Tuesday, March 22, 2011

जिसकी लाठी उसकी भैंस

----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
आल इंडिया जाट आरक्षण समिति के आह्वान पर आंदोलनरत जाट समुदाय ने उत्तर प्रदेश में रेल लाइन और हाईवे से अवरोध हटा लिये हैं। जाटों के नेताओं ने कहा है कि केंद्र सरकार की नौकरियों में जाटो के लिए आरक्षण के बारे में जल्द निर्णय नहीं लिया गया तो वे नये सिरे से व्यापक आंदोलन शुरू करेंगे। खबर है कि हरियाणा में आंदोलनकारी जाट अभी भी अपने कदम पीछे हटाने को तैयार नहीं है। जाट आंदोलनकारियों ने गत ५ मार्च से रेल लाइन और हाइवे पर अवरोध पैदा कर आवागमन ठप्प सा कर दिया था। उनके आंदोलन से अकेले रेल्वे को एक अरब रूपये की चोट पड़ी है। आम आदमी को अलग परेशानी हुई। बीमार लोग इलाज के लिए दिल्ली नहीं जा पा रहे थे, कितने ही बेरोजगार समय पर इंटरव्यू के लिए नहीं पहुंच पाए। एक अनुमान के अनुसार हर दिन लखनऊ से ही १३-१४ हजार लोग देश की राजधानी जाते और कमोवेश इतनी ही बड़ी संख्या में वहां से लौटते हैं। कल्पना की जा सकती है कि रेल और सडक़ परिवहन ठप्प किए जाने से आम आदमी को कितनी पेरशानी हुई होगी। राजस्थान में गुर्जर आंदोलनों के समय इसी तरह का नजारा देखने को मिला था। गुर्जरों का आंदोलन भी आरक्षण के लिए रहा हैं। आरक्षण संबंधी गुर्जरों और जाटों की मांग के पक्ष-विपक्ष में सैंकड़ों तक दिये जा सकते है। मुद्दा यह है कि कोई भी समुदाय या सम्प्रदाय अथवा जाति के लोग अपनी मांग मनवाने के लिए आम आदमी का जीवन क्यों मुश्किल कर देते हैं? राष्ट्र की सम्पत्ति को क्यों नुकसान पहुंचाया जाता है? सबसे बड़ी बात यह है कि वोट बैंक खोने के डर से जहां सरकार चलाने वाले लोग नपुंसकों की तरह देखते हैं वहीं अवसरवादी राजनेता ऐसे आन्दोलन को अपने-अपने ढंग से हवा देते हैं। राजस्थान में गुर्जर आंदोलन के दौरान लोगों को हुई परेशानी और सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान के बावजूद तत्कालीन वसुन्धरा राजे सरकार और केंद्र हाथ पर हाथ बांधे ताकते रहे। उस समय भी न्यायपालिका को आगे आकर जवाब-तलब करना पड़ा। इस बार जाट आंदोलन से लोगों को हो रही परेशानी पर भी मायावती सरकार खर्राटे मार कर सो रही थी। हाईकोर्ट द्वारा रेल लाइन से आंदोलनकारियों को हटाये जाने का आदेश देने पर राज्य सरकार जागी। मुख्यमंत्री मायावती ने जाट आंदोलनकारियों के ट्रैक से हटने का Ÿोय लेने में पलभर की देर नहीं की। मायावती तो जाट समुदाय की मांग को पहले ही समर्थन दे चुकी हैं। मजाल है कि कोई उनसे पूछ सके कि आंदोलन के कारण आम लोगों ने १५ दिनों तक जो कष्ट भोगा उस समय आप कहां थीं? किसी की मांग कितनी न्यायोचित या वाजिब हैं, एक अलग प्रश्न है लेकिन लोकतंत्र में मिली आंदोलन की सुविधा का जैसा दुरूपयोग भारत में दिखाई देने लगा है वैसा दुनिया में और कहां देखा गया है? आप किसी भी जाति, समुदाय अथवा सम्प्रदाय के हों लेकिन यदि किसी भी प्रकार से अपने लोगों की भावनाएं उभारने का माद्दा है तब सिकन्दर बनते देर नहीं लगेगी। ट्रेनों का आवागमन रोक देना, ट्रेनों और अन्य परिवहन साधनों को निशाना बनाना, खाद्यान्न अथवा दूध आदि की आपूर्ति रोकने की धमकी देना, सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाना, आखिर यह सब क्या है? उस पर तुर्रा यह कि आपके विरूद्ध बल प्रयोग नहीं होना चाहिए। कानून के शासन के बावजूद ऐसी मनमानी क्या जंगल राज या जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावतों को सच साबित नही कर देती हैं? वोट बैंक की राजनीति से उठकर सभी को गंभीर रूप लेती इस प्रवृत्ति को रोकने पर विचार करना होगा। टीवी चैनलों गाल बजाने और अखबारों में कलम दौड़ाने वालों को भी निडर होकर सकारात्मक सुझाव देने होंगे।

Friday, March 18, 2011

उपदेश मत दीजिये!

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एस. एच. कपाडिय़ा ने कहा है, ‘‘न्यायाधीशों को अपना काम करते समय समाज को उपदेश नहीं देना चाहिए। उन्हें विधायिका की बुद्धिमत्ता का आकलन नहीं करना चाहिए।’’ जस्टिस कपाडिय़ा ने आगे कहा, ‘‘समस्या यह है कि हम अपने मूल्यों, अपनी पसंद-नापसंद समाज पर थोप देते हैं।’’ वह संवैधानिक नैतिकता विषय पर न्यायमूर्ति पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान दे रहे थे। प्रधान न्यायाधीश ने न्यायाधीशों को उपदेश नही देने की सलाह दी है। इसका सीधा अर्थ यह है कि मामले से जुड़े सिद्धान्तों के अलावा किसी विषय पर नही बोला जाना चाहिए। जस्टिस कपाडिय़ा की उक्त टिप्पणी उनके दीर्घ अनुभव पर आधारित हैं। उन्होंने वह बात कही है जिसके विषय मे लम्बे समय से लोग सोचते रहे हैं लेकिन विषय न्यायपालिका से जुड़ा होने के कारण खुलकर बोलने से बचते रहे। वास्तव में लोकतंत्र मे न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का अपना महत्व और अपनी-अपनी भूमिकाएं है’। आधुनिक लोकतंत्र में चौथे स्तम्भ के रूप में प्रेस/मीडिया को अघोषित मान्यता सी मिली हुई है। इन चारों की अपनी कार्य प्रणाली और सीमायें है। यह अपेक्षा की जाती है कि ये सभी अपनी सीमाओ में रहें तथा यह अवश्य सुनिश्चित किया जाए कि कोई किसी के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर टकराव पैदा नही कर रहा है। इसके लिए संवैधानिक प्रावधानों के साथ साथ नियम कानून हैं। लेकिन हमारे यहां कई बार विचित्र स्थिति उत्पन्न होती दिखी। मर्यादा की मेढ़ टूटने की आशंका हुई। गनीमत यह है कि लगभग चारों स्तम्भ समय रहते सजग हो गए। जस्टिस कपाडिय़ा की टिप्पणी पर विचार करते समय दो बिंदुओं पर केंद्रित हो सकते हैं। मसलन, न्यायाधीश फैसला सुनाते समय कहीं निजी धारणाओं के प्रवाह में तो नहीं आ गए और न्यायपालिका की अति सक्रियता। कुछ लोग न्यायपालिका की अति सक्रियता की बात करते हैं लेकिन भारत के संदर्भ में एक सकारात्मक बात यह है कि न्यायपालिका ने हमेशा उन्हीं विषयों पर व्यवस्था दी जहां किसी भी कारण से लोकतंत्र के अन्य स्तम्भ पीछे रह गए। यही कारण है कि ऐसी व्यवस्थाओं को आमजन का भरपूर समर्थन मिला तथा लोगों का न्यायपालिका के प्रति विश्वास और अधिक मजबूत हुआ। जब बात किसी न्यायाधीश द्वारा उपदेश शैली मे टिप्पणी की जाती है अथवा मामलो से जुड़े सिद्धांतो के अलावा किसी अन्य विषय पर कुछ कहा गया तब उसपर प्रतिक्रिया भी हुई। ऐसी प्रतिक्रियायें मर्यादा और अनुशासन की सीमाओं मे रहीं। हाल में ही कम से कम दो उदाहरण सामने आए जिनमें अदालत की किसी टिप्पणी पर खुलकर असहमति व्यक्त की गई तथा उसे वापस लेने या उसमें संशोधन के लिए उचित न्यायिक मंच का सहारा लिया गया। ऐसी ही एक टिप्पणी को स्वयं सुप्रीम कोर्ट पिछले दिनों संशोधन कर चुका है। निष्कर्ष यह है कि सभी को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए सीमाओ का ध्यान रखना चाहिए। यह बात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से जुड़े सभी लोगो पर लागू होती है। सवाल यह है कि कोई भी विषयान्तर क्यों हो? न्यायाधीश एक सम्मानीय और प्रतिष्ठापूर्ण पद है। वहां से निकले शब्दों का ब्रह वाक्य के रूप लिया जाता है। प्रधान न्यायाधीश की यह अपेक्षा उचित है ‘‘हमें सिर्फ संवैधानिक सिद्धांतो के लिए ही काम करना चाहिए।’’ संवैधानिक व्यवस्था में किसी को अधिकार नही है कि वह दूसरों को उनके काम के बारे में बताये। लोकतंत्र की परिपक्वता और सफलता इसी पर टिकी है।

Thursday, March 17, 2011

लीबिया को इराक बनाने अमादा अमेरिका

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने लीबियाई शासक मुअम्मर गद्दाफी को नया अल्टीमेटम दिया है। ओबामा का कहना है कि गद्दाफी के विरुद्ध बढ़ते जन आंदोलन के कारण उन्हें अब पद छोड़ देना चाहिए। दरअसल, अमेरिका को चिंता इस बात को लेकर है कि गद्दाफी की वफादार सेना एक बार फिर भारी पडऩे लगी है गद्दाफी के वफादारों ने विद्रोहियों के कब्जे से कुछ क्षेत्रों को मुक्त करा लिया है। लीबिया के घटनाक्रमों और गद्दाफी को पदच्युत कराने में अमेरिका और उसके पश्चिम दोस्तों की बढ़ती रुचि से आशंका यह होने लगी है कि लीबिया का हश्र इराक जैसा हो सकता है। लीबिया एक ऐसे लंबे गृहयुद्ध में उलझने जा रहा है जिसके बाद स्थायी शांति की आशा अगले कई सालों तक संभव नहीं दिखती। पिछले एक पखवाड़े के दौरान कुछ बातें स्पष्ट रूप से समझ में आई हैं। जैसे अमेरिका गद्दाफी के विरुद्ध सैन्य बल का उपयोग करने को छटपटा रहा है लेकिन इस मकसद की पूर्ति में सबसे बड़ा रोड़ा रूस, चीन और भारत हो सकते हैं। अमेरिका जैसी मनोदशा फ्रांस और ब्रिटेन की देखी जा रही है। फ्रांस और ब्रिटेन पहले ही लीबिया को नो फ्लाई जोन घोषित कर चुके हैं। ताजा रिपोर्टो से साबित हो चुका है कि ब्रिटेन ने पहले से ही अपने जासूस लीबिया में छोड़ रखे थे। अत: यह आरोप लगाने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए कि लीबिया में चल रहे मौजूदा विरोधी आंदोलन की रूपरेखा लंदन, पेरिस और वाशिंगटन में तैयार की गई होगी तथा मौजूदा प्रदर्शनों के रिमोर्ट कंट्रोल इन्हीं तीन राजधानियों में हैं। यह उत्सुकता का विषय हो सकता है कि लीबिया के नागरिकों के कथित दमन को लेकर आज अमेरिका, ब्रिटेन फ्रांस और यूरोपीय संघ इतना क्यों विचलित हैं? मुअम्मर गद्दाफी को इस तरह धमकियां क्यों दी जा रही हैं। हैरानी की बात है कि अमेरिका ने अपनी बातें संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव के मुंह से निकलवा कर अपने तर्कों को न्यायोचित ठहराने की कोशिश तक कर डाली। नि:संदेह मुअम्मर गद्दाफी को एक तानाशाह ही माना जाएगा। लीबिया के इस शासक के अब तक के कार्यकाल के दौरान आम लोगों को उतनी आजादी न मिली हो जैसी कहीं और देखी जा जाती है लेकिन यह भी सच है कि गद्दाफी ने पूरी दमदारी से चार दशकों तक लीबिया को एकसूत्र में बांधे रखा। गद्दाफी के आत्मविश्वास पूर्ण व्यवहार को लोग अकड़ कह सकते हैं। यही अकड़ अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की आंखों में मिर्च की तरह पीड़ा देती रही। गद्दाफी को सउदी अरब और मिस्र के पूर्व शासकों की तरह अमेरिका के समक्ष कभी मिमियाते नहीं देखा गया। दुनिया में इस तानाशाह के दोस्त भी कम नहीं है। भारत, रूस और चीन से लीबिया के रिश्ते ठीक-ठाक रहे हैं। ईरान, निकारागुआ, क्यूबा और ब्राजील के साथ लीबिया के संबंध बहुत अच्छे हैं। ईरान ने खुली धमकी दी है कि यदि लीबिया पर हमला किया गया तो वहां अमेरिका सैनिकों की कब्रगाह बना दी जाएगी। दरअसल, ऐसा लगता है कि अमेरिका वही गलती या साजिश लीबिया में दोहराने जा रहा है जो इराक में सद्दाम हुसैन के विरुद्ध की गई थी। एक आधुनिक इराक को अमेरिकी साजिश ने हिंसा ग्रस्त राष्ट्र में बदल डाला। अमेरिका ने अपनी कठपुतली सरकार बैठा दी परन्तु कहना मुश्किल है कि इराक में कल क्या होगा? लीबिया में अमेरिकी मंडली की रुचि गद्दाफी को सत्ता से हटाने तक सीमित नहीं है। यह क्यों न कहें कि इराक की तरह लीबिया के तेल के लिए यह सारा झगड़ा है। जार्ज डब्ल्यु बुश की सनक के चलते इराक बर्बाद हो गया। बराक ओबामा लीबिया को तहत-नहस करने पर उतारु हैं।

Monday, March 7, 2011

अरुंधति की जुबान को कूची का जवाब

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
कहना मुश्किल लग रहा है कि चित्रकार प्रणब प्रकाश की उस पेंटिंग की आलोचना करें या चुप रहा जाए जिसमें बूकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरुंधति राय को बिस्तर पर चीनी नेता माओ और अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के साथ नग्रा लेटे हुए चित्रित किया गया है। प्रणब प्रकाश इससे पहले प्रसिद्ध चित्रकार एम.एफ. हुसैन की न्यूड पेंटिंग बनाकर खबरों में रह चुके हैं। माओ और लादेन के साथ अंरुधति राय के न्यूड पेंटिंग बनाने के लिए प्रणब प्रकाश का अपना तर्क है। उनका कहना है कि ‘‘अरुंधति राय उन बेरहम नक्सलियों का समर्थन करती हैं जिन्होंने बेकसूर भारतीयों के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है।’’ यह लेखिका उन निर्दयी कश्मीरी हत्यारों के साथ सांठगांठ करती रही है जिन्हें अपने कृत्य पर रत्तीभर पश्चाताप नहीं होता।’’ प्रणब प्रकाश यही नहीं रुक रहे हैं। उन्होंने बुद्धिजीवी समुदाय के उन लोगों पर भी प्रहार किया जो अरुंधति राय का समर्थन करते हैं। ‘‘प्रणब का कहना है, ये लोग प्रचार की धुन में उस भूखे बंदर की तरह नाचते हैं जो एक केला खाने को मिलने की आशा में मदारी द्वारा बजाये जा रहे डमरू की आवाज में नाचता है।’’ प्रणब प्रकाश के पेंटिंग पर अंरुधति राय और उनकी बौद्धिक-वानर सेना की ओर से किसी प्रकार की प्रतिक्रिया सुनने में नहीं आई है।’’ वैसे भी वे किस मुंह से प्रणब प्रकाश की पेंटिंग का विरोध कर सकते हैं। जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अरुंधति राय और उनकी Ÿोणी के अन्य तथाकथित बुद्धिजीवी, तमाम बकबक करते हैं, उसी अधिकार का उपयोग प्रणब प्रकाश ने किया है। अरुंधति राय को लिखना और जुबान हिलाना आता है। प्रणब प्रकाश को कैनवास पर कूची के सहारे रंग बिखेरने की कला की गहरी समझ है। अरुंधति राय जुबान से निकले हजारों शब्दों का जवाब प्रणब प्रकाश ने एक चित्र बनाकर दे दिया। निश्चित रूप से उवत पेंटिंग को सिरफिरों की अक्ल को दुरुस्त कर देने वाला माने अरुंधति राय में हत्यारों और अलगाववादियों के प्रति हमदर्दी और मोहब्बत उमड़ती है। अत: उन्हें समझ लेना चाहिए कि करोड़ों राष्ट्र भक्तों को अरुंधति के नाम से या उनकी शक्ल देखकर वमन को जी करता है। उसकी अभिव्यक्ति प्रणब प्रकाश की यह पेंटिंग कर गई। एक नारी के रूप में अरुंधति की हैसियत के बावजूद यहां उनका समर्थन करने की इच्छा नहीं हो रही है। प्रणब प्रकाश ने प्रचार के भूखे कतिपय बुद्धिजीवियों पर बड़ा सटीक प्रहार किया है। ये अपनी सिरफिरी सोच से सरकार के फैसले प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। बिनायक सेन का मामला ही लें। छत्तीसगढ़ की अदालत ने इस माओवादी को दोषी पाकर सजा सुनाई है लेकिन तथाकथित मानव अधिकारवादी और प्रचार के भूखे बुद्धिजीवी अदालत के फैसले को ही गलत बताने में जुट गये। रैलियां और प्रदर्शन आयोजित किये गये। अंग्रेजी मीडिया में बैठी वामपंथी लॉबी ने बिनायक सेन के समर्थन में अपनी पूरी ताकत झोंक डाली। सारी दुनिया में बिनायक सेन जैसे ड्रामेबाज को महान समाजसेवी और गरीबों के हमदर्द के रूप में प्रचारित किया गया। लंदन में ऐमनेस्टी इंटरनेशनल तक ने सेन की रिहाई की मांग कर दी। राहत की बात है कि सरकार न डरी न डिगी। बिनायक सेन जेल में हैं और उसे अपने अपराध के कारण जेल में ही रहना चाहिए। सेन की पत्नी कह चुकी हैं कि उसे यहां के न्याय प्रणाली पर भरोसा नहीं है। अरुंधति भी इस देश को कोस चुकी हैं। हमारा मानना है कि मिसेज सेन और अरुंधति को उस देश में चले जाना चाहिए जो उन्हें झेलने को तैयार हो। हां, अरुंधति राय को प्रणब प्रकाश की पेंटिंग की प्रिंट कापी अवश्य भेंट की जाए। उसे अहसास होना चाहिए कि ‘‘जैसे देव की वैसी पूजा’’ इसी को कहते हैं।

Sunday, March 6, 2011

बच्चों को वाहन न थमायें!

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में पंद्रह वर्षीय एक किशोरी की दुपहिया वाहन दुर्घटना में मौत से आहत नीमा समाज ने बच्चों को वाहन चलाने देने के संबंध में जो निर्णय लिये उन पर सभी अभिभावकों को अवश्य ध्यान देना चाहिए। खबरों के अनुसार समाज ने निर्णय लिया है कि अब कोई भी अभिभावक अपने १८ साल से कम उम्र के बच्चों को वाहन चलाने की अनुमति नहीं देगा। १८ साल से अधिक उम्र के बच्चों को पहले वाहन चलाने का विधिवत प्रशिक्षण लेकर यातायात नियमों को जानना होगा। इसके बाद ही वे ड्राइविंग लाइसेंस के लिए आवेदन करेंगे। निश्चित रूप से नीमा समाज की यह पहल अनुकरणीय है। देश में इस समय जिस तेजी से सडक़ दुर्घटनाओं और उनमें मरने वालों की संख्या बढ़ रही है उसके साथ एक तथ्य यह जुड़ा है कि दुर्घटनाओं में दुपहिया वाहन सवारों की संख्या काफी अधिक है। ऐसा क्यों हो रहा है? मोटे तौर पर समझ में यह आता है कि देखा-देखी और होड़ के चलते बच्चे माता-पिता पर दुपहिया वाहन के लिए दबाव डालते हैं। कभी माता-पिता दबाव में आकर दुपहिया वाहन दे देते हैं और कभी अपनी सुविधा के लिए ऐसा करते हैं। कुछ अभिवाहक यह देखकर फूले नहीं समाते कि उनका बेटा या बेटी (जो पाय:१८ वर्ष से कम आयु के ही होते हैं) कैसे फर्राटे से मोटर साइकिल दौड़ा लेते हैं। ऐसे ही बच्चों के साथ दुर्घटना की स्थिति अक्सर बनते देखी जाती है। नि:संदेह १६ वर्ष से अधिक के बच्चों को बिना गियर की दुपहिया वाहन चलाने की अनुमति है लेकिन उसे चलाने से पूर्व तेज रफ्तार के जोखिम और यातायात नियमों के बारे में जानकारी होनी ही चाहिए। देखा यह जा रहा है कि संतुलन साध लेने, रफ्तार बढ़ाने-घटाने की समझ और ब्रेक लगाना सीख लेने को पर्याप्त मान लिया जाता है। जबकि इसके साथ यातायात नियमों के कड़ाई से पालन की शिक्षा जरूरी होती है। जब से तेज रफ्तार मोटर साइकिलों का चलन बढ़ा है दुर्घटनाओं की संख्या काफी बढ़ गई। छोटे-छोटे शहर से लेकर महानगरों की सडक़ों पर इन आधुनिक फटफटियों की धमा चौकड़ी देखी जा सकती है। इस मामले में नव धनाढ्यों की संतानें आगे पाई जाती हैं। वे अपनी जान जोखिम में डालने के साथ-साथ दूसरों के जीवन पर भी संकट खड़े करते रहते हैं। पुलिस रिकार्ड छान लिये जाएं ऐसे सैकड़ों मामले सामने आ जाएंगे जिनमें किसी किशोर या युवक दुपहिया वाहन चालक की गफलत से किसी की जान चली गई या कोई जीवन भर के लिए लाचार बन गया। इस स्थिति के लिए तीन पक्ष जिम्मेदार माने जा सकते हैं। एक-बच्चों को बगैर प्रशिक्षण के दुपहिया वाहन थमाने वाले माता-पिता, दो-सडक़ परिवहन विभाग जहां कुछ रुपये दलालों के माध्यम से रिश्वत देकर आसानी से ड्राइविंग लायसेंस थमा दे दिया जाता है और तीन-ट्रैफिक पुलिस जो आमतौर पर वसूली में ही व्यस्त रहती है। पिछले दिनों एक खबर आई थी। सरकार ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन पर सजा और जुर्माने के प्रावधानों को कड़ा कर रही है। सवाल उठता है कि इससे होगा क्या? पहले आप ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने की प्रक्रिया को सख्त बनाइये? बिना लाइसेंस वाहन चलाने वालों पर भारी जुर्माने का प्रावधान हो। नाबालिग बच्चे वाहन चलाते मिलें तो अभिभावकों पर दस गुना जुर्माना लगाया जाये। इसके बाद ही स्थिति में सुधार की गुंजाइश है। लेकिन नीमा समाज ने एक अभूतपूर्व रास्ता दिखाया है। सभी समाजों को विचार करना चाहिए कि हमारे बच्चों का जीवन अमूल्य है। उसकी रक्षा के लिए कुछ कड़े फैसले लेना ही चाहिए ताकि बाद मेें पछताना न पड़े।

कहां जा रहा है पाकिस्तान ?

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव

पाकिस्तान में अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री शहबाज भट्टी को भी अपने उदारवादी दृष्टिकोण की कीमत चुकानी पड़ी। वह ईश निन्दा कानून में बदलाव के समर्थक थे। जब से उन्होंने ईशनिन्दा कानून की निन्दा की थी, उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थी। इस कानून की आलोचना करने के बाद पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या उन्हीं के सुरक्षा कर्मी ने कर दी थी। आशंका व्यक्त की जा रही है कि तासीर और भट्टी के बाद कट्टरपंथी आतंकवादी अब पूर्व सूचना एवं प्रसारण मंत्री तथा सत्तारूढ़ पीपीपी की नेता शेरी (शहरबानो) रहमान को निशाना बना सकते हैं। रहमान ने पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली में एक बिल पेश कर ईश निन्दा कानून में बदलाव की मांग की थी। बाद में उन्होंने अपनी पार्टी नेताओं के दबाव में अपने प्रायवेट बिल को वापस ले लिया था। कट्टरपंथी आतंकवादी तत्व ईसाई समुदाय की महिला आसिया बीवी को आत्मघाती हमले में उड़ा देने की धमकी पहले ही दे चुके हैं। कट्टरपंथियों की योजना आसिया पर जेल में ही हमला करवाने की है। आरोप है कि कुछ महिलाओं से आपसी बातचीत के दौरान आसिया ने अल्लाह की निंदा की थी। उदारवादी वर्ग और अल्पसंख्यकों का मानना है कि गरीब आसिया को आपसी रंजिश में फंसाया गया है। पहले तासीर और अब भट्टी की हत्याओं के बाद इस आशंका पर पुष्टि की मुहर लग गई है कि पाकिस्तान पर कट्टरपंथी तत्वों का अप्रत्यक्ष कब्जा हो चुका है और अपना वर्चस्व दिखाने के लिए वे इसी तरह की वारदातें और उदारवादी लोगों को निशाना बनाते रहेंगे। आंकड़े बता रहे हैं कि जून २००९ से जून २०१० के बीच पाकिस्तान में डेढ़ हजार से अधिक लोग आतंकवादी हमलों में मारे गए। कई उदारवादी नेताओं की हत्या की जा चुकी है। पाकिस्तान सरकार, सेना, पुलिस और अद्र्धसैनिक बल सभी कट्टरपंथी आतंकवादी के आगे बेबस नजर आने लगे हैं। सच यह भी है कि बड़ी संख्या में पढ़े-लिखे लोगों और उदारवादी वर्ग को अपने बच्चों के भविष्य की चिन्ता हो रही है। साधन-सम्पन्न लोग बच्चों को विदेश पढऩे जाने और कहीं और बसने का इंतजाम करने की सलाह देने से नहीं चूक रहे। पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति के लिए दो कारण जिम्मेदार मान जा सकते हैं। एक-कट्टरपन और दो आतंकवाद। धर्म के नाम पर जन्म लेने वाले पाकिस्तान में शुरूआत से ही धार्मिक कट्टरवाद पर जोर दिया गया। स्थिति फौजी तानाशाह जनरल जिया उल हक के शासनकाल में अधिक बिगड़ी। ईशनिन्दा कानून जनरल जिया की देन है। जिया उल हक ने ही पाकिस्तान का इस्लामीकरण किया था। १९८०, १९८२ और १९८६ में वहां पाकिस्तान दण्ड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में संशोधन कर पैगम्बर साहिब की निन्दा करने पर मृत्युदण्ड का प्रावधान किया गया। इसी बीच अफगानिस्तान और भारत से अप्रत्यक्ष युद्ध लडऩे के लिए पाकिस्तान में आतंकवाद को खुला संरक्षण दिया गया। आज पाकिस्तान का आतंकवाद समूचे विश्व के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है। मैपलक्राफ्ट नामक संगठन द्वारा तैयार सूची के अनुसार आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित देशों में पाकिस्तान सोमालिया के बाद दूसरे नंबर पर है। कट्टरवाद और आतंकवाद का काकटेल पाकिस्तान के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर रहा है। पाकिस्तान उस दिशा की ओर बढ़ चुका है जहां से वापसी के कोई आसार नहीं हैं। सलमान तासीर की हत्या ने एक बार पुन: यह तथ्य सामने रखा था कि जिया उल हक द्वारा छोड़ा गया धर्मान्धता का विष पाकिस्तान की रग-रग मेें फैल चुका है। सेना, पुलिस अद्र्धसैनिक बल, राजनीति सहित लगभग हर क्षेत्र में कट्टरपंथी तत्व भर गये हैं। उस देश के लोगों की सोच का नजारा तासीर के हत्यारे को अदालत में पेश करने के लिए ले जाते समय देखने को मिला। लोग उस पर गुलाब के फूल बरसा रहे थे, उसे चूमने के लिए उछल रहे थे। पांच सौ से अधिक इस्लामिक विद्वानों ने तासीर के हत्यारे को ‘गाजी’ का खिताब दिया। उन्होंने ऐलान कर दिया तासीर के लिए गम का किसी भी किस्म का प्रदर्शन अनुचित होगा। यह प्रमाणित हो रहा है कि ईश निन्दा कानून का उपयोग पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को प्रताडि़त करने के लिए हो रहा है। उससे बुुरी बात यह है कि अब अल्लाह के नाम पर उदार लोगों की हत्या की जा रही है। यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि पाकिस्तान में बिगड़ते हालात से सबक लेकर भी कोई कुछ कर पाएगा। वहां बाजी हाथ से निकल चुकी है।