Monday, February 28, 2011

गोधरा फैसला : बैनर्जी का झूठ उजागर

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
गोधरा कांड पर विशेष अदालत के फैसले ने उन तमाम दावों और लोगों के इस विश्वास की पुष्टि की है कि २७ फरवरी २००२ को साबरमती एक्सप्रेस के स्लीपर कोच एस-६ में साजिश के तहत बाहर से आग लगाई गई थी। विशेष अदालत ने कल गोधरा कांड मामले में अपना फैसला सुनाते हुए दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। उस दिल दहला देने वाले हमले में सांप्रदायिक उन्मादियों के हाथों ५८ कारसेवक जिंदा जला दिये गये थे। अदालत ने तथ्यों, गवाहों के बयान और सबूतों के आधार पर ३१ लोगों को दोषी पाया है। ६३ अन्य आरोपी बरी कर दिये गये। सजा का ऐलान २५ फरवरी को किया जाएगा। गोधरा कांड मामले में विशेष अदालत का फैसला उन पाखण्डी सेकुलरिस्टों के मुंह पर करारा तमाचा है जिन्होंने गोधरा जैसी घटना तक में वोट बैंक की राजनीति करने में शर्म महसूस नहीं की। तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा अनावश्यक और विशुद्ध रूप से भ्रम फैलाने के मकसद से नियुक्त यूसी बैनर्जी कमेटी के निष्कर्ष अदालत के फैसले से झूठे और गलत साबित हुए हैं। बैनर्जी कमेटी ने कहा था कि गोधरा में कारसेवकों के स्लीपर कोच में आग दुर्घटनावश अंदर से ही लगी थी। कारसेवकों की मौत दम घुटने से हुई तथा इस साजिश में कोई बाहरी व्यक्ति शामिल नहीं था जबकि गोधरा कांड पर नानावटी कमीशन कह चुका था कि ट्रेन के डिब्बे में आग बाहर बाहरी से लोगों द्वारा जानबूझकर लगाई गई थी। नानावटी कमीशन ने मौतों का कारण आग से जल जाना बताया था। नानावटी कमीशन की रिपोर्ट और विशेष अदालत के फैसले ने यू.जी. बैनर्जी के समक्ष नैतिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता को लेकर सवाल खड़ा कर दिया है। इस तथ्य की जांच होनी चाहिए कि बैनर्जी कमीशन ने किस दबाव, अनुरोध, किसकी प्रेरणा और किस प्रलोभन के चलते सत्य पर पर्दा डालकर न्याय को गुमराह करने का पाप किया? इस बात की जांच होनी चाहिए कि गोधरा कांड के सच पर पर्दा डालने की कोशिश करके तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने कौन सा लाभ लेने की कोशिश की थी। हैरानी होती है कि लोग गुजरात के दंगों को लेकर आज तक मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश करते आ रहे हैं लेकिन कितने लोगों ने गोधरा में जिंदा जला दिये गये ५८ रेल यात्रियों के परिजनों की खबर ली। गुजरात के दंगों को गोधरा कांड की प्रतिक्रिया माना जाता है । न तो गुजरात के दंगाइयों का बचाव किया जाना चाहिए और ना ही गोधरा में निहत्थे रेल यात्रियों को घेर कर जला डालने वाली उन्मादियों की भीड़ के बचाव में किसी का किसी भी तरह से आगे आना शोभा देता है। दोनों ही स्थितियां बर्बर प्रवृत्तियों के पुन: सिर उठाने का प्रमाण रही हैं। कानून पसंद सभ्य समाज में ऐसी हरकतों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। आश्चर्य होता है कि कतिपय गैर-सरकार संगठन (एनजीओ) मीडिया, का एक वर्ग, कुछेक बुद्धिजीवी और राजनीति की धूर्त सेकुलरिस्ट लॉबी ने गुजरात दंगों की बात करते समय हमेशा ही गोधरा कांड की चर्चा से कन्नी काट ली। गुजरात दंगों को अगर आप प्रशासनिक मशीनरों की असफलता और कानून के शासन का पंगु हो जाना मानते हैं तब गोधरा कांड को क्या कहेंगे? कारसेवकों को ंिजदा जला रहे उन्मादी तत्वों में कानून का खौफ तो था नहीं, उन्हें भरोसा रहा होगा कि ऐसे जघन्य कृत्य के बाद उनका बाल बांका नहीं होने दिया जाएगा। ऐसे हत्यारों को सजा उनके रोंगटे खड़े कर देने वाली सुनाई जाना चाहिए।

Sunday, February 27, 2011

उपद ठूंठ पर बैठना

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
बाबा रामदेव ने कांग्रेस की चुनौती स्वीकार कर ली है। बाबा यहीं नहीं रुके। उन्होंने पलटवार किया है। बाबा अपने ट्रस्ट की जांच कराने को तैयार हैं लेकिन चाहते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के ट्रस्टों की भी जांच हो। बाबा ने मांग की है कि नेहरू-गांधी परिवार के प्रत्येक सदस्य की कमाई और उनके खर्च का विवरण राष्ट्र को दिया जाए। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा बाबा रामदेव के विरुद्ध छेड़े गये इस वाव् युद्ध में आगे काफी कुछ देखने-सुनने को मिलने की आशा है। एक बात तय है कि दिग्विजय सिंह ने बाबा रामदेव पर निशाना साधते समय कल्पना नहीं की होगी कि इस निशानेबाजी पर देश भर में इतनी व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि बिना झोली के फकीर सा दिखने वाला योगगुरु विशुद्ध राजनेताओं की स्टाइल में बखिया उधेडऩे की मुद्रा में आ जाएगा। दिग्विजय सिंह ने गत दिवस आरोप लगाया था कि बाबा रामदेव के ट्रस्ट के पास करोड़ों की सम्पत्ति है जिसकी जांच होनी चाहिए। यह योग गुरु पर सीधा हमला था। विश्लेषकों का कहना है कि कालेधन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध बाबा रामदेव द्वारा चलाये जा रहे अभियान को कांग्रेस के कुछ लोग राजनीतिक साजिश मान रहे हैं। उन्हें लगता है कि बाबा रामदेव संन्यासी हैं और अपनी लोकप्रियता के बूते वह कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह द्वारा लगाये गये आरोपों को उसी अभियान का जवाब माना जा रहा है। प्रश्न यह है कि बाबा रामदेव द्वारा चलाये रहे अभियान के बीच उन पर लगाया गया आरोप क्या गलत समय पर उठाया गया गलत कदम नहीं है।
कहा जा रहा है कि कालेधन और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने तथा उसकी अनदेखी करने जैसे आरोपों से घिरी कांग्रेस की अगुआई वाली संप्रग सरकार के बचाव में तो बाबा रामदेव को घेरने की कोशिश नहीं की गई है? यदि उत्तर हां है तब कहना होगा कि इससे कांग्रेस को ही नुकसान होगा। बाबा रामदेव ने टेलीविजन कैमरों के सामने सीना ठोंककर कह दिया है कि उनके नाम पर एक इंच भूमि तक नहीं है। उनका कोई बैंक एकाउण्ट नहीं है।’’ योग गुरु मानते हैं कि उनके ट्रस्ट के पास १११५ करोड़ रुपये की सम्पत्ति है। उन्हें देशवासियों के आध्यात्मिक उत्थान और सभी के लिए आरोग्य सुनिश्चित करने के लिए अधिक धन की आवश्यकता है। अत: आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण और बिक्री तथा योग प्रशिक्षण की फीस और दान के रूप में मिलने वाला धन उनका ट्रस्ट लेता रहेगा।
यह तय है कि बाबा रामदेव अपने कदम वापस नहीं लेंगे। कुछ लोग सलाह देते हैं कि बाबा योग गुरु हैं, संन्यासी हैं अत: उन्हें राजनीति की दलदल में नहीं उतरना चाहिए। सुनने में ऐसी टिप्पणी कुछ हद तक उचित लगती है किन्तु विचारणीय मुद्दा यह है कि बाबा ने अभी तक राजनीति के शुद्धिकरण और पुनर्जन्म की बात की है। उन्होंने कहां कहा है कि वह स्वयं राजनीति में आ रहे हैं। वैसे भी इस देवभूमि का इतिहास गवाह है कि यहां संकट की स्थिति और मुश्किलों के दौर में ऋषि-मुनि, संत और संन्यासी राष्ट्र की रक्षा के लिए आगे आते रहे हैं। कांग्रेस द्वारा छेड़े जाने से उन्हीं विभूतियों की Ÿोणी में बाबा रामदेव के आ खड़े होने की संभावना बन गई है। अब कांग्रेस क्या करेगी? बरबस एक मुहावरा याद आ गया, ‘‘उपद ठूंठ पर बैठना।’’ यह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से मिलता-जुलता है। कांग्रेस की स्थिति कुछ ऐसी ही दिखाई दे रही है।

Friday, February 25, 2011

मुस्लिम आरक्षण: वोट बैंक का खेल

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सोमवार को अखबारों में यह खबर पूरी सुर्खियों के साथ छपी है कि केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार मुस्लिम आरक्षण पर फैसला लेने का मन बना रही है। उल्लेखनीय है कि रंगनाथ मिश्र आयोग की संसद में पेश की गई रिपोर्ट में भी अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने का सुझाव दिया गया था। अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि सरकार का इरादा समूचे अल्पसंख्यक समुदाय को इस योजना में शामिल करने का है या फिर किसी सियासी तिकड़म के द्वारा सिर्फ मुस्लिमों को आरक्षण देने की कोशिश की जाएगी। वैसे सरकार की राह उतनी आसान नहीं होगी क्योंकि प्रमुख विपक्षी दल-भारतीय जनता पार्टी धर्म के आधार पर मुसलमानों को आरक्षण देने का विरोध करती आई है। मुसलमानों को आरक्षण देने की बात सोनिया गांधी द्वारा अल्पसंख्यक आयोग को दिये गए आश्वासन से जोड़ी जा रही है। सच यह है कि यह सारा खेल असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी और केरल विधानसभा के इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर खेला जा रहा है। कांग्रेस की नजर उत्तर प्रदेश के मुस्लिम वोट बैंक पर भी लगी जो अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे जानकारियों के अनुसार मुसलमानों को आरक्षण की रेवड़ी देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, केरल, कर्नाटक और कुछ अन्य राज्यों में आरक्षण के फार्मूलों का सहारा लिया जाएगा। ऐसे राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कोटे में से मुसलमानों को आरक्षण दिया जा रहा है। मुसलमानों को आरक्षण को लेकर देश में कभी भी आम सहमति नहीं बन पाई। कतिपय राजनीतिक दल जिनमें वामपंथी गठबंधन भी शामिल हैं मुस्लिम आरक्षण की वकालत करते रहे हैं लेकिन इस समर्थन का एक मात्र उद्देश्य मुसलमानों के वोटों को हथियाना ही रहा है। दूसरी ओर भाजपा समेत बहुसंख्यक समुदाय का एक बड़ा वर्ग मानता है कि धर्म के आधार पर आरक्षण एक खतरनाक और विध्वंसकारी सोच है। उनका मानना है कि आरक्षण से मुस्लिम समुदाय का कोई विशेष भला नहीं होगा। जरूरत मुस्लिमों में शिक्षा के प्रसार, और स्व-रोजगार आदि पर जोर दिये जाने की है। जरूरत उन कारणों को तलाशने और उन्हें दूर करने की है जिनके चलते मुस्लिम अन्य समुदायों की तुलना में पिछड़ गए। इस काम में मुस्लिम धार्मिक और सामाजिक नेताओं का सहयोग मिलना चाहिए। यह कड़वा सच है कि कुछ स्वार्थी तत्व आम गरीब, अशिक्षित और पिछड़े मुसलमानों का मार्गदर्शन करने की बजाय उन्हें बरगलाते हैं। धार्मिक शिक्षाओं की अपने-अपने अंदाज में व्याख्यायें कर दी जाती हैं। अलग पहचान दिखाने के नाम पर कोशिश उन्हेंं मुख्य धारा से अलग रखने की होती है। जब तक आम मुसलमान को भ्रमित किया जाता रहेगा वह मुख्य धारा से जुड़ाव कैसे महसूस कर पाएगा? कैसे वह अन्य समुदायों के साथ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की चुनौती का जवाब दे सकेगा? पिछले दिनों दारूल उलूम देवबंद के नए चान्सलर ने तक आरक्षण की बैसाखी की बजाए मुस्लिमों की शिक्षा को जरूरी बताया था। इस देश के साथ यह दुर्भाग्य जुड़ गया है कि यहां के अकर्मण्य राजनेताओं ने जातिवाद और छद्म धर्मनिरपेक्षता को समानता के नाम पर हथियार के रूप में उपयोग शुरू कर दिया है। उनके खेल ने अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए शुरू की गई आरक्षण व्यवस्था के मूल उद्देश्य को ही तार-तार कर दिया। आज आबादी के अनुपात में सीना ठोंक कर आरक्षण मांगा जाता है। समझ में नहीं आता कि आरक्षण का यह खेल कब तक चलेगा। आरक्षण देश को कहां ले जाएगा?

Thursday, February 24, 2011

साजिशों की शिकार बी.एस.एन.एल

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
एक रिपोर्ट के अनुसार भारत संचार निगम लिमिटेड यानी बी.एस.एन.एल को हर माह ४०० करोड़ का नुकसान उठाना पड़ रहा है। यही स्थिति रही तो इस वर्ष के अंत तक बी.एस.एन.एल दिवालिया हो जाएगी। लोगों को यह जानने की उत्सुकता अवश्य होगी कि मात्र छह सालों में ऐसा क्या हो गया जो बी.एस.एन.एल इतने बड़े आर्थिक संकट की ओर बढऩे लगी है। सन् २००४ में जब पहली बार केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार आई थी उस समय बी.एस.एन.एल के नाम पर ३० हजार करोड़ की नकदी थी। २००९-१० में बी.एस.एन.एल के राजस्व में १० फीसद कमी आई। इसके अलावा इस कंपनी को ३जी स्पेक्ट्रम की फीस के तौर पर १८५०० करोड़ रूपये चुकाने पड़े हैं।

हालांकि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने वादा किया है कि इस कंपनी को डूबने नहीं दिया जाएगा लेकिन प्रश्न यह है कि सरकार की ओर से मिलने वाली किसी भी आर्थिक-बैसाखी के सहारे बी.एस.एन.एल कितने कदम और चल पाएगी? तीन लाख से अधिक कर्मचारियों वाली बी.एस.एन.एल को देश की सबसे बड़ी और पुरानी दूर संचार कंपनी कहा जा सकता है। कंपनी का नया रूप ग्रहण करने से पूर्व यह दूरसंचार विभाग की इकाई के रूप में काम कर रही थी। दूरसंचार सेवाओं में निजी कंपनियों को प्रवेश की अनुमति देकर सरकार ने निश्चित रूप से देश में एक क्रांति सी ला दी। अफसोस इस बात पर है कि जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा के इस दौर में बी.एस.एन.एल को अपनों के विश्वासघात, प्रतिस्पर्धियों के व्यावसायिक प्रपंच और सरकार की अदूरदर्शिता की मार खानी पड़ी। बी.एस.एन.एल के हाथों को नियमों की रस्सियों से बांध कर निजी कंपनियों से मुकाबला करने के लिए छोड़ दिया गया। निजी कंपनियों ने पहले उसके लैण्डलाइन आधार में सेंध मारी। इसके बाद शुरू हुआ मोबाइल सेवा में मुकाबला। प्रमोद महाजन, रामविलास पासवान, दयानिधि मारन से लेकर ए.राजा तक जितने भी दूरसंचार मंत्री हुए उनके फैसले बी.एस.एन.एल के हित में नहीं रहे। प्रमोद महाजन के कार्यकाल में बी.एस.एन.एल को मोबाइल सेवा शुरू करने की अनुमति विलम्ब से मिली। नतीजा यह हुआ कि निजी आपरेटर बाजार पर कब्जा जमाने में कामयाब हो गए। इसके बाद उपकरण के टेंडर आदि में राजनीतिक अड़ंगेबाजी देखी गई। बी.एस.एन.एल की मोबाइल सेवा शुरू होने में इतना अधिक विलम्ब करवा दिया गया कि उपभोक्ताओं में इसके प्रति आकर्षण ही खत्म हो गया। फिर निजी कंपनियों की तरह बी.एस.एन.एल पेशेवर अंदाज नहीं अपना पाई। लैण्ड लाइन, मोबाइल और ब्रॉड बैण्ड सेवाओं में उसकी योजनाएं प्रतिस्पर्धी नहीं रहीं। सत्ताधारी राजनेताओं की खुराफातों से कमजोर हुई बी.एस.एन.एल में विभीषण पैदा हो गए। कुछ माह पूर्व भोपाल में एक उदाहरण सामने आया। बताया जाता है कि एक व्यक्ति ने ब्रॉड बैण्ड सेवा के लिए बी.एस.एन.एल द्वारा लगाई गई केनापी में जानकारी चाही। वह वहां से वापस अपने घर नहीं पहुंचा और एक निजी कंपनी के लोग आ धमके। वे काफी कम दर पर ब्रॉड बैंड सेवा उपलब्ध कराने का वादा कर रहे थे। ऐसे आरोप सुनने में आते रहे हैं कि कुछ बड़े अधिकारी भारी वेतन के लालच में बी.एस.एन.एल छोडक़र निजी कंपनियों में चले गए। उन्होंने भी बी.एस.एन.एल के हितों पर गहरी चोट की है।

हाल के वर्षों में बी.एस.एन.एल के विनिवेश की चर्चा चली थी। यह आरोप लगाने में संकोच नहीं हो रहा कि साजिश के तहत बी.एस.एन.एल को बीमार बनाया जा रहा है ताकि इसके विनिवेश में अधिक विरोध का सामना न करना पड़ा। २जी स्पेक्ट्रम और एस बैंड आवंटन में हुए भ्रष्टाचार के पर्दाफाश के बाद बी.एस.एन.एल के विरूद्ध चौतरफा साजिशों की आशंका से कैसे इंकार किया जा सकता है। ऐसा लगता, पिछले डेढ़ दशक में बी.एस.एन.एल को जिस तरह नुकसान पहुंचाया गया उसमें हुए भ्रष्टाचार की राशि लाखों करोड़ों रूपयों में होगी।

Wednesday, February 23, 2011

वन्य जीवों का दुश्मन वन मंत्री

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
कल्पना के बाहर की बात है । देश के एक राज्य में ऐसे वन मंत्री महोदय हैं जिनका कहना है कि जंगलों में हाथी, गेंडे, तेंदुये, हिरण और जंगली भैंसों की बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाया जाए। उनका सुझाव कम विचित्र नहीं है। मंत्री जी फरमाते हैं, ‘‘इन अतिरिक्त पशुओं को उन शौकीन लोगों के लिए नीलाम कर देना चाहिए जो इन्हें पालना चाहते हों या फिर इन्हें विदेशी चिडिय़ाघरों में भेज दिया जाए। ’’ वन मंत्री महोदय का मानना है कि उपर्युक्त दो काम नहीं किये जा सकते हैं तो इन वन्य जीवों की नसबंदी करके छोड़ दिया जाए ताकि उनकी आबादी न बढ़े। यह दो कौंड़ी का सुझाव पश्चिम बंगाल के वन मंत्री अनंत रे ने दिया है। उनकी विकृत सोच पर राज्य के वन विभाग के चापलूस अधिकारी मुग्ध हैं। तैयारी केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को पत्र भेजने की है ताकि इस मूर्खतापूर्ण पहल को केंद्र की मंजूरी मिल सके। हैरानी इस बात को लेकर है कि अनंत रे जैसे अज्ञानी और उलट दिमाग व्यक्ति को पश्चिम बंगाल के वन विभाग की जिम्मेदारी किसके सुझाव पर सौंपी गई? अनंत रे ने प्रेस के समक्ष अक्ल का नमूना पेश करते हुए साबित कर दिया है कि उन्हें वन और वन्य जीवों के महत्व का रत्तीभर ज्ञान नहीं है। वह वन्य जीव संरक्षण कानून तक के बारे में नहीं जानते। उन्हें तेजी से घट रही वन्य जीवों की संख्या, उसको लेकर दुनिया भर में व्यक्त की जा रही चिंता और वन्य जीवों की रक्षा के लिए किये जा रहे विश्वव्यापी प्रयासों की जानकारी नहीं है। वन मंत्री का यह तर्क कौन स्वीकार कर पाएगा कि वन्य जीवों की आबादी बढऩे से वे कई बार जंगलों से लगी इंसानी बस्तियों और गांवों में आ जाते हैं तथा लोगों को घायल कर देते हैं। रे को याद दिलाना जरुरी है कि हाल ही में हिमाचल प्रदेश में किसानों के संगठन के दबाव में सरकार ने बंदरों को गोली मारने की छूट दे दी थी। इस आदेश की सर्वत्र आलोचना हुई। राज्य सरकार को रक्षात्मक मुद्रा में आना पड़ा। लेकिन अनंत रे अपने आप में एक मात्र उदाहरण नहीं हैं। ऐसे निर्मोही, दुष्ट और क्रूर सोच वाले लोग आये दिन देखने-सुनने को मिलते हैं। पिछले दो-ढाई दशक में सैकड़ों तेंदुओं को लोगों ने घेर कर इसलिए मार डाला क्योंकि उन्होंने इंसानी बस्तियों में घुसने की गलती की थी। कितने लोग इस विषय पर विचार करते हैं कि हाथी, गेंडे और तेंदुये जैसे वन्य जीव अपने प्राकृतिक आवास से बाहर क्यों आ जाते हैं? वन्य जीव विशेषज्ञों का मत है कि बढ़ती मनुष्य आबादी के कारण शहर फैल रहे हैं। खेतों पर कांक्रीटी जंगल खड़े होने लगे। खेती के लिए जमीन और लकड़ी की लालच के चलते सुनियोजित ढंग से वनों का सफाया किया जा रहा। वन सिमट रहे हैं। जहां घने वन थे वहां पेड़ कम हो गए। जब छाया, पानी और भोजन नहीं मिलेगा तो भूखे-प्यासे वन्य जीव क्या करेंगे? वे बचे-खुचे जंगलों से बाहर निकलने का दुस्साहस करते हैं। वहां मौत उनके इंतजार में खड़ी मिलती है। पीट-पीट कर मार डाला जाता है। यह तथ्य कोई स्वीकार नहीं करता कि जब पेड़-पौधे और अन्य जीव ही इस धरती पर नहीं होंगे, ऐसी स्थिति में मनुष्य जीवन कितने दिन चलेगा? पश्चिम बंगाल के वन मंत्री अनंत रे पर वनों और वन्य जीवों की रक्षा का जिम्मेदारी है। यह विचित्र व्यक्ति वन्य जीवों की नसबंदी का सुझाव दे रहा है। ऐसे व्यक्ति को वन मंत्री पद पर रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। रे को तत्काल चलता किया जाना चाहिए।

Saturday, February 19, 2011

एक धोती, एक कुर्ता, एक पैजामा, एक रूमाल....!

संदर्भ : विदेश मंत्री की लापरवाही

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
वाह, यह भी खूब रही। एक तो अव्वल दर्जे की लापरवाही उस पर तुर्रा देखिये। गलती मानने की बजाय विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा कह रहे हैं कि ‘‘ संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में उनके सम्बोधन के समय हुई गड़बड़ी कोई बड़ी बात नहीं है।’’ कृष्णा का तर्क है कि ‘‘ सुरक्षा परिषद की उस बैठक के दौरान उनके सामने बहुत से कागज पड़े थे। इसलिए गलती से गलत सम्बोधन उनके हाथ में आ गया।’’ पिछले शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में कृष्णा लगभग तीन मिनट तक पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण पढ़ते रहे। वह शायद रुकते भी नहीं अगर समय रहते उन्हें इस गलती का अहसास संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के राजदूत हरदीप सिंह पुरी ने नहीं करवाया होता। नि:संदेह गलती किसी भी इंसान से हो सकती है। लेकिन यह मामला लापरवाही का था। उस पर कृष्णा की ढिठाई देखिये गलती मानने और खेद व्यक्त करने की बजाय उस चूक को साधारण बात निरुपित कर रहे हैं। यह क्यों न कहें कि जो हुआ उसकी वजह विषय के प्रति कृष्णा का अ-गंभीर रुख था या यह आरोप लगायें कि उस महत्वपूर्ण बैठक के समय वह एब्सेंट माइंड थे। इस घटना से बरसों पहले, जब रेडियो सीलोन बेहद लोकप्रिय था, रेडियो पर प्रसारित एक कार्यक्रम में मशहूर कलाकार आईएस जौहर का सुनाया गया चुटकुला याद आ गया।
जौहर सुना रहे थे। एक कवि मंच पर आये, कुर्ते की जेब से एक डायरी निकाली और कविता पाठ करने लगे- ‘‘ एक धोती, एक कुर्ता, एक पैजामा, एक रूमाल...! ’’ कवि महोदय उक्त पंक्ति को चार-पांच बार दोहरा गये। दर्शकों में से किसी ने आवाज लगाई, ‘‘ आगे तो बोलिये!’’ कवि एक क्षण के लिए रुके फिर हाथ जोडक़र क्षमा मांगते हुए जवाब दिया, ‘‘ माफ कीजिए, पत्नी ने धोखे से कुर्ते की जेब में मेरी कविताओं की डायरी के स्थान पर धोबी के हिसाब की डायरी रख दी।’’ जौहर द्वारा सुनाया गया वह चुटकुला कृष्णा जैसे लोगों को देखते हुए आज भी सामयिक लगता है। यह घटना उन सभी लोगों के लिए एक सबक होना चाहिए जो लिखे-लिखाये भाषणों को किसी मंच पर अथवा फोरम में पढऩे से पहले उन पर एक नजर डालना भी जरूरी नहीं समझते। निश्चित रूप से कुछ विशेष आयोजनों में लिखित भाषण ही पढऩे का चलन है। बड़े-बड़े दिग्गज वक्ता भी तथ्यों के गलत प्रस्तुतीकरण और लय टूटने का जोखिम उठाने की बजाय लिखित भाषण पढऩे पर ही जोर देते हैं। कुछ लोग सिर्फ लिखित भाषण ही पढ़ते हैं। दरअसल, भाषण देना और भाषण पढऩा दोनों अलग-अलग कलायें हैं। कुछ लोग लिखे हुए भाषण को इतने बेहतरीन अंदाज में पढ़ते हैं कि श्रोता मंत्रमुग्ध से नजर आते हैं। कुछ की आवाज लिखे हुए भाषण को पढ़ते-पढ़ते कांपने लगती, जुबान लटपटा जाती है। जो लोग भाषण देते हैं, अर्थात बिना लिखित भाषण के बोलते हैं उनके शब्द उनके दिल की आवाज माने जाते। उसमें अध्ययन, अनुभव, बौद्धिक चातुर्य और बात संभालने की समझ होती है। जुबान जरा सी फिसली तो संभलने में देर नहीं लगती। लेकिन विशेष अवसर पर सरस्वती की कृपापात्र ऐसे दिग्गजों को तक लिखित भाषण पढ़ते देखा गया है। भाषण देने वालों की एक तीसरी Ÿोणी भी देखी जाने लगी है। इसमें मूल रूप से कुछ राजनेताओं और कुछेक श्रमिक नेताओं को रखा जा सकता है। ‘‘ जुबानी-अर्श’’ से पीडि़त इस तीसरी Ÿोणी के लोगों को सिर्फ जुबान फटकारना आता है। इसके अच्छे-बुरे प्रभावों से ये बे-परवाह होते हैं।
हमारे विदेश मंत्री से हुई चूक पर विचार करने पर समझ में यह आ रहा है कि अपने लिखित भाषण को पढऩे से पहले उस पर एक नजर डालने की जहमत तक उन्होंने नहीं उठाई थी। कृष्णा का यह तर्क अपना सिर धुन लेने के लिए काफी है कि टेबल में बहुत से कागज पड़े थे इसलिए गलती से वह पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण उठा बैठे। सवाल यह है कि ऐसी गलती या लापरवाही हुई कैसे? सुरक्षा परिषद जैसे महत्वपूर्ण मंचों पर ऐसी चूक से समूचे राष्ट्र के सम्मान को ठेस पहुंच सकती है। कृष्णा के लिए घटना बड़ी बात नहीं होगी परंतु उन्हें याद रखना चाहिए कि सुरक्षा परिषद में वह भारत के विदेश मंत्री और सवा अरब भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में मौजूद थे। ऐसी ‘‘ छोटी-छोटी बातें’’ हमारे विषय में कैसी छवि दुनिया में फैलाती होंगी? यही कि भारतीय इतने लापरवाह होते हैं? भविष्य में ऐसी गलतियों की पुनरावृत्ति की आशंका की स्थिति में कृष्णा से यह अपेक्षा की जाती है कि वह कागजों का अंबार लगाने की बजाय काम के कागज ही साथ में रखा करें।
वैसे, भारतीय राजनीति में कृष्णा एक मात्र उदाहरण नहीं हैं। लैंस लगाकर देखें और कई कृष्णा निकल आएंगे। अब वह जमाना कहां रहा जब देश में एक से बढक़र एक नेता थे। वे बोलते थे तो लगता था मस्तिष्क में गणपति और कंठ में सरस्वती विराजमान हैं। घण्टों तक धाराप्रवाह भाषण देने की क्षमता थी उन महान नेताओं में। गहरा अध्ययन, अनुभव और पक्का होमवर्क साफ समझ में आता था। रैली और सभाओं की छोडिय़े, संसद और विधानसभाओं तक में उन महान नेताओं का वाकचातुर्य देख लोग दांतों तले अंगुली दबा लेते थे। विधायिका में बहस का स्तर उच्च था। वहां कही जाने वाली बातों में गहराई थी। आज स्थिति उलट है। नेताओं के पास न तो पढऩे-समझने के लिए समय है और न उनमें इसके प्रति रुचि है। उस पर ज्ञानी और समझदार होने का भ्रम अलग एक मुसीबत है। बिना तैयारी के जुबान फटकार दी जाती है। सदन में चर्चा का स्तर गिरने की एक प्रमुख वजह यह भी है। कृष्णा से हुई चूक बिना तैयारी के युद्ध में कूद पढऩे जैसी स्थिति दर्शाती है। यह एक सबक है। घर में कुछ भी कहलें परंतु विश्व मंच पर यह सब नहीं चल सकता। कृष्णा का उदाहरण एक सबक है जो सियासी रंगरुटों को गहन प्रशिक्षण की जरूरत बता रहा है। ताकि, भविष्य में गलती से गलत कागज पकड़ में आ जाए तो भी उनका दिमाग स्थिति को संभालने में सक्षम हो।

Friday, February 18, 2011

राहत फतेह अली और गुलफाम हसन

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
विदेशी मुद्रा की तस्करी के आरोप में भारत में गिरफ्तार किये गये पाकिस्तानी गजल गायक राहत फतेह अली खान को पाकिस्तान की ओर से आए दबाव के चलते रिहा कर दिया गया। इस मामले से अनेक सवाल अवश्य उठ खड़े हुए। पहली बात यह है कि क्या इस देश में आम लोगों और खास लोगों के लिए अलग-अलग प्रावधान हैं। आशंका यह भी निराधार नहीं है कि सब चलता है की अपनी मानसिकता के चलते भारत सरकार इस पाकिस्तानी कलाकार को धीरे से चलता कर दे। खबर है कि राजस्व गुप्तचर निदेशालय ने राहत फतेह अली खान और उनके दो साथियों के पासपोर्ट जब्त कर लिये हैं। उन्हें आगे की पूछताछ के लिए १७ फरवरी को पुन: बुलाया गया है। इस बीच उस इवेंट मैनेजमेंट कंपनी की जांच की जा रही है जिसके न्यौते पर राहत यहां आए थे। राहत फतेह अली खान और उनके ट्रुप के सदस्यों को एक लाख २४ हजार डालर जैसी काफी बड़ी लेकिन अघोषित रकम ले जाते हुए रविवार की शाम राजस्व गुप्तचर निदेशालय ने नई दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पकड़ा था। यह कार्रवाई पुख्ता सूचना के आधार पर की गई थी। नियम यह है कि विदेशी मूल का कोई नागरिक ५००० अमेरिकी डालर से अधिक की नगद राशि और ५००० डालर किसी अन्य माध्यम के तौर पर नहीं रख सकता है। यदि इससे अधिक राशि है तब उसकी सूचना कस्टम डिपार्टमेंट को देनी चाहिए। साफ बात है कि राहत फतेह अली खान ने इस देश के कानून का उल्लंघन किया है।
राहत फतेह अली खान की गिरफ्तारी पर पाकिस्तान सरकार की सक्रियता स्वाभाविक थी। लेकिन इस गिरफ्तारी के विरोध में पाकिस्तानियों का सडक़ों पर उतर आना उनकी कुण्ठा और भारत के प्रति अविश्वास का प्रमाण है। राहत के बचाव में पाकिस्तानी अभिनेत्री वीना मलिक, रेशमा और मीरा के बयान दुनियादारी के प्रति उनकी ना समझी का प्रमाण है। यह कहना निरी मूर्खता ही है कि राहत ने जान बूझकर गलत काम नहीं किया है। ऐसे बचाव के बयानों से क्या अर्थ निकालें? दुनिया भर में कार्यक्रम और सैकड़ों बार विदेश यात्राएं कर चुके राहत इतना भी नहीं जानते कि विदेशियों के लिए किस देश के क्या कुछ खास नियम-कानून हैं। भारतीय फिल्म इश्किया मैं ‘‘दिल तो बच्चा है जी’’ गाकर फिल्म फेयर अवार्ड जीतने वाले इस गजल गायक को बच्चा मान कर माफ नहीं किया जा सकता।
राहत फतेह अली खान को विदेशी मुद्रा ले जाते पकड़े जाने पर काफी तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। किसी ने कहा है, राहत की गिरफ्तारी से १९९९ में आई फिल्म सरफरोश की याद आ गई। फिल्म में पाकिस्तानी गजल गायक गुलफाम हसन की भूमिका नसीरुद्दीन शाह ने अदा की है। फिल्म में गुलफाम हसन भारतीयों के बीच अपनी लोकप्रियता का दुरुपयोग करते हुए यहां आतंकवाद फैलाने का काम करता था। वह बाद में पकड़ा और मारा जाता है। हम नहीं कह रहे हैं कि राहत फतेह अली खान और सरफरोश के पात्र गुलफाम हसन के बीच कोई समानता है। लेकिन एक बात तो है गुलफाम हसन पाकिस्तानी था वह यहां के कानून का उल्लंघन कर रहा था। राहत भी पाकिस्तानी है उन पर भी कानून का उल्लंघन करने का आरोप लगा है। राहत के मामले में लीपा-पोती नहीं होना चाहिए। उन्होंने कानून तोड़ा है और उन पर कड़ी कार्रवाई जरूरी है। अभी कुछ माह पूर्व किसी अखबार में गजल गायक जगजीत सिंह और पाश्र्वगायक अभिजीत के बयान पढ़े थे। उन्होंने भारत में मौजूद पाकिस्तानी कलाकारों के हमदर्दों से सवाल किया था कि इस धरती में उन्हें कलाकार नहीं मिलते जो पाकिस्तानी कलाकारों के पीछे भागते हैं? बात सही है ये पाकिस्तानी कलाकार यहां आते, खूब कमाते और धन बटोरकर चलते बनते। दौलत और शोहरत यहां कमाते हैं और मौका आने पर जहर उगलने से तक पीछे नहीं रहते। मगर करें तो करें क्या? अपना सिक्का ही खोटा है। यह तय मानें की भारत सरकार राहत को रोके नहीं रख पाएगी। हां, उन लोगों को पहचान कर कानूनी कार्यवाही अवश्य की जाए तो देश का धन उलीच कर पाकिस्तानियों की जेब में डालते हैं।

आस्तीन की नागिन

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पार्टी-पीडीपी ने विजन आन कश्मीर नाम से एक पॉवर पाइंट पे्रेजेंटेशन तैयार किया है। खास बात यह है कि इस प्रेजेंटेशन में कराकोरम और अक्साई चिन को चीन का हिस्सा बताया गया है। यह एक तथ्य है कि भारत इस क्षेत्र को हमेशा से अपना मानता है। यही नहीं पीडीपी श्रीनगर को चीन के यारकंड से जोडऩा चाहती है। पीडीपी का यह कारनामा स्वीकार नहीं किया जा सकता। महबूबा मुफ्ती और पीडीपी सवालों के घेरे में हैं। पीडीपी की इस हरकत पर केंन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने गंभीरता से लेते हुए चेतावनी दे दी है कि पीडीपी ने नक्शे को नहीं सुधारा तो कार्रवाई करेंगे। गृहमंत्री की नाराजगी समझ मे आने वाली बात है परंतु पीडीपी के विरूद्ध तत्काल कोई कार्रवाई करने में केंद्र की झिझक उजागर हो रही है। यह तय मानें की पीडीपी ने यह हरकत जानबूझकर और किसी दूरगामी रणनीति को ध्यान में रखकर की है। इससे दो दिन पहले ही पीडीपी ने कश्मीर की तुलना मिस्र से की थी। यह कहने में झिझक नही हो रही कि महबूबा मुफ्ती सियासत के बुखार के चलते अपनी ज्ञान ज्योति खो बैठी हैं। नक्शे वाले मसले पर उनका मूर्खतापूर्ण तर्क यह है कि ‘‘नक्शे को गलत संदर्भ में लिया जा रहा है, यह कश्मीरियों की सहूलियत के लिए इस्तेमाल किया गया है।’’ कैसी सहूलियत और क्या संदर्भ? महबूबा मुफ्ती की अब तक की राजनीतिक यात्रा पर नजर डालें। एक बात साफ तौर पर समझ में आती है कि उनका रवैया टकराव वाला रहा है। वह विवाद को गरमाने और उसकी आंच में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने मे माहिर हो गई हैं। पिछले पांच सात सालों पर गौर करें महबूबा मुफ्ती और उनके अब्बा हुजूर के अधिकांश फैसलों और हरकतों से पाकिस्तान या पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों और कश्मीर अलगाववादियों को ही लाभ मिला होगा।
दो टूक शब्दों में कह सकते हैं कि महबूबा मुफ्ती और उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद की निष्ठा हमेशा संदिग्ध रही है। बाप बेटी की इस जोड़ी ने कितनी बार कश्मीर घाटी में अलगाववादियों के द्वारा पाकिस्तानी झंडा फहराये जाने का विरोध किया? अमरनाथ बोर्ड भूमि आवंटन के खिलाफ अलगाववादियों द्वारा किये गए उपद्रवों में महबूबा की भूमिका आग में घी जैसी रही। सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाने वालों के खिलाफ महबूबा ने कभी मुंह नहीं खोला। महबूबा ने हमेशा भारत के विरूद्ध नागिन की तरह जहर उगला है। वह जवाब दें कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर मे कश्मीरियों के मानव अधिकारों के हनन पर क्यों चुप रहती हैं ? विडम्बना यह है कि महबूबा मुफ्ती और मुफ्ती मोहम्मद सईद की फितरत से वाकिफ होते हुए भी इस देश का राजनीतिक नेतृत्व इन्हें मुंह लगाये रखता रहा। अब तो यह संदेह होने लगा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई वाली सरकार में मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृहमंत्री बनाया जाना किसी अंतरराष्ट्र्रीय साजिश का हिस्सा था। सईद ने १९९० में अपने बेटी रूबिया सईद के अपहरण के नाटक में अपहर्ताओं के सामने जिस तरह घुटने टेके उसी के बाद कश्मीर घाटी में आतंकवाद बढ़ा। गृहमंत्री रहते सईद यदि अपहर्ताओं को छोडऩे से इंकार कर देते तब उनकी छवि एक कायर और अक्षम गृहमंत्री के रूप बनने से बच जाती। वैसे महबूबा मुफ्ती के व्यवहार को देखते हुए यह आशंका निराधार नही कहीं जा सकती कि रूबिया का अपहरण सईद की जानकारी में ही और रूबिया की सहमति से किया गया होगा।
बहरहाल, यहां बरबस ही आस्तीन के सांप वाली कहावत याद आ गई। यह पक्की बात है कि आस्तीन में गोल-मटोल सांप नहीं रह सकता। यदि वह किसी तरह आस्तीन में घुस जाये तब उसे डसने में अधिक जुगत नही भिड़ानी पड़ेगी। ऐसा लगता है कि महबूबा मुफ्ती सईद जैसे लोगों को ध्यान में रख कर ही आस्तीन का सांप जैसी कहावत गढ़ी गई होगी। ऐसे लोग सांप ही हैं। आस्तीन में रहें या स्वतंत्र विचरण करें दोनों स्थिति में खतरनाक हैं। पिछले दिनों एक अनुसंधान रिपोर्ट पढ़ी। बताया गया था पहले सांपों के पैर होते थे। पता नहीं चल रहा कि विकास के क्रम में पैर कैसे गायब हो गये? वैज्ञानिकों का कहना है कि पैरों वाले सांप आज भी देख जाते हैं। हालांकि पैरों की मौजूदगी उनकी शारीरिक संरचना के समक्ष नगण्य सी होती है। ऐसे सांप आस्ट्रेलिया में दिखाई देते है। हम कहते हैं पीडीपी वालों ने अपनी देशद्रोही हरकत से साबित कर दिया कि वे भी पैरों वाले सांप की प्रजाति से ही हैं।

Friday, February 11, 2011

ड्रामेबाज बिनायक सेन

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
अब डॉ. बिनायक सेन और उनके हमदर्दों को क्या कहना है? छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सेन की जमानत अर्जी नामंजूर कर दी। अदालत को ऐसा कोई वैध कारण नहीं दिखा जिसके आधार पर सेन को रियायत दी जाए। हाईकोर्ट की यह व्यवस्था निचली अदालत में चली कार्रवाई और सेन को सुनाई गई सजा की पुष्टि के रूप में ली जा सकती है। हाईकोर्ट की व्यवस्था को न्यायपालिका की विषयों पर दृढ़ रुख की पुष्टि भी मानी जाए। एक बात साफ हो गई है कि सेन को निचली अदालत द्वारा सुनाई गई उम्रकैद की सजा के विरुद्ध तथाकथित मानवाधिकारवादी, बुद्धिजीवियों और इसी कैटेगरी के अन्य प्राणियों द्वारा मचाई गई चिल्ल-पौं का असर न्यायपालिका पर नहीं पड़ा।

डॉ. बिनायक सेन पर माओवादियों की मदद करने का आरोप था। यह देशद्रोह का मामला था। तथ्य, सबूत उनके विरुद्ध थे। अत: निचली अदालत ने उन्हें दोषी करार देते हुए सजा सुना दी। लेकिन अदालत के फैसले के बाद कुछ कानूनविद्, कुछ लेखक, कुछ डॉक्टर, कुछ समाजसेवी और कुछ अन्य लोग जिस तरह विरोध में उठ खड़े हुए वह आश्चर्यजनक रहा। पब्लिसिटी के उद्देश्य से कुछेक राजनेता तक बिनायक को चरित्र प्रमाण पत्र देने से नहीं चूके। दुनिया भर के ४० नोबल पुरस्कार विजेताओं का बयान इस राष्ट्रद्रोही के पक्ष में आ गया। लंदन से एमेनेस्टी इंटरनेशनल नामक मानव अधिकारों की ठेकेदार फर्म बिनायक सेन के समर्थन में कूद पड़ी। कंधे पर झोला लटकाये और आमतौर पर कुर्ता-पैजामा धारण करने वाले बिनायक सेन ने तक आशा नहीं की होगी कि उसके समर्थन में दुनिया भर में इतने गाल बज सकते हैं। बिनायक सेन की सजा के विरोध में वक्तव्यवीरों की सक्रियता हैरानी वाली रही है। इस लोकतांत्रिक देश में जहां कानून का शासन है, आप किस मुंह से निचली अदालत के फैसले के विरुद्ध जुबान दौड़ा रहे हैं? फिर वया दोषी साबित हो चुके व्यक्ति को इसलिए आजाद कर दिया जाए वयोंकि आप मांग कर रहे हैं? ऐसे माहौल में कानून के शासन का मतलब क्या रह जाएगा? बात तिलमिला देने वाली लेकिन सच है। गिनती लगा लें बिनायक सेन के समर्थन में सवा अरब आबादी वाले इस देश में कितने लोग सामने आए? संभवत: आंकड़ा चार अंक को तक पार नहीं कर पाएगा।

माना कि बिनायक एक बढिय़ा बाल रोग विशेषज्ञ हैं, उसने छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों में गरीबों की बहुत सेवा की है। फिर भी पेशे की योग्यता और गरीबों की सेवा के आधार पर उसे राष्ट्रद्रोह पर उतारू माओवादी नक्सलियों के साथ साठगांठ करने का अधिकार नहीं मिल जाता है। बिनायक सेन एक तरफ का माओवादी ही है। फर्क इतना है कि वह जंगलों में सक्रिय हथियारबंद तत्वों के संदेशवाहक और सम्पर्क अधिकारी जैसी भूमिका अदा करता रहा है। इसी प्रजाति के लोग भुवनेश्वर, हैदराबाद, वारंगल, कोलकाता, नई दिल्ली, रांची और गढ़चिरौली आदि में मिल सकते हैं। जंगलों में मौजूद माओवादी मरने-मारने पर उतारू होते हैं। शहरों में बुद्धिजीवी और मानव अधिकार समर्थक होने का बिल्ला लगाये घूमने वाले न मरने पर उतारू रहते न मारने पर। हां, उन्हें मरने-मारने का खेल देखने में आनंद आता है। बिनायक सेन अव्वल दर्जे का कायर और धूर्त है। उसमें दम है तो सीना ठोंककर कहना चाहिए कि हां वह माओवादियों का साथ देता रहा है। कायरों जैसी चुप्पी, स्वयं के बेकसूर बताने की ड्रामेबाजी और अदालती फैसले को निराशाजनक बताकर बिनायक कानून को मूर्ख नहीं बना सकता।

सारे कानून सिर्फ हिन्दुओं के लिए ?

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सुप्रीम कोर्ट ने अल्पसंख्यकों के पर्सनल लॉ में बदलाव न करने को लेकर एक बार फिर केंद्र सरकार की खिंचाई की है। अदालत ने यह सही सवाल उठाया है कि आखिर क्यों सरकार सिर्फ हिन्दुओं के कानून ही बदलती है? जस्टिस दलबीर भंडारी और जस्टिस ए.के. गांगुली ने राष्ट्रीय महिला आयोग की याचिका पर सुनवाई के दौरान बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘‘पर्सनल लॉ में सुधार की कोशिशें हिन्दू समुदाय से आगे नहीं बढ़तीं। ऐसा सुधार दूसरे धार्मिक समुदायों से जुड़े कानूनों में नहीं हो रहा।’’ सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से एक बार पुन: देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जरूरत महसूस हो रही है। इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले दो दशक से अधिक समय में अनेक बार जोर दिया है। खास बात यह है कि १९८५ में शाहबानो मामले में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस वाय.वी. चंद्रचूढ़ तक ने राष्ट्रीय एकीकरण के लिए समान नागरिक संहिता को जरूरी बताया था। जस्टिस कुलदीप सिंह ने साफ शब्दों में कहा था, ‘‘संविधान के अनुच्छेद-४४ को कोल्ड स्टोरेज से बाहर निकाला जाना चाहिए।’’ इसी अनुच्छेद में जोर देकर कहा गया है कि धर्म, जाति और जनजाति से हटकर सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। इस तर्क से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि सभ्य समाज में धार्मिक और पर्सनल लॉ के बीच किसी प्रकार का संबंध नहीं हो सकता है। अत: एक राष्ट्र में रहने वाले सभी लोगों, चाहे वे किसी भी धार्मिक समुदाय से संबंध रखते हों, एक ही या यह कहें कि समान कानून लागू किया जाना चाहिए।
हमारे यहां अधिकांश परिवार कानून का निर्धारण धर्म के द्वारा किया जाता है। हिन्दू, सिख, जैन और बौद्धों को हिन्दू कानून के तहत रखा गया है। मुसलमानों और ईसाइयों के अपने कानून हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि एक ही देश में रहने वालों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू हैं। ऐसी स्थिति में सभी के साथ समान व्यवहार, उनके बीच भावनात्मक लगाव और राष्ट्रीय एकता की कल्पना किस हद तक की जा सकती है? इस देश में समान नागरिक संहिता को लेकर बहस आजादी के पूर्व से चली आ रही है। १९४९ में संविधान में अनुच्छेद-४४ के प्रावधानों का उद्देश्य भी एकरूपता लाना रहा है, लेकिन स्वतंत्रता के बाद से ही शुरू हो गई तुष्टिकरण की कांग्रेसी राजनीति इस सकारात्मक सुधार की राह में सबसे बड़ा अड़ंगा बन गई। कालान्तर में वामदल धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाकर अप्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम तुष्टिकरण की राह पर चल पड़े। शाहबानो तलाक मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए राजीव गांधी की अगुआई वाले कांग्रेसी सरकार ने कानून में संशोधन कर तुष्टिकरण का निकृष्टतम उदाहरण पेश किया।
न्यायपालिका की चिंता अपनी जगह वाजिब है। समस्या वोट बैंक की गंदी राजनीति के कारण जटिल हो रही स्थिति की है। पिछले दो दशकों में राजनीति में ऊग आई स्वयंभू सेकुलरिस्टों की खरपतवार एक नई मुसीबत है। यह धारणा बनाने की कोशिशें देखी और सुनी गईं कि समान नागरिक संहिता अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के निजी और धार्मिक कानूनों में हस्तक्षेप जैसी बात है। देश की सियासत में सड़ांध मारती नकारात्मक और स्वार्थ पूर्ण सोच के चलते जो नुकसान हो रहा है उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। विद्वान न्यायाधीश-जस्टिस भंडारी और जस्टिस गांगुली का यह सवाल उचित और गंभीरतापूर्वक विचार करने योग्य है कि ‘‘ पर्सनल लॉ में सुधार की कोशिश हिंदू समुदाय से आगे क्यों नहीं बढ़ती?’’ विचार करें यही बात अन्य क्षेत्रों में तक देखी जाती है। बात कड़वी है किन्तु परिवार नियोजन अभियान को ले लें। आंकड़े स्वयं ही गवाह हैं ऐसा लगता है कि मानो इस कार्यक्रम की सफलता की जिम्मेदारी सिर्फ हिन्दुओं पर थोप दी गई है। हर क्षेत्र में इतना भेदभाव राष्ट्र को गंभीर स्थिति की ओर निरंतर धकेल रहा है।

Wednesday, February 9, 2011

सियासी चोट्टों पर चोट


---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
तर्क में दम है और बात काफी हद तक सही भी है। सब चलता है कि मानसिकता और नैतिकता मूल्यों की अनदेखी पूरी बेशर्मी से की जा रही हो, ऐसी स्थिति में सिर्फ आरोप के कारण किस मुंह से पी.जे. थॉमस से यह आशा करते हैं कि आप हाय तौबा मचायें और वह दबाव में आकर मुख्य सतर्कता आयुक्त पद से इस्तीफा दे देंगे। थॉमस ने स्वयं पर लगाये गये आरोप, मुख्य सतर्कता आयुक्त पद पर अपनी नियुक्ति और अपने विरुद्ध कही जा रही बातों के जवाब में जो सवाल उठाया है उस पर सरकार, राजनीतिक दलों, न्यायपालिका, मीडिया और आम आदमी को अवश्य विचार करना चाहिए। थॉमस की बात में दम है। उनका कहना है कि यदि विभिन्न अपराधों में संलिप्त व्यक्ति विधायक, संसद सदस्य और मंत्री बन सकता है तो उनके खिलाफ आरोपों को लेकर इतनी हायतौबा क्यों?

थॉमस के वकील के के.वेणुगोपाल द्वारा सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश एस.एच.कपाडिय़ा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ के समक्ष दी गई दलील का कोई जवाब मीडिया के महारथियों समेत किसी के पास है? वेणुगोपाल का कहना है कि ‘‘१५३ संसद सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं। इनमें से ७४ सांसदों के विरुद्ध गंभीर आपराधिक आरोप हैं। इसके बावजूद वे महत्वपूर्ण पदों पर रह सकते हैं तब उनके मुवक्किल (पीजे थॉमस) क्यों नहीं? ‘‘वेणु गोपाल के तर्क ठोस हैं। इसे ही कहते हैं सही समय पर सही जगह चोट करना। थॉमस के विरुद्ध आरोप अपनी जगह हैं। उनकी सच्चाई का फैसला अदालत करेगी। लेकिन उपर्युक्त टिप्पणी हमें अभी भी चेत जाने को आगाह कर रही है। सरकार को विचार करना होगा कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों, गंभीर अपराधों के आरोपियों और भ्रष्ट तत्वों को विधायिका से कैसे दूर रखा जा सकता है? राजनीतिक दलों का यह तर्क घिसा-पिटा, कालातीत और बेदम हो चला है कि जब तक किसी को अदालत दोषी करार नहीं दे देती वे उसे अपराधी कैसे मान सकते हैं। इसी तर्क की दम पर लालू प्रसाद यादव जैसे लोग चारा मामले में आरोपों के बावजूद सत्ता सुख भोगते रहे। इसी तर्क के कवच से शहाबुद्दीन जैसा अपराधी लोकतंत्र के सबसे पवित्र स्थान-संसद का सदस्य बन बैठा था। इसी तर्क को ढाल के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि अपने चहेते पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा के बचाव में कर रहे हैं।

मुद्दा यह है कि आरोप लगने पर सरकारी कर्मचारी या अधिकारी सस्पैंड किया जा सकता है अत: वैसी ही व्यवस्था राजनीति के रथियों के लिए क्यों नहीं की जा सकती है? बात सिर्फ यह हो कि दो साल से अधिक सजा वाले कानूनी प्रावधान के तहत मुकदमा दर्ज होते ही व्यक्ति की चुनाव लडऩे की पात्रता निलंबित कर दी जाए। वह मतदान कर सकता है लेकिन चुनाव न लड़ सके। हमारी राजनीति में अपराधीकरण का जो विष फैला है वह उपर्युक्त उपाय मात्र से ७५ फीसदी साफ हो जाएगा। भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त पिछले दो-चार माह में कम-से -कम एक दर्जन बार इस मुद्दे को उठा चुके हैं। उनकी मांग है कि जिसके विरुद्ध चार्जशीट अदालत में दाखिल हो चुकी हो उसे चुनाव लडऩे से अपात्र माना जाए। इस मांग में गलत और अनुचित क्या है? आरोप लगने पर शासकीय कर्मी सस्पैंड हो जाते हैं। अत: वही व्यवस्था नेतागिरी में भी लागू होनी चाहिए। फिर ऐसे चोट्टों के चुनाव नहीं लडऩे से हमारे लोकतंत्र और राज व्यवस्था पर कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा। मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा की जा रही मांग और थॉमस की ओर से वेणुगोपाल द्वारा दिये गये तर्क को अन्यथा नहीं लें। इसी में लोकतंत्र और राष्ट्र का हित है। इस समय कई देशों में मची उथल-पुथल से सबक लेकर ही कुछ कर लें। यह तय है कि अब तक हुई गलतियों को भविष्य माफ नहीं करेगा।

सूत न कपास.....!

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
२००२ के गुजरात दंगों पर मई २०१० में सौंपी गई विशेष जांच दल की रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं की गई है लेकिन एक साप्ताहिक पत्रिका ने दावा किया है कि रिपोर्ट में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दोषी ठहराया गया है। यह कथित खुलासा पूर्व में आई उन खबरों से बिल्कुल विपरीत है जिनमें कहा गया था कि विशेष जांच दल ने मोदी को क्लीन चिट दी है। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के पूर्व निदेशक आर.के. राघवन की अध्यक्षता में विशेष जांच दल गठित किया था। इस दल की रिपोर्ट पर सर्वोच्च न्यायालय की बेंच आगामी ३ मार्च को अगले कदम के बारे में आदेश देगी। निश्चित रूप से पत्रिका द्वारा किया गया खुलासा सनसनीखेज है लेकिन इसक सत्यता के बारे में अभी कुछ कह पाना मुश्किल है। फिर विचारणीय बिंदु यह हो सकता है कि रिपोर्ट सार्वजनिक होने से पहले किसने इसे लीक किया। उससे हटकर दूसरी बात यह है कि पत्रिका में छपी रिपोर्ट में तथ्य और प्रमाण कम तथा आकलन, अनुमान तथा अटकल अधिक समझ में आ रही है। यह कह सकते हैं कि पत्रिका ने रिपोर्ट के बारे में जो कुछ छापा उसमें आरोप अधिक समझ आ रहे हैं। प्रमाण कहां हैं? मोदी पर महत्वपूर्ण रिकार्ड नष्ट कर देने, साम्प्रदायिक विचारधारा, भडक़ाऊ भाषण, अल्पसंख्यकों से भेदभाव, संघ नेताओं को प्रमुखता और तटस्थ अफसरों को प्रताडि़त करने के आरोप लगाये गये हैं। राघवन की अगुआई वाले विशेष जांच दल की रिपोर्ट अधिकारिक रूप से सार्वजनिक हुए बगैर कैसे मान लिया जाए कि जिस रिपोर्ट को लेकर पिछले २४ घंटों से सनसनी पैदा करने की कोशिश की जा रही है, वह असल है। यदि रिपोर्ट सही है तब भी मोदी को कठघरे में खड़ा करने लायक अंश इसमें नजर नहीं आ रहे। विशेष जांच दल स्वयं स्वीकार कर रहा है कि मोदी के विरुद्ध सीधी कानूनी कार्रवाई शुरू करने का कोई पुख्ता प्रमाण उसके हाथ नहीं लगा है। प्रश्न यह है कि क्या विशेष जांच दल की कल्पना और अनुमानों को आधार बनाकर मोदी को अदालती कार्रवाई के लिए घसीटा जा सकता है। इस तरह का कोई प्रयास कानूनी लड़ाई में आखिर कितनी देर रुक पायेगा? असली रिपोर्ट सार्वजनिक होने पर ही अधिक कुछ कहना संभव होगा। इस बात में संदेह नहीं कि सन् २००२ के गुजरात दंगे हमारे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्षता की भावनाओं पर एक गहरा आघात रहे हैं। इन दंगों में हुई दो हजार से अधिक लोगों की मौत को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। वह हृदय पर एक गहरे जख्म की तरह है। यदि गोधरा में कारसेवकों को जिंदा जलाये जाने की घटना के बाद गुजरात में बड़े पैमाने पर भडक़े साम्प्रदायिक दंगे किसी बड़ी साजिश का परिणाम थे, तब इसके लिए दोषी व्यक्तियों को दंडित किया जाना जरूरी है। लेकिन यहां इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि अतीत में इस देश में कितनी ही साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत छोटी-छोटी बातों पर हुई थी। उनमें दोनों ओर के साम्प्रदायिक और असामाजिक तत्व मुख्य रूप से लिप्त रहे। यह बात हजम नहीं होती कि गुजरात दंगों की साजिश रचने में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोई प्रत्यक्ष भूमिका निभाई होगी। गुजरात दंगों के बाद कानून एवं व्यवस्था और राज्य के विकास के मामले में मोदी ने कसावट दिखाकर अपनी क्षमताओं और दूरदर्शिता का लोहा मनवा लिया है। वह हिंदुत्व के संरक्षण के समर्थक हो सकते हैं परंतु उनसे किसी सियासी मूर्खता की आशा करना अपने आप में मूर्खता होगी। हमारे यहां राजनीति, पत्रकारिता और कुछ अन्य क्षेत्रों में कथित सेकुलैरिस्टों की एक ऐसी लॉबी है जो घूम-फिर कर मोदी को घेरने की कोशिश करती रहती है। राघवन की अगुआई वाले विशेष जांच दल की असल रिपोर्ट सार्वजनिक होने दें। उससे पहले मोदी को घेरने के लिए छटपटाना अव्वल दर्जे की कम अवली कहलाएगी।

Monday, February 7, 2011

कौन सक्रिय कौन निष्क्रिय?

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सुप्रीम कोर्ट की एक ताजा व्यवस्था पर व्यापक चर्चा और बहस की जरूरत महसूस हो रही है। सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश द्वय मार्कण्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने कहा है कि किसी प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता मात्र के कारण किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं माना जा सकता जब तक कि वह हिंसा पर उतारू न हो जाए या लोगों को हिंसा के लिए उकसा न रहा हो। इस व्यवस्था के बाद सबसे पहला प्रश्न यही मस्तिष्क में उभरा कि जब प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता अपराध नहीं है ऐसी स्थिति में प्रतिबंध लगाने का औचित्य क्या रह जाएगा। वास्तव में ऐसी स्थिति में सुरक्षा एजेंसियों का काम और अधिक कठिन और उसमें काम करने वालों के लिए जोखिम-भरा हो जाएगा। इस बात में संदेह नहीं कि इस देश में पुलिस और सुरक्षा एजेंसियो द्वारा कई कानून और प्रतिबंधों की आड़ लेकर अधिकारों का दुरूपयोग किये जाने के आरोप लगते रहे हैं। प्रतिबंधित संगठनों के सक्रिय और निष्क्रिय सदस्यों को एक ही तराजू में तौल कर उनके साथ एक सा व्यवहार होता रहा है। लेकिन हमारी पुलिस, सुरक्षा एजेंसियों के कुछ लोगों की गलतियों के बाद भी उपर्युक्त व्यवस्था से सभी का सहमत हो पाना मुश्किल सा नजर आ रहा है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था प्रतिबंधित संगठन उल्फा के एक सदस्य अरूप भुयान को टाडा कानून की धारा ३(५) के तहत दोषी ठहराये जाने के संदर्भ में आई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह साबित नही किया गया कि अरूप उस संगठन का सक्रिय सदस्य था या सिर्फ निष्क्रिय सदस्य। अदालत ने ऐसी व्यवस्था देते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख किया। यहां दो बातें हैं। एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दो- प्रतिबंधित संगठन। सवाल यह है कि किसी संगठन पर प्रतिबंध की स्थिति में उसके निष्क्रिय सदस्य राज व्यवस्था, सरकार और समाज में लुके छिपे एक वैचारिक अभियान चलायेंगे, तब उनसे कैसे निबटा जा सकेगा? इस समय गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) कानून १९६७ के तहत ३२ संगठनों पर प्रतिबंध है। जिन संगठनों पर प्रतिबंध है उनमें अलकायदा, लश्कर ए तैयबा, जैश ए मोहम्मद, अल बद्र, माओवादी और नक्सली संगठन शामिल हैं। खतरनाक महसूस होने वाले संगठनों पर प्रतिबंध का एक उद्देश्य उनके विरूद्ध कार्यवाही करने वाले सुरक्षा बलों को अधिकार सम्पन्न करना होने के साथ साथ कहीं न कहीं आदमी को उनसे जुडऩे से रोकना हैं। कानून और संविधान के प्रावधानों के अनुरूप चलने वाली शासन व्यवस्थाओं में यह अपेक्षा की जाती है कि किसी संगठन में प्रतिबंध लगने पर कानून का सम्मान करने वाले लोग उससे स्वयं को अलग कर लें। इसमें निष्क्रिय और सक्रिय सदस्यता जैसे प्रश्न कहां रह जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति निष्क्रिय सदस्य का मुखौटा लगाये पर्दे के पीछे सक्रिय सदस्यों की तरह व्यवहार करें ऐसे लोगों को किस चश्मे से सुरक्षा बलों के लोग और पुलिस वाले अलग-अलग कर पाएंगे? तब तो कई शातिर लोगों को तमाम गैर कानूनी काम करने पर क्लीन चिट मिल जाएगी। उपर्युक्त व्यवस्था से शहरों मे रहने वाले और कई बार मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा बुद्धिजीवी का मुखौटा लगाकर प्रतिबंधित संगठनों के प्रति हमदर्दी व्यक्त करते रहे लोगों का मनोबल बढ़ जाएगा। अत: हमारा मानना है कि सरकार को उक्त व्यवस्था को चुनौती देनी चाहिए।

Tuesday, February 1, 2011

चेत जाएं सरकार चलाने वाले

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई.कुरैशी द्वारा लखनऊ में की गई इस टिप्पणी को सत्य से साक्षात्कार कराने का प्रयास मानना चाहिए कि लोकतंत्र की कमियों के कारण जनता का मोहभंग हो इससे पहले उन्हें दूर करना जरूरी है क्योंकि सही दिशा में सुधार नहीं हुए तो एक दिन जनता ही ऊबकर तख्तापलट कर देगी। मुख्य चुनाव आयुक्त की टिप्पणी काफी हद तक चुनाव सुधारों से जुड़ी है। लेकिन जिस समय श्री कुरैशी यह बात कह रहे थे लगभग उसी समय देश के ६० नगरों-महानगरों में भ्रष्टाचार के खिलाफ निकाली गई रैलियों में लाखों लोग भाग ले रहे थे। रैलियों में भाग लेने वाले आमजन, समाज सेवियों और धर्मगुरुओं ने मिलकर सरकार को यह संदेश दे दिया कि भ्रष्टतंत्र के विरुद्ध जनतंत्र जाग उठा है। वक्ताओं के विचारों से आम आदमी की भावनाएं सामने आई हैं। २जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों में भ्रष्टाचार, आदर्श सोसायटी घोटाला और बिल्कुल ताजी घटना मनमाड़ में एडीशनल कलेक्टर को तेल माफिया द्वारा जिंदा जला डालने ने लोगों को हिलाकर रख दिया। आम आदमी हैरान है कि मध्यप्रदेश में आईएएस दम्पत्ति ने मात्र दो दशकों में कैसे लगभग चार सौ करोड़ की सम्पत्ति जमा कर ली। सरकारी इंजीनियरों और अधिकारियों के यहां से पकड़ी जा रही अवैध संपत्ति संंबंधी रिपोर्टे पढक़र आंखें फटी रह जा रही हैं। मोटे तौर पर राजनेताओं, नौकरशाहों और अपराधी तत्वों के बीच सांठगांठ समझ में आ रही है जिसके कारण देश में भ्रष्टाचार खतरनाक स्तर तक जा पहुंचा और सरकार में बैठे लोग या तो भ्रष्ट तत्वों की अनदेशी करते रहे या फिर अकर्मण्यों की भांति ऊंघते दिखे। मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई कुरैशी विशुद्ध गैर-राजनीतिक व्यक्ति हैं। वह अपराधी तत्वों को राजनीति से दूर रखने की बात पर जोर दे रहे हैं तब इसका सीधा अर्थ है कि वह लोकतंत्र की पवित्रता सुनिश्चित करना चाहते हैं।

भ्रष्टाचार के खिलाफ ६० शहरों में निकाली गई रैलियों के मुख्य आयोजकों में श्रीश्री रविशंकर और आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल हैं। रैलियों की अगुआई जिन हस्तियों ने की उनमें से ९९.९ प्रतिशत का किसी राजनीतिक दल के साथ सक्रिय सम्पर्क अथवा संबंध नहीं है। नि:संदेह पानी सिर से ऊपर जाने वाली बात है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही भ्रष्टाचार के वायरस का प्रकोप भारत में बढऩे लगा था लेकिन उसे समय रहते कुचलने की जरूरत सरकार चलाने वालों ने महसूस नहीं की। कल केंद्रीय कानून मंत्री एम.वीरप्पा मोइली ने कहा कि भ्रष्टाचार के मामलों का निबटारा एक साल में हो जाएगा। उनका दावा है कि कोई भी केस तीन साल से अधिक नहीं चलेगा। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मोइली अदालतों में लगे करोडा़ें मामलों के शीघ्र निबटारे के लिए कमर कस चुके हैं। इसे एक अच्छा संकेत मान सकते हैं। प्रश्न यह है कि लोकतंत्र की पवित्रता और भ्रष्टाचार मुक्त तंत्र कैसे सुनिश्चित हो? दोनों ही विषयों पर गंभीर और ठोस प्रयास की जरूरत है। सत्ताधारी राजनेताओं को सिर्फ दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए कड़े फैसले लेने होंगे। विचार करें कि ट्यूनिशिया और मिस्र में सरकार के विरुद्ध आम आदमी सडक़ों पर क्यों उतर आया? वहां इन सरकार विरोधियों की अगुआई कोई स्थापित राजनेता नहीं कर रहा है। दोनों देशों में लोग भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और अन्य समस्याओं से इस हद तक त्रस्त हो गए कि जान की परवाह किये बगैर सडक़ों पर उत्तर आए हैं। मिस्र के घटनाक्रमों पर चीन तक सकते की हालत में है। हमारे यहां कल की भ्रष्टाचार विरोधी रैलियों को गंभीरता से लेकर सरकार ने ठोस कदम नहीं उठाये तो लोगों में आक्रोश बढ़ेगा। कुरैशी तख्ता पलट जैसी स्थिति की आशंका से आगाह कर चुके हैं। अब समझने और फैसला लेने की बारी सरकार चलाने वालों की है।