Monday, February 28, 2011

गोधरा फैसला : बैनर्जी का झूठ उजागर

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
गोधरा कांड पर विशेष अदालत के फैसले ने उन तमाम दावों और लोगों के इस विश्वास की पुष्टि की है कि २७ फरवरी २००२ को साबरमती एक्सप्रेस के स्लीपर कोच एस-६ में साजिश के तहत बाहर से आग लगाई गई थी। विशेष अदालत ने कल गोधरा कांड मामले में अपना फैसला सुनाते हुए दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। उस दिल दहला देने वाले हमले में सांप्रदायिक उन्मादियों के हाथों ५८ कारसेवक जिंदा जला दिये गये थे। अदालत ने तथ्यों, गवाहों के बयान और सबूतों के आधार पर ३१ लोगों को दोषी पाया है। ६३ अन्य आरोपी बरी कर दिये गये। सजा का ऐलान २५ फरवरी को किया जाएगा। गोधरा कांड मामले में विशेष अदालत का फैसला उन पाखण्डी सेकुलरिस्टों के मुंह पर करारा तमाचा है जिन्होंने गोधरा जैसी घटना तक में वोट बैंक की राजनीति करने में शर्म महसूस नहीं की। तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा अनावश्यक और विशुद्ध रूप से भ्रम फैलाने के मकसद से नियुक्त यूसी बैनर्जी कमेटी के निष्कर्ष अदालत के फैसले से झूठे और गलत साबित हुए हैं। बैनर्जी कमेटी ने कहा था कि गोधरा में कारसेवकों के स्लीपर कोच में आग दुर्घटनावश अंदर से ही लगी थी। कारसेवकों की मौत दम घुटने से हुई तथा इस साजिश में कोई बाहरी व्यक्ति शामिल नहीं था जबकि गोधरा कांड पर नानावटी कमीशन कह चुका था कि ट्रेन के डिब्बे में आग बाहर बाहरी से लोगों द्वारा जानबूझकर लगाई गई थी। नानावटी कमीशन ने मौतों का कारण आग से जल जाना बताया था। नानावटी कमीशन की रिपोर्ट और विशेष अदालत के फैसले ने यू.जी. बैनर्जी के समक्ष नैतिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता को लेकर सवाल खड़ा कर दिया है। इस तथ्य की जांच होनी चाहिए कि बैनर्जी कमीशन ने किस दबाव, अनुरोध, किसकी प्रेरणा और किस प्रलोभन के चलते सत्य पर पर्दा डालकर न्याय को गुमराह करने का पाप किया? इस बात की जांच होनी चाहिए कि गोधरा कांड के सच पर पर्दा डालने की कोशिश करके तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने कौन सा लाभ लेने की कोशिश की थी। हैरानी होती है कि लोग गुजरात के दंगों को लेकर आज तक मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश करते आ रहे हैं लेकिन कितने लोगों ने गोधरा में जिंदा जला दिये गये ५८ रेल यात्रियों के परिजनों की खबर ली। गुजरात के दंगों को गोधरा कांड की प्रतिक्रिया माना जाता है । न तो गुजरात के दंगाइयों का बचाव किया जाना चाहिए और ना ही गोधरा में निहत्थे रेल यात्रियों को घेर कर जला डालने वाली उन्मादियों की भीड़ के बचाव में किसी का किसी भी तरह से आगे आना शोभा देता है। दोनों ही स्थितियां बर्बर प्रवृत्तियों के पुन: सिर उठाने का प्रमाण रही हैं। कानून पसंद सभ्य समाज में ऐसी हरकतों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। आश्चर्य होता है कि कतिपय गैर-सरकार संगठन (एनजीओ) मीडिया, का एक वर्ग, कुछेक बुद्धिजीवी और राजनीति की धूर्त सेकुलरिस्ट लॉबी ने गुजरात दंगों की बात करते समय हमेशा ही गोधरा कांड की चर्चा से कन्नी काट ली। गुजरात दंगों को अगर आप प्रशासनिक मशीनरों की असफलता और कानून के शासन का पंगु हो जाना मानते हैं तब गोधरा कांड को क्या कहेंगे? कारसेवकों को ंिजदा जला रहे उन्मादी तत्वों में कानून का खौफ तो था नहीं, उन्हें भरोसा रहा होगा कि ऐसे जघन्य कृत्य के बाद उनका बाल बांका नहीं होने दिया जाएगा। ऐसे हत्यारों को सजा उनके रोंगटे खड़े कर देने वाली सुनाई जाना चाहिए।

1 comment:

पवन कुमार अरविन्द said...

गोधरा के संदर्भ में न्यायमूर्ति बनर्जी की रिपोर्ट तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव के मनमाफिक थी। विशेष अदालत के फैसले से अप्रत्यक्ष रूप से यह साबित होता है।