Saturday, February 25, 2012
रेलवे को गंदगी से खतरा
(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
ट्रेनों के निचले दर्जों में शौचालय सुविधा नहीं होने से यात्रियों को होने वाली असुविधाओं की ओर तत्कालीन रेल अधिकारियों को दो जुलाई १९०९ को पत्र लिखते समय बाबू अखिल चंद्र सेन ने शायद कल्पना नहीं की होगी कि उनकी शिकायत को गंभीरता से लेते हुए रेलवे तत्काल कदम उठाएगा लेकिन ट्रेनों के डिब्बों में शुरू की गई शौचालय की व्यवस्था कालान्तर में भारतीय रेलवे के लिए एक समस्या बन जाएगी। बाबू अखिल चंद्र सेन ने अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर रेलवे के ट्रांसपोरटेशन सुपरिटेंडेंट, साहिबगंज को पत्र लिखकर यात्रियों को होने वाली असुविधा की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था। रेलवे ने कदम उठाये। भारत में ट्रेनों का संचालन शुरू होने के ५५ बरस बाद निचले दर्जे के डिब्बों में भी शौचालय बनाये जाने लगे। आज वही शौचालय रेलवे के लिए सिरदर्द साबित होने लगे हैं। रेलवे सुरक्षा की समीक्षा कर रही विशेष समिति का कहना है कि किसी यात्री द्वारा जितनी बार किसी ट्रेन के शौचालय का उपयोग किया जाता है, उतनी ही बार वह भारतीय रेलवे को और अधिक खतरनाक बना देता है। अनिल काकोडकर समिति का मानना है कि ट्रेनों के शौचालय से गिरने वाले मल-मूत्र से देश की एक लाख १० हजार किमी लंबी रेल लाइन का काफी बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो रहा है। इस मल-मूत्र से रेल पटरियों की आयु कम हो जाती है तथा विशाल नेटवर्वâ संचालन काफी महंगा पड़ता है। समिति ने कहा कि ट्रेनों के उन सभी ४३ हजार कोचों से ऐसे शौचालयों को तत्काल बदलना जरूरी है जिनमें मल-मूत्र और जल सीधे पटरियों पर गिरता है। ऐसा नहीं करने पर भारतीय रेलवे को पटरियां खराब होने की समस्या से इसी तरह जूझते रहना पड़ेगा।
अनिल काकोड़कर समिति ने एक बड़ी गंभीर समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। मुश्किल यह है कि उसकी सिफारिशों पर तत्काल कदम उठाये जाने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। भारत में हर दिन आठ हजार ट्रेनें पटरियों पर दौड़ती हैं। इनमें से १६०० एक्सप्रेस और मेल ट्रेनें हैं। उपनगरीय यात्री गाड़ियों की संख्या चार हजार के आसपास बताई जाती है। एक मोटे अनुमान के अनुसार तीन करोड़ यात्री हर दिन ट्रेनों में सफर करते हैं। ट्रेन के डिब्बों की जो दशा हमारे यहां दिखाई देती है संभवतः वैसी स्थिति अविकसित देशों तक में नहीं देखी गई होगी। यात्रियों द्वारा पैâलाये जाने वाले कचरे के अलावा काकरोच और चूहे यात्री-कोचों में आम बात है। शौचालय सडांध मारते मिलते हैं। इस स्थिति के लिए सिर्पâ रेलवे प्रशासन को नहीं कोसा जा सकता। बल्कि कड़वा सच यह है कि हमारे नब्बे फीसदी यात्रियों में नागरिक-बोध का अभाव है। वे बेधड़क खाने-पीने की चीजें डिब्बे में गिराते हैं। कोच के प्रत्येक शौचालय के बाहर एक अनुरोध-सूचना चस्पा पाई जाती है, ‘‘ कृपया स्टेशन पर ट्रेन खड़ी होने पर शौचालय का उपयोग न करें।’’ कितने लोग इस अनुरोध को स्वीकार करते हैं। बड़े-बड़े स्टेशनों पर पटरियों के बीच मैला, बदबू बिखरा देखा जा सकता है। चलती ट्रेन में शौचालय का उपयोग करने के बाद अनेक महानुभाव फ्लश का उपयोग तक नहीं करते। अतः शौचालय की गंदगी से पटरियों की दुर्दशा का अनुमान लगाना संभव है। काकोड़कर कमेटी की रिपोर्ट ने एक नई बात सामने ला दी है। बात गंदगी अकेले की नहीं है, यहां चुनौती इस गंदगी से पटरियों को बचाने की है। लेकिन प्रश्न यह है कि पटरियों को खतरा सिर्पâ ट्र्रेन के शौचालय से गिरने वाली गंदगी से है? बड़े नगरों और महानगरों के करीब से सुबह गुजरने वाली ट्र्रेनों के यात्रियों से उनका अनुभव जानना चाहिए। उबकाई ला देने वाली बदबू का कारण किसी ने जानने की कोशिश की है? दरअसल, वहां छोटी बस्तियों और झुग्गी क्षेत्रों में शौचालय सुविधा नहीं होने से लोग रेल पटरियों का उपयोग खुले शौचालय के रूप में करते हैं।
भारतीय रेलवे ट्र्रेनों के डिब्बों के शौचालय से मल-मूत्र को पटरियों पर गिरने से रोकने के लिए वर्षों से प्रयोग कर रही है। कोई खामी रहित प्रणाली विकसित ही नहीं हो पा रही है। स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में शौचालय का उपयोग रोकने के लिए तकनीक विकसित करने की कोशिश की जा रही है। यह तय है कि शौचालयों में सुधार किए बगैर गंदगी से मुक्ति और पटरियों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती। एक रास्ता फिर भी समझ में आता है कि कोच से मल-मूत्र सीधे गिरने से रोका जाए। डिजाइन इंजीनियरों को शौचालय की आउटलेट की दिशा बदलने पर विचार करना चाहिए। ट्रेन के शौचालय का दुरुपयोग रोकने के उपाय पर स्वयं रेलवे को विचार करना होगा। विशेषज्ञ समिति ने गंदगी को रेल सुरक्षा के लिए ठीक नहीं माना है। इस बात को पहले से ही सभी महसूस करते रहे हैं। बहरहाल, रेलवे कुछ पहल करे और कुछ बदलाव यात्रियों की सोच में आने पर रास्ता निकलने की उम्मीद दिखाई देती है।
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