Saturday, February 19, 2011

एक धोती, एक कुर्ता, एक पैजामा, एक रूमाल....!

संदर्भ : विदेश मंत्री की लापरवाही

---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
वाह, यह भी खूब रही। एक तो अव्वल दर्जे की लापरवाही उस पर तुर्रा देखिये। गलती मानने की बजाय विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा कह रहे हैं कि ‘‘ संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में उनके सम्बोधन के समय हुई गड़बड़ी कोई बड़ी बात नहीं है।’’ कृष्णा का तर्क है कि ‘‘ सुरक्षा परिषद की उस बैठक के दौरान उनके सामने बहुत से कागज पड़े थे। इसलिए गलती से गलत सम्बोधन उनके हाथ में आ गया।’’ पिछले शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में कृष्णा लगभग तीन मिनट तक पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण पढ़ते रहे। वह शायद रुकते भी नहीं अगर समय रहते उन्हें इस गलती का अहसास संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के राजदूत हरदीप सिंह पुरी ने नहीं करवाया होता। नि:संदेह गलती किसी भी इंसान से हो सकती है। लेकिन यह मामला लापरवाही का था। उस पर कृष्णा की ढिठाई देखिये गलती मानने और खेद व्यक्त करने की बजाय उस चूक को साधारण बात निरुपित कर रहे हैं। यह क्यों न कहें कि जो हुआ उसकी वजह विषय के प्रति कृष्णा का अ-गंभीर रुख था या यह आरोप लगायें कि उस महत्वपूर्ण बैठक के समय वह एब्सेंट माइंड थे। इस घटना से बरसों पहले, जब रेडियो सीलोन बेहद लोकप्रिय था, रेडियो पर प्रसारित एक कार्यक्रम में मशहूर कलाकार आईएस जौहर का सुनाया गया चुटकुला याद आ गया।
जौहर सुना रहे थे। एक कवि मंच पर आये, कुर्ते की जेब से एक डायरी निकाली और कविता पाठ करने लगे- ‘‘ एक धोती, एक कुर्ता, एक पैजामा, एक रूमाल...! ’’ कवि महोदय उक्त पंक्ति को चार-पांच बार दोहरा गये। दर्शकों में से किसी ने आवाज लगाई, ‘‘ आगे तो बोलिये!’’ कवि एक क्षण के लिए रुके फिर हाथ जोडक़र क्षमा मांगते हुए जवाब दिया, ‘‘ माफ कीजिए, पत्नी ने धोखे से कुर्ते की जेब में मेरी कविताओं की डायरी के स्थान पर धोबी के हिसाब की डायरी रख दी।’’ जौहर द्वारा सुनाया गया वह चुटकुला कृष्णा जैसे लोगों को देखते हुए आज भी सामयिक लगता है। यह घटना उन सभी लोगों के लिए एक सबक होना चाहिए जो लिखे-लिखाये भाषणों को किसी मंच पर अथवा फोरम में पढऩे से पहले उन पर एक नजर डालना भी जरूरी नहीं समझते। निश्चित रूप से कुछ विशेष आयोजनों में लिखित भाषण ही पढऩे का चलन है। बड़े-बड़े दिग्गज वक्ता भी तथ्यों के गलत प्रस्तुतीकरण और लय टूटने का जोखिम उठाने की बजाय लिखित भाषण पढऩे पर ही जोर देते हैं। कुछ लोग सिर्फ लिखित भाषण ही पढ़ते हैं। दरअसल, भाषण देना और भाषण पढऩा दोनों अलग-अलग कलायें हैं। कुछ लोग लिखे हुए भाषण को इतने बेहतरीन अंदाज में पढ़ते हैं कि श्रोता मंत्रमुग्ध से नजर आते हैं। कुछ की आवाज लिखे हुए भाषण को पढ़ते-पढ़ते कांपने लगती, जुबान लटपटा जाती है। जो लोग भाषण देते हैं, अर्थात बिना लिखित भाषण के बोलते हैं उनके शब्द उनके दिल की आवाज माने जाते। उसमें अध्ययन, अनुभव, बौद्धिक चातुर्य और बात संभालने की समझ होती है। जुबान जरा सी फिसली तो संभलने में देर नहीं लगती। लेकिन विशेष अवसर पर सरस्वती की कृपापात्र ऐसे दिग्गजों को तक लिखित भाषण पढ़ते देखा गया है। भाषण देने वालों की एक तीसरी Ÿोणी भी देखी जाने लगी है। इसमें मूल रूप से कुछ राजनेताओं और कुछेक श्रमिक नेताओं को रखा जा सकता है। ‘‘ जुबानी-अर्श’’ से पीडि़त इस तीसरी Ÿोणी के लोगों को सिर्फ जुबान फटकारना आता है। इसके अच्छे-बुरे प्रभावों से ये बे-परवाह होते हैं।
हमारे विदेश मंत्री से हुई चूक पर विचार करने पर समझ में यह आ रहा है कि अपने लिखित भाषण को पढऩे से पहले उस पर एक नजर डालने की जहमत तक उन्होंने नहीं उठाई थी। कृष्णा का यह तर्क अपना सिर धुन लेने के लिए काफी है कि टेबल में बहुत से कागज पड़े थे इसलिए गलती से वह पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण उठा बैठे। सवाल यह है कि ऐसी गलती या लापरवाही हुई कैसे? सुरक्षा परिषद जैसे महत्वपूर्ण मंचों पर ऐसी चूक से समूचे राष्ट्र के सम्मान को ठेस पहुंच सकती है। कृष्णा के लिए घटना बड़ी बात नहीं होगी परंतु उन्हें याद रखना चाहिए कि सुरक्षा परिषद में वह भारत के विदेश मंत्री और सवा अरब भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में मौजूद थे। ऐसी ‘‘ छोटी-छोटी बातें’’ हमारे विषय में कैसी छवि दुनिया में फैलाती होंगी? यही कि भारतीय इतने लापरवाह होते हैं? भविष्य में ऐसी गलतियों की पुनरावृत्ति की आशंका की स्थिति में कृष्णा से यह अपेक्षा की जाती है कि वह कागजों का अंबार लगाने की बजाय काम के कागज ही साथ में रखा करें।
वैसे, भारतीय राजनीति में कृष्णा एक मात्र उदाहरण नहीं हैं। लैंस लगाकर देखें और कई कृष्णा निकल आएंगे। अब वह जमाना कहां रहा जब देश में एक से बढक़र एक नेता थे। वे बोलते थे तो लगता था मस्तिष्क में गणपति और कंठ में सरस्वती विराजमान हैं। घण्टों तक धाराप्रवाह भाषण देने की क्षमता थी उन महान नेताओं में। गहरा अध्ययन, अनुभव और पक्का होमवर्क साफ समझ में आता था। रैली और सभाओं की छोडिय़े, संसद और विधानसभाओं तक में उन महान नेताओं का वाकचातुर्य देख लोग दांतों तले अंगुली दबा लेते थे। विधायिका में बहस का स्तर उच्च था। वहां कही जाने वाली बातों में गहराई थी। आज स्थिति उलट है। नेताओं के पास न तो पढऩे-समझने के लिए समय है और न उनमें इसके प्रति रुचि है। उस पर ज्ञानी और समझदार होने का भ्रम अलग एक मुसीबत है। बिना तैयारी के जुबान फटकार दी जाती है। सदन में चर्चा का स्तर गिरने की एक प्रमुख वजह यह भी है। कृष्णा से हुई चूक बिना तैयारी के युद्ध में कूद पढऩे जैसी स्थिति दर्शाती है। यह एक सबक है। घर में कुछ भी कहलें परंतु विश्व मंच पर यह सब नहीं चल सकता। कृष्णा का उदाहरण एक सबक है जो सियासी रंगरुटों को गहन प्रशिक्षण की जरूरत बता रहा है। ताकि, भविष्य में गलती से गलत कागज पकड़ में आ जाए तो भी उनका दिमाग स्थिति को संभालने में सक्षम हो।

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