपनीं व्यस्तताएं होंगी। खेल और विज्ञापनों से कमाई की जुगत में लगीं इन दोनों क्रिकेट हस्तियों के पास समय कहां है जो वे कुछ और सोचें। हां, उनसे यह अवश्य पूछा जा सकता है कि जनाब,आपके पास समय नही था तो मानद रैंक प्रस्ताव को स्वीकार क्यों किया था? हमारे यहां कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने किसी मानद पद को स्वीकार तो कर लिया किन्तु उससे जुड़ी जिम्मेदारियों और दायित्वों के निर्वाह के प्रति वे गम्भीर नहीं दिखे। पिछले चार दशक के दौरान अनेक फिल्मी हस्तियों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जा चुका है। यह शोध का विषय हो सकता है कि इनमें से कितने लोगों ने राज्यसभा की कार्रवाई में भाग लेकर स्वयं को एक जिम्मेदार सदस्य या नागरिक साबित किया? गायिका लता मंगेशकर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने राज्यसभा की किसी बैठक में हिस्सा नहीं लिया था। साफ बात है कि रूचि नहीं है तो इस तरह के प्रस्ताव स्वीकार ही नहीं करने चाहिए। भाजपा लहर में चुनाव जीत कर फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र भी लोकसभा में जा पहुंचे थे। फिल्मी पर्दे पर सैंकड़ों बार गरजते रहे धर्मेन्द्र की लोकसभा में आवाज सुनने के लिए लोग तरस गए। बहरहाल, यहां मुद्दा सेना के पदों की गरिमा बनाए रखने का है। तेंदुलकर और धोनी के उदाहरणों के चलते खिलाडिय़ों और ग्लैमर वल्र्ड के लोगों को मानद रैंक नहीं देने का फैसला सही है। वायुसेना अधिकारी की टिप्पणी पर धोनी और तेंदुलकर के पास सफाई में कहने के लिए कुछ है?

जीजाजी घोटाला: सच सामने आए

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा ने अरविन्द केजरीवाल और प्रशांत भूषण द्वारा लगाए गए आरोपों को खारिज तो किया है लेकिन आरोपों की न्यायिक जांच संबंधी मुद्दे पर उनका मौन आश्चर्यजनक है। वाड्रा का कहना है कि केजरीवाल और प्रशंात भूषण ने सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए गलत, अवमाननापूर्ण और आधारहीन आरोप लगा कर उनका और उनके परिवार का नाम बदनाम करने की कोशिश की है। एक दिन पूर्व ही वाड्रा ने कहा था कि सभी तरह की नकारात्मकता से निबट सकते हैं। इस बीच डी एल एफ ने भी केजरीवाल और भूषण के आरोपों को खारिज किया था। केजरीवाल और भूषण का कहना है कि डी एल एफ ने वाड्रा को सरकार से फायदों के एवज में बिना गारंटी के धन दिया था। डी एल एफ ने जोर दिया हेै कि उसका वाड्रा के साथ एक उद्यमी के रूप में पारदर्शी सौदा हुआ था। डी एल एफ के बयान और वाड्रा द्वारा किए गए पलटवार से केजरीवाल और भूषण का रत्तीभर प्रभावित नहीं दिखना तथ्यों को लेकर उनके आत्म विश्वास को दर्शा रहा है। केजरीवाल ने डी एल एफ के बयान को आधा सच निरूपित कर दिया है। उनका यह कहना गलत नहीं है कि वाड्रा को उठाए गए सवालों के जवाब देना चाहिए। इस बीच केजरीवाल और भूषण के लिए मनोबल बढ़ाने वाला घटनाक्रम यह हुआ कि वाड्रा पर लगाए गए आरोपों को भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के विरूद्ध एक मुद्दे के रूप में भुनाने की कोशिश शुरू कर दी । उधर, सामाजिक कार्यकर्ता ने तक केजरीवाल को समर्थन कर दिया है। अन्ना का कहना है कि वाड्रा पर लगाए गए आरोपों की न्यायिक जांच होनी चाहिए। केजरीवाल और भूषण द्वारा वाड्रा की घेराबन्दी की कोशिश ने कांग्रेस के विरोधी दलों को एक बार फिर सक्रिय कर दिया है। यह मुद्दा आने वाले दिनों में कांग्रेस के बड़ा सिरदर्द साबित हो तो आश्चर्य नहीं होगा। कांग्रेस की अगुआई वाली संप्रग सरकार के लिए दूसरा कार्यकाल वैसे भी कांटों भरी राह पर चलने जैसा साबित होता रहा है। उस पर घोटालो और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के आरोप लगते रहे हैं। इन में से किसी भी आरोप का जवाब दमदारी से देने में कांग्रेस और उसकी मनमोहन सरकार कहां कामयाब हो पाई? ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि भ्रष्टाचारियों के बीच फंसे बेबस इंसान जैसी नजर आने लगी है। अबतक राजनीतिक विरोधी ही कांग्रेस और कांग्रेसियों की खिचाई करते रहे हैं परंतु वाड्रा पर केजरीवाल कंपनी का सीधा हमला 10 जनपथ भक्तों के होश उड़ा दिने के लिए पर्याप्त है। यही कारण है कि वाड्रा पर आरोप लगते ही एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री वाड्रा के बचाव की मुद्रा में आ गए। कांग्रेस के बड़बोले प्रवक्ता मनीष तिवारी ने भी केजरीवाल और भूषण के आरोपों को असत्य करार दिया है। सरकार और कांग्रेस दोनों ही वाड्रा की ओर से युद्ध के लिए तत्पर हैं? जबकि आरोप वाड्रा पर लगें है इसलिए उनका सामना करने की जिम्मेदारी भी वाड्रा पर है। वाड्रा सीना ठोंक कर क्यों नहीं कहते कि वह किसी भी प्रकार की जांच के लिए तैयार हैं। फिर उनके समक्ष कानूनी विकल्प भी है। अगर केजरीवाल के आरोप असत्य हैं तब वाड्रा उन पर मुकदमा ठोंकें । वाड्रा के बचाव में सरकार के लोगों के बयान और कांग्रेसियों की मोर्चाबंदी देशवासियों के मन उठ रहे सवालों का उत्तर नहीं दे पा रही है। इस बात में क्या गलत होगा यदि पिछले पांच वर्षों में राबर्ट वाड्रा द्वारा अर्जित सम्पत्ति की जांच की जाती है। वाड्रा की हैसियत आम आदमी जैसी नही है। वह सत्ताधारी पार्टी की अध्यक्ष के दामाद हैं। उनकी स्थिति नाजुक है। वाड्रा की किसी भी चूक या गलती के साबित होने की स्थिति में इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है। केजरीवाल और प्रशांत भूषण को कच्चा खिलाड़ी मानने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। नियम और कानूनों की उन्हें खासी जानकारी है। वाड्रा के विरूद्ध मोर्चा खोलने से पहले तथ्यों को लेकर वे अवश्य आश्वस्त हुए होंगे। केजरीवाल ने डी एल एफ के बयान को आधा सच बताया है, जाहिर है कि उनके पास कुछ और जानकारी है। कहते है,धुआं उठा हो तो आग अवश्य होगी। वाड्रा पर लगे आरोपों का जवाब सिर्फ तथ्यपूर्ण उत्तर से ही संभव है। लोगों के मन में वाड्रा को लेकर पैदा हुए संदेह का शीघ्र निवारण जरूरी है अन्यथा इसको विश्वास में बदलने में कितनी देर लगेगी?

Saturday, April 14, 2012

माओवादियों की चित और पटनाइक की पट

तेजी से मजबूत हो रहे इस विश्वास पर अब किसी भी पल १०० फीसदी पुष्टि की मुहर लग सकती है कि राष्ट्रीय राजनीति में दखल का सपना देखने वाले उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनाइक एक राज्य को चलाने की भी क्षमता एवं योग्यता नहीं रखते हैं। खासकर, कानून एवं व्यवस्था के संदर्भ में तो यही कहा जा सकता है । खबर है कि इतावली नागरिक बोसुस्को पाओलो और विधायक हिकाका की माओवादियों के चंगुल से मुक्ति के लिए नवीन पटनाइक घुटना टेकने और दण्डवत प्रणाम की मुद्रा में आने की प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं। उनकी अगुआई वाली सरकार उन ३० लोगों को मुक्त करना चाहती है जिनकी सूची माओवादी अपहरणकर्ताओं ने दी है। नवीन पटनाइक सरकार की इस घुटना टेक राजनीति से उन पुलिस कर्मियों के मनोबल पर उन्हें प्रतिवूâल प्रभाव पड़ने की आशंका हो चली है जो सीमित साधनों और प्रतिवूâल परिस्थितियों के बीच माओवादियों से जूझ रहे हैं। नवीन पटनाइक सरकार की मंशा की भनक लगने पर वेंâद्रीय गृह मंत्रालय ने भी आगाह किया है कि इससे अपहरणकर्ताओं के हौसले बढ़ेंगे। इस बीच एक नई बात यह हुई कि उड़ीसा की एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने २००३ के एक गोलीबारी मामले की आरोपी सुभाश्री को सबूत के अभाव में बरी कर दिया। हालांकि यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि सुभाश्री के जेल से बाहर निकालने की राह के आसान होने में नवीन पटनाइक सरकार की कितनी भूमिका रही है। लेकिन उड़ीसा में सुभाश्री को लेकर जितने मुंह उतनी बातें सुनने में आ रही है। गौरतलब है कि माओवादी नेता सब्यसाची पांडा ने ही दो इतालवी नागरिकों और विधायक हिकाका के अपहरण में मुख्य भूमिका अदा की है। एक इतालवी नागरिक को पहले ही मुक्त किया जा चुका है। पाओलो और हिकाका की मुक्ति के लिए जिन ३० माओवादियों और उनके हमदर्दो की रिहाई की मांग की गई है उनमें सुभाश्री का भी नाम है। सुभाश्री सब्यसाची पांडा की पत्नी है। माओवादियों के सामने नवीन पटनाइक सरकार की घुटनाटेक मुद्रा पर उड़ीसा के पुलिस कर्मी हतप्रभ हैं। उड़ीसा पुलिस संघ ने कहा है कि सरकार का रवैया ऐसा ही चला तब माओवादी गतिविधियों से प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस कर्मी काम बंद कर सकते हैं। मुख्यमंत्री नवीन पटनाइक की अगुआई वाली सरकार का यह पैâसला उड़ीसा के साथ-साथ देश के लिए भी घातक हो सकता है। नक्सलियों की लगभग सभी मांगें स्वीकार कर ली गई हैं। उड़ीसा में नक्सल विरोधी अभियान रोक दिये गये हैं। बहरहाल, यह बात साफ हो गई है कि फरवरी २०११ में उड़ीसा के पिछड़े जिले मल्कानगिरी के कलेक्टर आर.विनीत कृष्णा तथा उनके साथ एक इंजीनियर पवित्र मोहन मांझी का माओवादी नक्सलियों द्वारा अपहरण किये जाने की घटना से नवीन पटनाइक और उनकी सरकार ने धेले भर सबक नहीं सीखा था। तब भी अपहरणकर्ताओं की सभी मांगें उड़ीसा सरकार ने स्वीकार कर ली थीं। फरवरी २०११ की वह घटना और अपहरण के ताजा मामले दोनों से ही भारतीय सत्ता का दब्बूपन और इच्छाशक्ति का अभाव उजागर हुआ है। यह बात बार-बार सामने आती है कि नक्सलियों से निपटने और इस तरह की घटनाओं का सामना करने के लिए सरकार चलाने वालों के पास कोई ठोस और दूरगामी परिणामों वाली रणनीति नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे अधिकांश राजनेता सत्ता के मोह में नाना प्रकार के तिकड़मों और जोड़-तोड़ से ऊंचा मुकाम भले पा जाते हों लेकिन उनमें राजनीतिक कौशल तथा प्रशासनिक चतुराई का नितांत अभाव है। क्या कलेक्टर के अपहरण की घटना की गहराई से जांच कराने की जहमत नवीन पटनायक ने उठाई थी? उस घटना से जुड़ी चूक के लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित किया गया था? अब बात इतावली नागरिक पाओलो की करें। वह पिछले बीस वर्षों में पुरी में डेरा डाले हुआ था। एक एडवेंचर टूरिज्म वंâपनी से जुड़े पाओलो को कथित रूप से मना किया गया था कि वह आदिवासियों की आपत्ति जनक तस्वीरे न खींचा करे। एक खबर यह भी मिली है कि पाओलो अनेक पर्यटकों को उड़ीसा के जंगलों और पहाड़ी क्षेत्रों में ले जाता था। नवीन पटनायक सरकार ने क्या यह जानने की कोशिश की कि जंगल चप्पे-चप्पे से वाफिक पाओलों का संपर्वâ आदिवासियों और माओवादियों से रहा है या नही। कुल मिलाकर जितने रहस्यमय अपहरण के उपर्युक्त दो मामले हैं, उसकी तुलना में कहीं अधिक गुस्सा नवीन पटनायक सरकार की अकर्मण्यता पर आ रहा है। समय ने नवीन पटनाइक को जवाब दिया है। उल्लेखनीय हैं कि राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केन्द्र के खिलाफ मुहिम की शुरूआत इसी मुख्यमंत्री ने की थी। आज यही व्यक्ति नक्सली माओवादियों के सामने कमजोर और कायर सा नजर आ रहा है। यह आरोप लगाने में क्यों संकोच करें कि पटनाइक ने ही कुछ मुख्यमंत्रियों को बरगला कर राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी उक्त केन्द्र निर्धारित समय पर शुरू नही होने दिया। ताजा घटनाक्रमों के लिए उड़ीसा का यह अक्षम मुख्यमंत्री भी काफी हद तक जिम्मेदार है।

Monday, April 2, 2012

पंजाब सरकार को सही फटकार

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव) ‘‘एक व्यक्ति (बलवंत सिंह राजोआणा) हत्या का दोषी है। दिन-दहाड़े एक मुख्यमंत्री की हत्या हुई थी लेकिन आतंकी कार्रवाई के दोषी पाए गये व्यक्ति को राजनीतिक समर्थन मिल रहा है। वे (पंजाब सरकार) उन्हें छोड़ वैâसे सकते हैं? ‘‘यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जी.एस. सिंघवी और एस.जे.मुखोपाध्याय की बेंच ने गत दिवस की थी। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के दोषी राजोआणा को अदालत से राहत नहीं मिली है। उसे सुनाई गई फांसी की सजा के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई के दौरान पंजाब सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई है। शीर्ष अदालत की इस टिप्पणी से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि ‘‘चार दिनों में जो हुआ। (पंजाब में घटनाएं) वह सब कुछ साफ करने वाला है। यह सब नौटंकी है। अगर समय रहते सही कदम उठाये गये होते तो सरकारी खजाने को करोड़ों का नुकसान नहीं होता।’’ राजोआणा के मामले और उसके समर्थन में पंजाब में चार दिनों तक मचाये गये हंगामे पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद राज्य की शिरोमणि अकाली दल और भाजपा गठबंधन सरकार के पास बोलने को क्या है? एक हत्यारे के समर्थन में राज्य में बना दिये गये उन्मादी माहौल पर प्रकाश सिंह बादल सरकार की दुम दबी मुद्रा तथा राजोआणा को माफी देने के लिए बादल द्वारा की गई मांग दोनों ही आश्चर्य का विषय रही है। सरकार और सरकार चलाने वालों की यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि वे कानून का उल्लंघन करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा सुनिश्चित कराएं। लेकिन पंजाब में हालात कुछ उलट ही दिखे। बादल सरकार में सहयोगी और राष्ट्रभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली भारतीय जनता पार्टी ने राजोआणा के मामले में रहस्यमयी चुप्पी साध रखी थी। कांग्रेस मांग कर रही है कि राजोआणा की फांसी की सजा उम्रवैâद में बदल दी जाए। राज्य के तीन बड़े राजनीतिक दलों का ऐसा व्यवहार जहां गर्मख्याली संगठनों के हौसले बढ़ाने वाला लगा वहीं यह उन आतंकियों के लिए हौसले बढ़ाने वाला हो सकता है जो राज्य में आतंकवाद को सख्ती से कुचले जाने के बाद से सुसुप्तावस्था में पड़े हैं। दरअसल, तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारे श्रीलंकाई तमिलों, पंजाब में राजोआणा का मामला तथा संसद पर हमले के दोषी अफजल गुुरु के मुद्दे ने कई सवालों को खड़ा कर दिया है। एक खतरनाक प्रवृत्ति के हत्यारों को हीरो बनाकर वोटबैंक की राजनीति करने की बढ़ी है। चुनौती यह है कि इस पर रोक वैâसे लगाई जाए? देखा यह भी गया है कि दया याचिकाओं के निबटारे का तरीका भी बहुत लंबा और कुछ हद तक दोषपूर्ण है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा था कि ‘‘दया याचिकाओं के निबटारे में द्वैधता क्यों हैं?’’ बरसों-बरस दया याचिकाएं राष्ट्रपति के समक्ष विचारार्थ लंबित रहती हैं। प्रक्रिया के नाम पर टरकाऊ उत्तर दिये जाते हैं। इससे पीड़ित को न्याय मिलने में विलंब होता है तथा राजोआणा जैसे हत्यारों के पक्ष में निहित स्वार्थ सहानुभूति का माहौल बनाने में कामयाब हो जाते हैं। एक बुरी बात यह देखने में आने लगी है कि अब कई राजनीतिक दल भी वोट की घटिया राजनीति के चलते हत्यारों और अपराधियों के समर्थन में सहानुभूति प्रकट करने में झिझक महसूस नहीं करते। लेकिन ऐसा उन्हीं मामलों में अधिक देखा गया है जहां जनता के एक वर्ग में उन्माद भड़काना आसान होता है। याद करें, धनंजय चटर्जी को। एक नाबालिग लड़की का बलात्कार और उसकी हत्या के दोष में धनंजय को फांसी दे दी गई थी। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दलों ने इस मामले में हस्तक्षेप नहीं किया। वे जानते थे कि उन्हें ऐसे हत्यारे के लिए समर्थन नहीं मिलेगा। अनुभव रहा है कि पश्चिम बंगाल में अपराधियों को आमतौर पर संरक्षण और सहयोग नहीं मिलता है। इस राज्य में कानून तोड़ने वालों को आम लोगों द्वारा खदेड़े जाने के सैकड़ों उदाहरण भरे हैं। वहां धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रीयता, भाषा और जातीयता का प्रभाव कानून की राह में कम ही आता दिखा है। लेकिन पंजाब और तमिलनाडु में जो देखा गया वह चिंता बढ़ाने वाला है। अब लग रहा है कि कुछ कदम तत्काल उठाये जाने की जरूरत है। जैसे-आपराधिक मामलों के निबटारे को गति दी जाए और दो-तीन सालों में हर मामले का निबटना सुनिश्चित हो। ऊपरी अदालतों में अपीलों के निबटारे की समय-सीमा होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम पैâसले के बाद दया याचिका का अधिकतम छह माह में निबटारा होना चाहिए। इन प्रयासों से न्याय व्यवस्था पर आमजन का विश्वास और अधिक मजबूत होगा तथा हत्यारों एवं अपराधियों को हीरो बनाने का अवसर किसी को नहीं मिल सकेगा।

Friday, March 23, 2012

श्री श्री ने दिखाया आईना

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव) आध्यात्मिक गुरू तथा आर्ट आफ लिविंग के प्रमुख श्री श्री रविशंकर की एक टिप्पणी पर केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल की प्रतिक्रिया अवांछनीय की श्रेणी में रखने योग्य है। सरकारी स्वूâलों के संबंध में श्री श्री रविशंकर के विचारों का कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ने विरोध किया है। भाजपा के शाहनवाज हुसैन श्री श्री रविशंकर के विचारों से असहमत दिखे। उन्होंने बयान की निंदा की है। लेकिन कांग्रेस नेता और केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल फट से पड़े। सिब्बल ने कहा, ‘‘श्री श्री ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। वंâई मंत्री और राष्ट्र्रपति तक सरकारी स्वूâलों से पढ़कर निकले हैं।’’ आध्यात्मिक गुरू के बयान पर प्रतिक्रिया के स्तर से ही साबित हो जाता है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों के लोगों ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि श्री श्री ने यह बात किस संदर्भ में की तथा सरकारी स्वूâलों से उनका अभिप्राय क्या था? तथ्यों को जाने बगैर विरोध में जुबान फटकारना सियारों के झुण्ड द्वारा मचाए जाने वाले शोर से कम थोड़े ही होता है। खबर है कि अंबाबाड़ी के आदर्श विद्या मंदिर स्वूâल में आयोजित कार्यक्रम में श्री श्री ने कहा, ‘‘ प्राइवेट स्वूâलों में सरकारी स्वूâलों से अधिक अनुशासन है। सरकारी स्वूâलों में पढ़े बच्चों में संस्कार नही होते हैं। इसी वजह से वे हिंसा और नक्सलवाद की तरफ बढ़ रहे हैं। सरकार को सरकारी स्वूâल बंद कर देना चाहिए। प्राइवेट स्वूâलों को नक्सल प्रभावित इलाकों में जाकर शिक्षा देने का काम करना चाहिए।’’ निष्पक्ष राय यह है कि श्री श्री के उपर्युक्त बयान को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है। उसमें थोड़ी सच्चाई अवश्य है। नवोदय विद्यालय एवं केन्द्रीय विद्यालय तथा सरकारी उपक्रमों द्वारा संचालित स्वूâलों से हटकर विचार करने में हमें इस तथ्य को स्वीकार करने पर विवश होना पड़ेगा कि अधिकांश राज्यों में सरकारी स्वूâलों की हालत बहुत खराब हैं। बच्चों को अच्छे संस्कार देने की बात छोड़िये, वहां पढ़ाई तक सही और पूरी नहीं होती है। कहीं शिक्षकों का अभाव है, कहीं आरक्षण और जुगाड़ के रास्ते ऐसे लोग मास्साब बन बैठे जिन्होंने खुद की पढ़ाई घिसट-घिसट कर पूरी की होगी। ज्ञान-दान के माहात्म के चलते वे शिक्षक नहीं बने। सुरक्षित सरकारी नौकरी और अच्छे वेतन के मोह ने कई अयोग्य लोगों को शिक्षक बनवा रखा है। इस देश के गांवों और कस्बों में लाखों ऐसे स्वूâल मिल जाएंगे। जिनका न तो अपना ठीकठाक भवन है और न ही ज्ञान की वर्षा करने वाले गुरूजन है। श्री श्री रविशंकर ने आँखें खोल देने वाली बात की है। उनके अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण में २५ प्रतिशत योगदान ईश्वर कृपा का होता है। २५ प्रतिशत परिवार का, २५ प्रतिशत स्वूâल का तथा २५ प्रतिशत योगदान मित्रों का होता है। परिवार और शिक्षण संस्था का माहौल ही बच्चे के आधे व्यक्तित्व का निर्माण कर देता है। यहां अच्छे संस्कार मिलने पर बच्चा मित्र भी अच्छे बनाता है। इन तीन परिस्थितियों में अनुवूâलता रहने पर ईश्वर कृपा सुनिश्चित होती है। ऐसा बच्चा बड़े होने पर कुसंस्कारी, भ्रष्ट, अनुशासनहीन और राष्ट्रद्रोही हो ही नहीं सकता। इस कड़वे सच को स्वीकार करना होगा कि प्रायवेट स्वूâलों और सरकारी स्वूâलों के बीच शिक्षण स्तर तथा माहौल में जमीन आसमान सा अंतर है। परिवार अथवा स्वूâल का जैसा माहौल होगा बच्चा बड़ा होकर वैसा ही परिणाम देगा। श्री श्री रविशंकर की टिप्पणी का विरोध करने वालों, विशेषकर कपिल सिब्बल, को किसी भी एक जिले में सरकारी स्वूâल और प्रायवेट स्वूâल की स्थितियों, उनके शिक्षा स्तर, अन्य गतिविधियों का तुलनात्मक अध्ययन करवाना चाहिए। यह पता लगाया जाए कि संबंधित जिले से पढ़कर ऊपर उठे कितने लोगों ने राजनीति, प्रशासन, समाजसेवा, चिकित्सा और पत्रकारिता जैसे पेशों में अपनी क्षमताओं का लोहा मनवाया और उन्होंने किन स्वूâलों से उन्होंने अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की थी। इसके अलावा सरकारी स्वूâलों से निकल कर अपराध की दुनिया, अंडर वल्र्ड में छा जाने वाले लोगों के आँकड़े एकत्र करने चाहिए। दूध का दूध और पानी का पानी होते कितनी देर लगेगी? आज के युवकों में बढ़ती अनुशासनहीनता तथा उदण्डता के लिए निश्चित रूप से उनका परिवार और शिक्षण संस्थाएं और आसपास का सामाजिक माहौल जिम्मेदार हैं। एक भ्रष्ट, आपराधिक मानसिकता वाले और संस्कारहीन व्यक्ति की संतान में अच्छे संस्कारों की आशा वैâसे की जा सकती है? बच्चे कच्ची माटी की तरह होते है। सरकारी स्वूâल के किसी भले शिक्षक के साथ गुरू-शिष्य रिश्ते की पवित्र डोर बंध गई तो सब भला हो जाता है अन्यथा जो होता है उसे सभी जानते, देखते और समझते हंैं। संस्कार की पहली पाठशाला परिवार हैं। व्यक्तित्व विकास की पहली सीढ़ी परिवार होते हैं। अतः जरूरत अच्छे स्वूâलों अकेले की नहीं हैं। आवश्यकता चरित्र के मामले में २४ वैâरेट सोने जैसे खरे अभिभावकों की भी होती है। इस देश को कुछ बातों के लिए निजी स्कलों का आभारी होना चाहिए। निजी स्वूâल भले ही मोटी फीस वसूलते हैं परतु शिक्षा और अनुशासन के मामले में वे अधिकांश सरकारी स्वूâल से बेहतर ही मिलते रहे हैं। स्तरहीन शिक्षा के कलंक से बचने की वो भरसक कोशिश करते हैं। गत वर्ष कर्नाटक के रायचूर जिले में द्वितीय प्री यूनिवर्सिटी परीक्षा में शामिल हुए ९३४२ विद्यार्थियों में से ६९.९१ प्रतिशत पेâल हो गए थे। इनमें से अधिकांश विद्यार्थी ग्रामीण क्षेत्रों से आए थे। विशेषज्ञों ने कहा था कि ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के घटिया स्तर के कारण ऐसा परिणाम आया। कर्नाटक के उस परिणाम को हांडी के चॉवल की तरह लें। ऐसे नाकाम छात्रों में से कुछ छात्र यदि गैर कानूनी काम करने वालों के जाल में पँâस जाएं तो आश्चर्य नही होगा। उन्हें न अच्छी शिक्षा मिली और न अच्छे संस्कार मिले होंगे। श्री श्री के कथन की पुष्टि रायचूर का उपर्युक्त उदाहरण करता हैं। बेहतर होगा कि सिब्बल स्वयं अपनी मानसिक स्थिति की फिक्र करें। आखिर बच्चों को अच्छा ज्ञान दिलवाना उन्हीं की जिम्मेदारी है।

Saturday, February 25, 2012

रेलवे को गंदगी से खतरा

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव) ट्रेनों के निचले दर्जों में शौचालय सुविधा नहीं होने से यात्रियों को होने वाली असुविधाओं की ओर तत्कालीन रेल अधिकारियों को दो जुलाई १९०९ को पत्र लिखते समय बाबू अखिल चंद्र सेन ने शायद कल्पना नहीं की होगी कि उनकी शिकायत को गंभीरता से लेते हुए रेलवे तत्काल कदम उठाएगा लेकिन ट्रेनों के डिब्बों में शुरू की गई शौचालय की व्यवस्था कालान्तर में भारतीय रेलवे के लिए एक समस्या बन जाएगी। बाबू अखिल चंद्र सेन ने अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर रेलवे के ट्रांसपोरटेशन सुपरिटेंडेंट, साहिबगंज को पत्र लिखकर यात्रियों को होने वाली असुविधा की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था। रेलवे ने कदम उठाये। भारत में ट्रेनों का संचालन शुरू होने के ५५ बरस बाद निचले दर्जे के डिब्बों में भी शौचालय बनाये जाने लगे। आज वही शौचालय रेलवे के लिए सिरदर्द साबित होने लगे हैं। रेलवे सुरक्षा की समीक्षा कर रही विशेष समिति का कहना है कि किसी यात्री द्वारा जितनी बार किसी ट्रेन के शौचालय का उपयोग किया जाता है, उतनी ही बार वह भारतीय रेलवे को और अधिक खतरनाक बना देता है। अनिल काकोडकर समिति का मानना है कि ट्रेनों के शौचालय से गिरने वाले मल-मूत्र से देश की एक लाख १० हजार किमी लंबी रेल लाइन का काफी बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो रहा है। इस मल-मूत्र से रेल पटरियों की आयु कम हो जाती है तथा विशाल नेटवर्वâ संचालन काफी महंगा पड़ता है। समिति ने कहा कि ट्रेनों के उन सभी ४३ हजार कोचों से ऐसे शौचालयों को तत्काल बदलना जरूरी है जिनमें मल-मूत्र और जल सीधे पटरियों पर गिरता है। ऐसा नहीं करने पर भारतीय रेलवे को पटरियां खराब होने की समस्या से इसी तरह जूझते रहना पड़ेगा। अनिल काकोड़कर समिति ने एक बड़ी गंभीर समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। मुश्किल यह है कि उसकी सिफारिशों पर तत्काल कदम उठाये जाने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। भारत में हर दिन आठ हजार ट्रेनें पटरियों पर दौड़ती हैं। इनमें से १६०० एक्सप्रेस और मेल ट्रेनें हैं। उपनगरीय यात्री गाड़ियों की संख्या चार हजार के आसपास बताई जाती है। एक मोटे अनुमान के अनुसार तीन करोड़ यात्री हर दिन ट्रेनों में सफर करते हैं। ट्रेन के डिब्बों की जो दशा हमारे यहां दिखाई देती है संभवतः वैसी स्थिति अविकसित देशों तक में नहीं देखी गई होगी। यात्रियों द्वारा पैâलाये जाने वाले कचरे के अलावा काकरोच और चूहे यात्री-कोचों में आम बात है। शौचालय सडांध मारते मिलते हैं। इस स्थिति के लिए सिर्पâ रेलवे प्रशासन को नहीं कोसा जा सकता। बल्कि कड़वा सच यह है कि हमारे नब्बे फीसदी यात्रियों में नागरिक-बोध का अभाव है। वे बेधड़क खाने-पीने की चीजें डिब्बे में गिराते हैं। कोच के प्रत्येक शौचालय के बाहर एक अनुरोध-सूचना चस्पा पाई जाती है, ‘‘ कृपया स्टेशन पर ट्रेन खड़ी होने पर शौचालय का उपयोग न करें।’’ कितने लोग इस अनुरोध को स्वीकार करते हैं। बड़े-बड़े स्टेशनों पर पटरियों के बीच मैला, बदबू बिखरा देखा जा सकता है। चलती ट्रेन में शौचालय का उपयोग करने के बाद अनेक महानुभाव फ्लश का उपयोग तक नहीं करते। अतः शौचालय की गंदगी से पटरियों की दुर्दशा का अनुमान लगाना संभव है। काकोड़कर कमेटी की रिपोर्ट ने एक नई बात सामने ला दी है। बात गंदगी अकेले की नहीं है, यहां चुनौती इस गंदगी से पटरियों को बचाने की है। लेकिन प्रश्न यह है कि पटरियों को खतरा सिर्पâ ट्र्रेन के शौचालय से गिरने वाली गंदगी से है? बड़े नगरों और महानगरों के करीब से सुबह गुजरने वाली ट्र्रेनों के यात्रियों से उनका अनुभव जानना चाहिए। उबकाई ला देने वाली बदबू का कारण किसी ने जानने की कोशिश की है? दरअसल, वहां छोटी बस्तियों और झुग्गी क्षेत्रों में शौचालय सुविधा नहीं होने से लोग रेल पटरियों का उपयोग खुले शौचालय के रूप में करते हैं। भारतीय रेलवे ट्र्रेनों के डिब्बों के शौचालय से मल-मूत्र को पटरियों पर गिरने से रोकने के लिए वर्षों से प्रयोग कर रही है। कोई खामी रहित प्रणाली विकसित ही नहीं हो पा रही है। स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में शौचालय का उपयोग रोकने के लिए तकनीक विकसित करने की कोशिश की जा रही है। यह तय है कि शौचालयों में सुधार किए बगैर गंदगी से मुक्ति और पटरियों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती। एक रास्ता फिर भी समझ में आता है कि कोच से मल-मूत्र सीधे गिरने से रोका जाए। डिजाइन इंजीनियरों को शौचालय की आउटलेट की दिशा बदलने पर विचार करना चाहिए। ट्रेन के शौचालय का दुरुपयोग रोकने के उपाय पर स्वयं रेलवे को विचार करना होगा। विशेषज्ञ समिति ने गंदगी को रेल सुरक्षा के लिए ठीक नहीं माना है। इस बात को पहले से ही सभी महसूस करते रहे हैं। बहरहाल, रेलवे कुछ पहल करे और कुछ बदलाव यात्रियों की सोच में आने पर रास्ता निकलने की उम्मीद दिखाई देती है।