---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
सुप्रीम कोर्ट की एक ताजा व्यवस्था पर व्यापक चर्चा और बहस की जरूरत महसूस हो रही है। सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश द्वय मार्कण्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने कहा है कि किसी प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता मात्र के कारण किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं माना जा सकता जब तक कि वह हिंसा पर उतारू न हो जाए या लोगों को हिंसा के लिए उकसा न रहा हो। इस व्यवस्था के बाद सबसे पहला प्रश्न यही मस्तिष्क में उभरा कि जब प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता अपराध नहीं है ऐसी स्थिति में प्रतिबंध लगाने का औचित्य क्या रह जाएगा। वास्तव में ऐसी स्थिति में सुरक्षा एजेंसियों का काम और अधिक कठिन और उसमें काम करने वालों के लिए जोखिम-भरा हो जाएगा। इस बात में संदेह नहीं कि इस देश में पुलिस और सुरक्षा एजेंसियो द्वारा कई कानून और प्रतिबंधों की आड़ लेकर अधिकारों का दुरूपयोग किये जाने के आरोप लगते रहे हैं। प्रतिबंधित संगठनों के सक्रिय और निष्क्रिय सदस्यों को एक ही तराजू में तौल कर उनके साथ एक सा व्यवहार होता रहा है। लेकिन हमारी पुलिस, सुरक्षा एजेंसियों के कुछ लोगों की गलतियों के बाद भी उपर्युक्त व्यवस्था से सभी का सहमत हो पाना मुश्किल सा नजर आ रहा है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था प्रतिबंधित संगठन उल्फा के एक सदस्य अरूप भुयान को टाडा कानून की धारा ३(५) के तहत दोषी ठहराये जाने के संदर्भ में आई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह साबित नही किया गया कि अरूप उस संगठन का सक्रिय सदस्य था या सिर्फ निष्क्रिय सदस्य। अदालत ने ऐसी व्यवस्था देते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख किया। यहां दो बातें हैं। एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दो- प्रतिबंधित संगठन। सवाल यह है कि किसी संगठन पर प्रतिबंध की स्थिति में उसके निष्क्रिय सदस्य राज व्यवस्था, सरकार और समाज में लुके छिपे एक वैचारिक अभियान चलायेंगे, तब उनसे कैसे निबटा जा सकेगा? इस समय गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) कानून १९६७ के तहत ३२ संगठनों पर प्रतिबंध है। जिन संगठनों पर प्रतिबंध है उनमें अलकायदा, लश्कर ए तैयबा, जैश ए मोहम्मद, अल बद्र, माओवादी और नक्सली संगठन शामिल हैं। खतरनाक महसूस होने वाले संगठनों पर प्रतिबंध का एक उद्देश्य उनके विरूद्ध कार्यवाही करने वाले सुरक्षा बलों को अधिकार सम्पन्न करना होने के साथ साथ कहीं न कहीं आदमी को उनसे जुडऩे से रोकना हैं। कानून और संविधान के प्रावधानों के अनुरूप चलने वाली शासन व्यवस्थाओं में यह अपेक्षा की जाती है कि किसी संगठन में प्रतिबंध लगने पर कानून का सम्मान करने वाले लोग उससे स्वयं को अलग कर लें। इसमें निष्क्रिय और सक्रिय सदस्यता जैसे प्रश्न कहां रह जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति निष्क्रिय सदस्य का मुखौटा लगाये पर्दे के पीछे सक्रिय सदस्यों की तरह व्यवहार करें ऐसे लोगों को किस चश्मे से सुरक्षा बलों के लोग और पुलिस वाले अलग-अलग कर पाएंगे? तब तो कई शातिर लोगों को तमाम गैर कानूनी काम करने पर क्लीन चिट मिल जाएगी। उपर्युक्त व्यवस्था से शहरों मे रहने वाले और कई बार मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा बुद्धिजीवी का मुखौटा लगाकर प्रतिबंधित संगठनों के प्रति हमदर्दी व्यक्त करते रहे लोगों का मनोबल बढ़ जाएगा। अत: हमारा मानना है कि सरकार को उक्त व्यवस्था को चुनौती देनी चाहिए।
Monday, February 7, 2011
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