Saturday, April 14, 2012

माओवादियों की चित और पटनाइक की पट

तेजी से मजबूत हो रहे इस विश्वास पर अब किसी भी पल १०० फीसदी पुष्टि की मुहर लग सकती है कि राष्ट्रीय राजनीति में दखल का सपना देखने वाले उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनाइक एक राज्य को चलाने की भी क्षमता एवं योग्यता नहीं रखते हैं। खासकर, कानून एवं व्यवस्था के संदर्भ में तो यही कहा जा सकता है । खबर है कि इतावली नागरिक बोसुस्को पाओलो और विधायक हिकाका की माओवादियों के चंगुल से मुक्ति के लिए नवीन पटनाइक घुटना टेकने और दण्डवत प्रणाम की मुद्रा में आने की प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं। उनकी अगुआई वाली सरकार उन ३० लोगों को मुक्त करना चाहती है जिनकी सूची माओवादी अपहरणकर्ताओं ने दी है। नवीन पटनाइक सरकार की इस घुटना टेक राजनीति से उन पुलिस कर्मियों के मनोबल पर उन्हें प्रतिवूâल प्रभाव पड़ने की आशंका हो चली है जो सीमित साधनों और प्रतिवूâल परिस्थितियों के बीच माओवादियों से जूझ रहे हैं। नवीन पटनाइक सरकार की मंशा की भनक लगने पर वेंâद्रीय गृह मंत्रालय ने भी आगाह किया है कि इससे अपहरणकर्ताओं के हौसले बढ़ेंगे। इस बीच एक नई बात यह हुई कि उड़ीसा की एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने २००३ के एक गोलीबारी मामले की आरोपी सुभाश्री को सबूत के अभाव में बरी कर दिया। हालांकि यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि सुभाश्री के जेल से बाहर निकालने की राह के आसान होने में नवीन पटनाइक सरकार की कितनी भूमिका रही है। लेकिन उड़ीसा में सुभाश्री को लेकर जितने मुंह उतनी बातें सुनने में आ रही है। गौरतलब है कि माओवादी नेता सब्यसाची पांडा ने ही दो इतालवी नागरिकों और विधायक हिकाका के अपहरण में मुख्य भूमिका अदा की है। एक इतालवी नागरिक को पहले ही मुक्त किया जा चुका है। पाओलो और हिकाका की मुक्ति के लिए जिन ३० माओवादियों और उनके हमदर्दो की रिहाई की मांग की गई है उनमें सुभाश्री का भी नाम है। सुभाश्री सब्यसाची पांडा की पत्नी है। माओवादियों के सामने नवीन पटनाइक सरकार की घुटनाटेक मुद्रा पर उड़ीसा के पुलिस कर्मी हतप्रभ हैं। उड़ीसा पुलिस संघ ने कहा है कि सरकार का रवैया ऐसा ही चला तब माओवादी गतिविधियों से प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस कर्मी काम बंद कर सकते हैं। मुख्यमंत्री नवीन पटनाइक की अगुआई वाली सरकार का यह पैâसला उड़ीसा के साथ-साथ देश के लिए भी घातक हो सकता है। नक्सलियों की लगभग सभी मांगें स्वीकार कर ली गई हैं। उड़ीसा में नक्सल विरोधी अभियान रोक दिये गये हैं। बहरहाल, यह बात साफ हो गई है कि फरवरी २०११ में उड़ीसा के पिछड़े जिले मल्कानगिरी के कलेक्टर आर.विनीत कृष्णा तथा उनके साथ एक इंजीनियर पवित्र मोहन मांझी का माओवादी नक्सलियों द्वारा अपहरण किये जाने की घटना से नवीन पटनाइक और उनकी सरकार ने धेले भर सबक नहीं सीखा था। तब भी अपहरणकर्ताओं की सभी मांगें उड़ीसा सरकार ने स्वीकार कर ली थीं। फरवरी २०११ की वह घटना और अपहरण के ताजा मामले दोनों से ही भारतीय सत्ता का दब्बूपन और इच्छाशक्ति का अभाव उजागर हुआ है। यह बात बार-बार सामने आती है कि नक्सलियों से निपटने और इस तरह की घटनाओं का सामना करने के लिए सरकार चलाने वालों के पास कोई ठोस और दूरगामी परिणामों वाली रणनीति नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे अधिकांश राजनेता सत्ता के मोह में नाना प्रकार के तिकड़मों और जोड़-तोड़ से ऊंचा मुकाम भले पा जाते हों लेकिन उनमें राजनीतिक कौशल तथा प्रशासनिक चतुराई का नितांत अभाव है। क्या कलेक्टर के अपहरण की घटना की गहराई से जांच कराने की जहमत नवीन पटनायक ने उठाई थी? उस घटना से जुड़ी चूक के लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित किया गया था? अब बात इतावली नागरिक पाओलो की करें। वह पिछले बीस वर्षों में पुरी में डेरा डाले हुआ था। एक एडवेंचर टूरिज्म वंâपनी से जुड़े पाओलो को कथित रूप से मना किया गया था कि वह आदिवासियों की आपत्ति जनक तस्वीरे न खींचा करे। एक खबर यह भी मिली है कि पाओलो अनेक पर्यटकों को उड़ीसा के जंगलों और पहाड़ी क्षेत्रों में ले जाता था। नवीन पटनायक सरकार ने क्या यह जानने की कोशिश की कि जंगल चप्पे-चप्पे से वाफिक पाओलों का संपर्वâ आदिवासियों और माओवादियों से रहा है या नही। कुल मिलाकर जितने रहस्यमय अपहरण के उपर्युक्त दो मामले हैं, उसकी तुलना में कहीं अधिक गुस्सा नवीन पटनायक सरकार की अकर्मण्यता पर आ रहा है। समय ने नवीन पटनाइक को जवाब दिया है। उल्लेखनीय हैं कि राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केन्द्र के खिलाफ मुहिम की शुरूआत इसी मुख्यमंत्री ने की थी। आज यही व्यक्ति नक्सली माओवादियों के सामने कमजोर और कायर सा नजर आ रहा है। यह आरोप लगाने में क्यों संकोच करें कि पटनाइक ने ही कुछ मुख्यमंत्रियों को बरगला कर राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी उक्त केन्द्र निर्धारित समय पर शुरू नही होने दिया। ताजा घटनाक्रमों के लिए उड़ीसा का यह अक्षम मुख्यमंत्री भी काफी हद तक जिम्मेदार है।

Monday, April 2, 2012

पंजाब सरकार को सही फटकार

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव) ‘‘एक व्यक्ति (बलवंत सिंह राजोआणा) हत्या का दोषी है। दिन-दहाड़े एक मुख्यमंत्री की हत्या हुई थी लेकिन आतंकी कार्रवाई के दोषी पाए गये व्यक्ति को राजनीतिक समर्थन मिल रहा है। वे (पंजाब सरकार) उन्हें छोड़ वैâसे सकते हैं? ‘‘यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जी.एस. सिंघवी और एस.जे.मुखोपाध्याय की बेंच ने गत दिवस की थी। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के दोषी राजोआणा को अदालत से राहत नहीं मिली है। उसे सुनाई गई फांसी की सजा के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई के दौरान पंजाब सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई है। शीर्ष अदालत की इस टिप्पणी से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि ‘‘चार दिनों में जो हुआ। (पंजाब में घटनाएं) वह सब कुछ साफ करने वाला है। यह सब नौटंकी है। अगर समय रहते सही कदम उठाये गये होते तो सरकारी खजाने को करोड़ों का नुकसान नहीं होता।’’ राजोआणा के मामले और उसके समर्थन में पंजाब में चार दिनों तक मचाये गये हंगामे पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद राज्य की शिरोमणि अकाली दल और भाजपा गठबंधन सरकार के पास बोलने को क्या है? एक हत्यारे के समर्थन में राज्य में बना दिये गये उन्मादी माहौल पर प्रकाश सिंह बादल सरकार की दुम दबी मुद्रा तथा राजोआणा को माफी देने के लिए बादल द्वारा की गई मांग दोनों ही आश्चर्य का विषय रही है। सरकार और सरकार चलाने वालों की यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि वे कानून का उल्लंघन करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा सुनिश्चित कराएं। लेकिन पंजाब में हालात कुछ उलट ही दिखे। बादल सरकार में सहयोगी और राष्ट्रभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली भारतीय जनता पार्टी ने राजोआणा के मामले में रहस्यमयी चुप्पी साध रखी थी। कांग्रेस मांग कर रही है कि राजोआणा की फांसी की सजा उम्रवैâद में बदल दी जाए। राज्य के तीन बड़े राजनीतिक दलों का ऐसा व्यवहार जहां गर्मख्याली संगठनों के हौसले बढ़ाने वाला लगा वहीं यह उन आतंकियों के लिए हौसले बढ़ाने वाला हो सकता है जो राज्य में आतंकवाद को सख्ती से कुचले जाने के बाद से सुसुप्तावस्था में पड़े हैं। दरअसल, तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारे श्रीलंकाई तमिलों, पंजाब में राजोआणा का मामला तथा संसद पर हमले के दोषी अफजल गुुरु के मुद्दे ने कई सवालों को खड़ा कर दिया है। एक खतरनाक प्रवृत्ति के हत्यारों को हीरो बनाकर वोटबैंक की राजनीति करने की बढ़ी है। चुनौती यह है कि इस पर रोक वैâसे लगाई जाए? देखा यह भी गया है कि दया याचिकाओं के निबटारे का तरीका भी बहुत लंबा और कुछ हद तक दोषपूर्ण है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा था कि ‘‘दया याचिकाओं के निबटारे में द्वैधता क्यों हैं?’’ बरसों-बरस दया याचिकाएं राष्ट्रपति के समक्ष विचारार्थ लंबित रहती हैं। प्रक्रिया के नाम पर टरकाऊ उत्तर दिये जाते हैं। इससे पीड़ित को न्याय मिलने में विलंब होता है तथा राजोआणा जैसे हत्यारों के पक्ष में निहित स्वार्थ सहानुभूति का माहौल बनाने में कामयाब हो जाते हैं। एक बुरी बात यह देखने में आने लगी है कि अब कई राजनीतिक दल भी वोट की घटिया राजनीति के चलते हत्यारों और अपराधियों के समर्थन में सहानुभूति प्रकट करने में झिझक महसूस नहीं करते। लेकिन ऐसा उन्हीं मामलों में अधिक देखा गया है जहां जनता के एक वर्ग में उन्माद भड़काना आसान होता है। याद करें, धनंजय चटर्जी को। एक नाबालिग लड़की का बलात्कार और उसकी हत्या के दोष में धनंजय को फांसी दे दी गई थी। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दलों ने इस मामले में हस्तक्षेप नहीं किया। वे जानते थे कि उन्हें ऐसे हत्यारे के लिए समर्थन नहीं मिलेगा। अनुभव रहा है कि पश्चिम बंगाल में अपराधियों को आमतौर पर संरक्षण और सहयोग नहीं मिलता है। इस राज्य में कानून तोड़ने वालों को आम लोगों द्वारा खदेड़े जाने के सैकड़ों उदाहरण भरे हैं। वहां धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रीयता, भाषा और जातीयता का प्रभाव कानून की राह में कम ही आता दिखा है। लेकिन पंजाब और तमिलनाडु में जो देखा गया वह चिंता बढ़ाने वाला है। अब लग रहा है कि कुछ कदम तत्काल उठाये जाने की जरूरत है। जैसे-आपराधिक मामलों के निबटारे को गति दी जाए और दो-तीन सालों में हर मामले का निबटना सुनिश्चित हो। ऊपरी अदालतों में अपीलों के निबटारे की समय-सीमा होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम पैâसले के बाद दया याचिका का अधिकतम छह माह में निबटारा होना चाहिए। इन प्रयासों से न्याय व्यवस्था पर आमजन का विश्वास और अधिक मजबूत होगा तथा हत्यारों एवं अपराधियों को हीरो बनाने का अवसर किसी को नहीं मिल सकेगा।