---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एस. एच. कपाडिय़ा ने कहा है, ‘‘न्यायाधीशों को अपना काम करते समय समाज को उपदेश नहीं देना चाहिए। उन्हें विधायिका की बुद्धिमत्ता का आकलन नहीं करना चाहिए।’’ जस्टिस कपाडिय़ा ने आगे कहा, ‘‘समस्या यह है कि हम अपने मूल्यों, अपनी पसंद-नापसंद समाज पर थोप देते हैं।’’ वह संवैधानिक नैतिकता विषय पर न्यायमूर्ति पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान दे रहे थे। प्रधान न्यायाधीश ने न्यायाधीशों को उपदेश नही देने की सलाह दी है। इसका सीधा अर्थ यह है कि मामले से जुड़े सिद्धान्तों के अलावा किसी विषय पर नही बोला जाना चाहिए। जस्टिस कपाडिय़ा की उक्त टिप्पणी उनके दीर्घ अनुभव पर आधारित हैं। उन्होंने वह बात कही है जिसके विषय मे लम्बे समय से लोग सोचते रहे हैं लेकिन विषय न्यायपालिका से जुड़ा होने के कारण खुलकर बोलने से बचते रहे। वास्तव में लोकतंत्र मे न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का अपना महत्व और अपनी-अपनी भूमिकाएं है’। आधुनिक लोकतंत्र में चौथे स्तम्भ के रूप में प्रेस/मीडिया को अघोषित मान्यता सी मिली हुई है। इन चारों की अपनी कार्य प्रणाली और सीमायें है। यह अपेक्षा की जाती है कि ये सभी अपनी सीमाओ में रहें तथा यह अवश्य सुनिश्चित किया जाए कि कोई किसी के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर टकराव पैदा नही कर रहा है। इसके लिए संवैधानिक प्रावधानों के साथ साथ नियम कानून हैं। लेकिन हमारे यहां कई बार विचित्र स्थिति उत्पन्न होती दिखी। मर्यादा की मेढ़ टूटने की आशंका हुई। गनीमत यह है कि लगभग चारों स्तम्भ समय रहते सजग हो गए। जस्टिस कपाडिय़ा की टिप्पणी पर विचार करते समय दो बिंदुओं पर केंद्रित हो सकते हैं। मसलन, न्यायाधीश फैसला सुनाते समय कहीं निजी धारणाओं के प्रवाह में तो नहीं आ गए और न्यायपालिका की अति सक्रियता। कुछ लोग न्यायपालिका की अति सक्रियता की बात करते हैं लेकिन भारत के संदर्भ में एक सकारात्मक बात यह है कि न्यायपालिका ने हमेशा उन्हीं विषयों पर व्यवस्था दी जहां किसी भी कारण से लोकतंत्र के अन्य स्तम्भ पीछे रह गए। यही कारण है कि ऐसी व्यवस्थाओं को आमजन का भरपूर समर्थन मिला तथा लोगों का न्यायपालिका के प्रति विश्वास और अधिक मजबूत हुआ। जब बात किसी न्यायाधीश द्वारा उपदेश शैली मे टिप्पणी की जाती है अथवा मामलो से जुड़े सिद्धांतो के अलावा किसी अन्य विषय पर कुछ कहा गया तब उसपर प्रतिक्रिया भी हुई। ऐसी प्रतिक्रियायें मर्यादा और अनुशासन की सीमाओं मे रहीं। हाल में ही कम से कम दो उदाहरण सामने आए जिनमें अदालत की किसी टिप्पणी पर खुलकर असहमति व्यक्त की गई तथा उसे वापस लेने या उसमें संशोधन के लिए उचित न्यायिक मंच का सहारा लिया गया। ऐसी ही एक टिप्पणी को स्वयं सुप्रीम कोर्ट पिछले दिनों संशोधन कर चुका है। निष्कर्ष यह है कि सभी को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए सीमाओ का ध्यान रखना चाहिए। यह बात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से जुड़े सभी लोगो पर लागू होती है। सवाल यह है कि कोई भी विषयान्तर क्यों हो? न्यायाधीश एक सम्मानीय और प्रतिष्ठापूर्ण पद है। वहां से निकले शब्दों का ब्रह वाक्य के रूप लिया जाता है। प्रधान न्यायाधीश की यह अपेक्षा उचित है ‘‘हमें सिर्फ संवैधानिक सिद्धांतो के लिए ही काम करना चाहिए।’’ संवैधानिक व्यवस्था में किसी को अधिकार नही है कि वह दूसरों को उनके काम के बारे में बताये। लोकतंत्र की परिपक्वता और सफलता इसी पर टिकी है।
Friday, March 18, 2011
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