---अनिल बिहारी श्रीवास्तव
अब डॉ. बिनायक सेन और उनके हमदर्दों को क्या कहना है? छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सेन की जमानत अर्जी नामंजूर कर दी। अदालत को ऐसा कोई वैध कारण नहीं दिखा जिसके आधार पर सेन को रियायत दी जाए। हाईकोर्ट की यह व्यवस्था निचली अदालत में चली कार्रवाई और सेन को सुनाई गई सजा की पुष्टि के रूप में ली जा सकती है। हाईकोर्ट की व्यवस्था को न्यायपालिका की विषयों पर दृढ़ रुख की पुष्टि भी मानी जाए। एक बात साफ हो गई है कि सेन को निचली अदालत द्वारा सुनाई गई उम्रकैद की सजा के विरुद्ध तथाकथित मानवाधिकारवादी, बुद्धिजीवियों और इसी कैटेगरी के अन्य प्राणियों द्वारा मचाई गई चिल्ल-पौं का असर न्यायपालिका पर नहीं पड़ा।
डॉ. बिनायक सेन पर माओवादियों की मदद करने का आरोप था। यह देशद्रोह का मामला था। तथ्य, सबूत उनके विरुद्ध थे। अत: निचली अदालत ने उन्हें दोषी करार देते हुए सजा सुना दी। लेकिन अदालत के फैसले के बाद कुछ कानूनविद्, कुछ लेखक, कुछ डॉक्टर, कुछ समाजसेवी और कुछ अन्य लोग जिस तरह विरोध में उठ खड़े हुए वह आश्चर्यजनक रहा। पब्लिसिटी के उद्देश्य से कुछेक राजनेता तक बिनायक को चरित्र प्रमाण पत्र देने से नहीं चूके। दुनिया भर के ४० नोबल पुरस्कार विजेताओं का बयान इस राष्ट्रद्रोही के पक्ष में आ गया। लंदन से एमेनेस्टी इंटरनेशनल नामक मानव अधिकारों की ठेकेदार फर्म बिनायक सेन के समर्थन में कूद पड़ी। कंधे पर झोला लटकाये और आमतौर पर कुर्ता-पैजामा धारण करने वाले बिनायक सेन ने तक आशा नहीं की होगी कि उसके समर्थन में दुनिया भर में इतने गाल बज सकते हैं। बिनायक सेन की सजा के विरोध में वक्तव्यवीरों की सक्रियता हैरानी वाली रही है। इस लोकतांत्रिक देश में जहां कानून का शासन है, आप किस मुंह से निचली अदालत के फैसले के विरुद्ध जुबान दौड़ा रहे हैं? फिर वया दोषी साबित हो चुके व्यक्ति को इसलिए आजाद कर दिया जाए वयोंकि आप मांग कर रहे हैं? ऐसे माहौल में कानून के शासन का मतलब क्या रह जाएगा? बात तिलमिला देने वाली लेकिन सच है। गिनती लगा लें बिनायक सेन के समर्थन में सवा अरब आबादी वाले इस देश में कितने लोग सामने आए? संभवत: आंकड़ा चार अंक को तक पार नहीं कर पाएगा।
माना कि बिनायक एक बढिय़ा बाल रोग विशेषज्ञ हैं, उसने छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाकों में गरीबों की बहुत सेवा की है। फिर भी पेशे की योग्यता और गरीबों की सेवा के आधार पर उसे राष्ट्रद्रोह पर उतारू माओवादी नक्सलियों के साथ साठगांठ करने का अधिकार नहीं मिल जाता है। बिनायक सेन एक तरफ का माओवादी ही है। फर्क इतना है कि वह जंगलों में सक्रिय हथियारबंद तत्वों के संदेशवाहक और सम्पर्क अधिकारी जैसी भूमिका अदा करता रहा है। इसी प्रजाति के लोग भुवनेश्वर, हैदराबाद, वारंगल, कोलकाता, नई दिल्ली, रांची और गढ़चिरौली आदि में मिल सकते हैं। जंगलों में मौजूद माओवादी मरने-मारने पर उतारू होते हैं। शहरों में बुद्धिजीवी और मानव अधिकार समर्थक होने का बिल्ला लगाये घूमने वाले न मरने पर उतारू रहते न मारने पर। हां, उन्हें मरने-मारने का खेल देखने में आनंद आता है। बिनायक सेन अव्वल दर्जे का कायर और धूर्त है। उसमें दम है तो सीना ठोंककर कहना चाहिए कि हां वह माओवादियों का साथ देता रहा है। कायरों जैसी चुप्पी, स्वयं के बेकसूर बताने की ड्रामेबाजी और अदालती फैसले को निराशाजनक बताकर बिनायक कानून को मूर्ख नहीं बना सकता।
Friday, February 11, 2011
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