Wednesday, December 29, 2010

सवा सौ बरस की कांग्रेस द्वारा आत्मनिरीक्षण

अनिल बिहारी श्रीवास्तव
कांग्रेस के १२५ वर्ष पूरे होने पर जारी किताब ‘‘कांग्रेस एण्ड द मेकिंग आफ द इंडियन नेशन’’ में पड़ोसी देश पाकिस्तान और चीन के साथ संबंधों और संजय गांधी स्वेच्छाचारिता के संबंध में खरी-खरी टिप्पणी करके कांग्रेस ने स्वयं में आये बदलाव का प्रमाण पेश किया है। इन टिप्पणियों से कांग्रेस ने यह संदेश दिया है कि अतीत के कड़वे सच अथवा गलतियों को स्वीकार करने में उसे किसी प्रकार का संकोच नहीं होगा। किताब में कांग्रेस ने पाकिस्तान को अपना परम्परागत शत्रु निरुपित किया है। इसी प्रकार सामरिक और आर्थिक मोर्चों मुद्दों पर कांग्रेस चीन को अविश्वसनीय मानती है। यह बात खुले तौर पर और बहुत साफ शब्दों में कही गई है कि चीन भारत के साथ मेल-मिलाप के मूड में नहीं दिखता। दो खण्डों वाली इस पुस्तक का विमोचन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पिछले दिनों सम्पन्न कांग्रेस के महाधिवेशन के दौरान किया था। पुस्तक के सम्पादक मंडल के संयोजक केंद्रीय वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा हैं। पुस्तक का सम्पादन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने किया है। चूंकि कांग्रेस इस समय केंद्र की सत्ता संभाले हुए है अत: पुस्तक में की गई उपर्युक्त टिप्पणियों को कुछ हद तक केंद्र सरकार के विचारों के रूप में लिया जा सकता है। यह पहला अवसर है जब कांग्रेस ने पाकिस्तान, चीन और संजय गांधी के विषय में इस तरह अपने मन की बात देशवासियों के समक्ष रखी । ये ऐसे विषय रहे हैं जिनको लिए काफी भ्रम, गलतफहमियां और संशय महसूस किये जाते रहे थे। अब पाकिस्तान का विषय ही लें। कांग्रेस ने उसे परम्परागत शत्रु निरुपित कर आम भारतीय की धारणाओं पर पुष्टि की मुहर लगाई है। पाकिस्तान ने आजादी के तुरंत ही भारत के प्रति ईष्र्या की गांठ बांध ली थी। पिछले साठ सालों के दौरान वहां बच्चे-बच्चे के मन में भारत के प्रति बैर-भाव भरा गया। कितने ही अवसरों पर पाकिस्तानियों ने भारत को नीचा दिखाने की कोशिश की। कश्मीर सहित देश के कई भागों में उसने आतंकवादी गतिविधियों चलवा रखी हैं। बुरी बात यह रही कि भारत में सरकार चलाने वाले लोग और कतिपय राजनीतिक दल सिर्फ लल्लो-चप्पो में लगे रहे। उन्होंने खुलकर कहने का साहस नहीं दिखाया कि पाकिस्तान को हम अपना शत्रु मानते हैं। ऐसा ही कुछ चीन के संदर्भ में कहा जा सकता है। भारत के प्रति चीन में पनपी बैर-भाव की ग्रंथि ने उसे पाकिस्तान को शह देने पर प्रेरित किया। ऐसे अनेक उदाहरण पिछले चार दशकों के दौरान सामने आये जो भारत के प्रति चीनियों के बैर-भाव का प्रमाण रहे। भारत से मुकाबले के लिए पाकिस्तान को चीन ने गले लगाये रखा। स्वयं पर सामरिक और आर्थिक मुद्दों पर भरोसा करने का एक भी कारण भारत को चीन नहीं गिनवा सकता। सूची बनायें तो दो दर्जन ऐसे प्रमाण सामने लाए जिनसे भारत के प्रति चीन का दुराग्रह साबित किया जा सकता है। संजय गांधी के संदर्भ कांग्रेस की खुली टिप्पणी सच को स्वीकार करने जैसी बात है। लेकिन, फिर भी आपातकाल की बदनामी का दोष संजय गांधी अकेले पर मढऩा ठीक नहीं है। पार्टी का मानना है कि ‘नसबंदी’ और ‘झुग्गी हटाओ’ जैसी मुहिम के कारण आपातकाल बदनाम हुआ। आपातकाल के दौरान कांग्रेस नसबंदी अभियान के कारण परिवार नियोजन कार्यक्रम में मिली सफलताओं, अतिक्रमण हटाये जाने से महानगरों, नगरों और कस्बों में सांस लेने लायक माहौल बनने, दफ्तरों के समय पर खुलने और बंद होने, समय पर उपस्थिति ट्रेनों के सही समय पर चलने जैसे सफल परिणामों का उल्लेख करने में न जाने क्यों कंजूसी कर गई। इस पुस्तक में ‘वर्तमान’ का बोलबाला अवश्य सुनिश्चित किया गया । बहरहाल, जैसे-जैसे लोग इस पुस्तक को पढ़ते जाएंगे, प्रतिक्रियाएं भी सामने आएंगी। फिलहाल यही कहें कि कांग्रेस ने आत्म निरीक्षण का प्रयास किया है।

Monday, December 27, 2010

उमा भारती अनप्रिडिक्टेबल हैं

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
भारतीय जनता पार्टी में वापसी की अटकलों के बीच उमा भारती ने एक बार फिर विवादित बयान दे दिया। ऐसा वह क्यों करती या कहतीं हैं इस बारे में राजनीतिक गलियारों में दो तरह के विचार सुनने में आए। एक पक्ष का कहना है कि वह अपना महत्व बनाये रखने के लिए सोच-समझ कर ऐसे बयान देतीं है ताकि संदेश यह जाए कि भाजपा में लौटने की उन्हें गरज नहीं है। जरूरत भाजपा वालों की है जो उन्हें पार्टी में लौटने पर राजी करने की कोशिश कर रहे हैं।
एक अन्य पक्ष का मानना है कि उमाभारती के लिए सबसे उपयुक्त शब्द ‘अनप्रिडिक्टेबल’ है जिसका शब्दकोषों में अर्थ अननुमेय और तरंगी बताये गए हैं। अर्थात, ऐसा व्यक्ति जिसके विषय में कहना मुश्किल है कि वह कब क्या कर या कह बैठे। हाल के वर्षों में कांग्रेस के एक बड़े नेता ने उमाभारती के लिए अंग्रेजी भाषा के इसी शब्द का उपयोग किया था। बाद में भाजपा में ही कई नेताओं ने दबीजुबान से उक्त कांग्रेसी नेता की टिप्पणी का समर्थन किया था। उमाभारती ने जीवन में लंबा संघर्ष और त्याग किया है। उनकी उपलब्धियां साधारण नहीं हैं। उनके विरोधी तक मानते है कि राजनीति से जुड़े कुछ व्यावहारिक पक्षों का उन्होंने ध्यान रखा होता तब वह आज भाजपा की अगली पंक्ति के नेताओं में होतीं। लेकिन, उमाभारती स्वयं को बदलने के लिए शायद तैयार नही हैं। ‘‘पल में रत्ती पल में माशा और जरा में गुस्सा जरा में प्रसन्न’’ होने वाला उनका मन अधिकांश लोगों को परेशान कर देता है। बात यही खत्म नहीं हो जाती। उनके शुभचिन्तकों को तकलीफ उस समय अवश्य होती होगी जब उमाभारती उन्हीं के हित में किये जा रहे शुभचिन्तकों के प्रयासों को पलीता लगा देती हैं। उमाभारती की भाजपा में वापसी को लेकर गत एक-डेढ़ वर्ष के दौरान कई बार बातें हुईं, विरोध हुआ। याद करें हर बार उमाभारती की ओर से कोई कड़वा बयान आ गया।
पिछले दिनों उन्हें उत्तरप्रदेश में भाजपा को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी सौंपे जाने की खबरें मीडिया में आई। भाजपा के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार मध्यप्रदेश भाजपा में उनकी वापसी का विरोध हो रहा है और उत्तरप्रदेश में भाजपा को तेजतर्रार नेता की जरूरत है। सुनने में आया कि यह फार्मूला वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और संघ नेतृत्व की सहमति से तैयार किया गया था। खास बात यह रही कि उमाभारती की वापसी की खबर को लेकर उत्तरप्रदेश भाजपा के नेताओं के उदर खदबदाने लगे। उन्हें आशंकाओं ने बेचैन कर दिया। यूपी वाले फामूले पर अभी मामूली सा काम हुआ होगा किन्तु साध्वी ने बयान दे दिया, ‘‘ भाजपा में सुषमा स्वराज, अरूण जेटली और वेंकैया नायडू जैसे जनाधार विहीन नेता उनका विरोध कर रहे हैं। ये सभी संगठन में बड़े पदों पर है अत: भाजपा में लौटकर भी इन सभी को झेलना उनके लिए मुश्किल होगा। ‘‘ उमा ने अचानक यू टर्न ले लिया। उन्होंने बहुत साफ शब्दों में कह दिया कि वह भाजपा में नहीं लौट रही हैं। उमाभारती के ऐसे व्यवहार और बयान ने किसे हक्का-बक्का नहीं कर दिया होगा। खुले आम ऐसी टिप्पणी करने से पहले साध्वी ने एक पल के लिए इस वास्तविकता पर विचार नहीं किया कि इससे उन शुभचिन्तकों की स्थिति क्या होगी जो उन्हें पार्टी में लाना चाह रहे हैं। वह भाजपा समेत सभी राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की बात कह चुकी हैं। भारतीय जनशक्ति नाम से किया गया उनका प्रयोग कमोवेश फ्लाप रहा। इन तमाम सच्चाइयों के बीच एक सवाल खड़ा है कि उमाभारती भविष्य में करेंगी क्या ? उनके एक आलोचक ने कटाक्ष किया वह ‘‘अनप्रिडिक्टेबल’’ है।

बिनायक नहीं, खलनायक है यह

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
डॉ. बिनायक सेन इस देश में नियमित रूप से अखबार पढऩे और टीवी चैनलों पर समाचार सुनने वालों के लिए जाना-पहचाना नाम है। सवाल यह है कि इस व्यक्ति के नाम के आगे किस विशेष ‘अलंकरण’ का उपयोग करना उचित होगा? स्वयंभू मानव अधिकार कार्यकर्ता, नक्सलियों का कूरियर, राष्ट्रद्रोही, विध्वंसकारी ताकतों का साथी या फिर खलनायक? छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने बिनायक सेन को राजद्रोह का दोषी पाते हुए उम्रकैद की सजा क्या सुनाई, रायपुर से लेकर कोलकाता तक, दिल्ली से लेकर लंदन और अमेरिका तक बिनायक सेन के प्रति हमदर्दी रखने वाले लोग बौखला गए।
मानव अधिकारों की रक्षा के नाम पर सक्रिय ताकतें, कुछ बुद्धिजीवी और कतिपय कानूनविद फैसले के विरुद्ध जुबान फटकारने में जुट गये हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस राजिन्दर सच्चर फैसले पर चौंके हैं। कहने का मतलब वह नाखुश हैं। नाराज तो सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण भी बताये गये। वह सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले का हवाला देकर बताना चाह रहे हैं कि सेन को सुनाई गई सजा गलत है। मीडिया में भी बिनायक सेन के इक्का-दुक्का शुभचिंतक हैं। उन्होंने फटाफट कलम दौड़ाकर अपना निष्कर्ष पटक दिया कि बिनायक सेन के साथ न्याय नहीं हुआ। एक ओर देसी ज्ञानी अपना ज्ञान और कलम बिनायक गान में रगड़ रहे, वहीं दूसरी ओर एमेनेस्टी इंटरनेशनल ने आरोप लगा दिया कि बिनायक के मामले में निष्पक्ष सुनवाई के अंतरराष्ट्रीय मानदण्डों का पालन नहीं किया गया। एमेनेस्टी का दुस्साहस देखिये, वह सरकार से कह रही है कि बिनायक के विरुद्ध सारे आरोप वापस लेकर उसे मुक्त किया जाए।
दरअसल, बिनायक के मामले में जिस तरह मानव अधिकार कार्यकर्ता, इक्का-दुक्का बुद्धिजीवी और कानूनविद तथा एमेनेस्टी वाले बीच में कूदे हैं । वह उस न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप जैसी बात है जो अभी पूरी नहीं हुई । जब बिनायक सेन की पत्नी और उसके वकील ने हाईकोर्ट में अपील करने की घोषणा कर दी है फिर इतनी हायतौबा या राष्ट्र के साथ बौद्धिक बलात्कार का प्रयास आखिर क्यों? ऐसी बयानबाजी को भावी न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश कहा जा सकता है। एक पल को मान लें कि अभियोजन पक्ष के तमाम तर्क, तथ्य और सबूत गलत थे और सुनवाई पूरी तरह निष्पक्ष नहीं रही तब भी क्या ऊपरी अदालत में न्याय मिलने की गुंजाइश नहीं है। बिनायक सेन पर राज्य के खिलाफ संघर्ष का नेटवर्क तैयार करने के लिए माओवादी नक्सलियों के साथ साठगांठ करने का था। आरोप यह भी है कि उसने जेल में कैद नक्सली सान्याल के कूरियर के तौर पर काम किया और सान्याल के संदेश भूमिगत नक्सलियों तक पहुंचाये थे। एक विद्वान पत्रकार ने सेन के संदर्भ में लिखा है कि ‘‘ वैचारिक मतभेद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र में दिखाई देते रहे हैं। वैचारिक मतभेद रखने वालों को शत्रु नहीं माना जा सकता।’’ इस तरह के संवाद सुनने में अच्छे लगते हैं। बिनायक सेन ने जिन लोगों तक सान्याल के संदेश पहुंचाये वे हथियारमंद गिरोह के सदस्य हैं, उन्होंने कितने ही निर्दोष नागरिकों और सुरक्षा कर्मियों की हत्या की है और वे हथियारों के बूत्ते इस देश की सत्ता पर कब्जा करने का सपना देख रहे हैं। बिनायक सेन यदि बेकसूर है तब बड़ी अदालत से उसे न्याय अवश्य मिलेगा। वैसे बिनायक सेन से इतने नैतिक बल की आशा अवश्य की जाती है कि अगर उसने इस देश का कानून तोड़ा है तो इस बात को स्वीकार कर चुपचाप दण्ड भोगे। झूठे टोटकों के सहारे आखिर कैसे सजा से बचा जा सकता है।

Sunday, December 26, 2010

काम नहीं; फिर भी सांसदों को भत्ता

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान काम-काज तो कुछ खास नहीं हुआ लेकिन अधिकांश सदस्यों को बिना काम के भी सत्रावधि का दैनिक उपस्थिति भत्ता मिल रहा है। इस सत्र में कुल २३ बैंठकें होना निर्धारित थीं। इनमें से २२ बैठकों में कोई काम नहीं हुआ। हंगामे के कारण दोनों सदनों की बैठकें लगातार स्थगित होती रहीं। कांग्रेस के सदस्यों को छोडक़र शेष लगभग सभी दलों के सदस्यों ने दैनिक उपस्थिति भत्ते की कुल रकम ४४-४४ हजार रुपये अपनी जेबों में बेझिझक डाल लीं। २ जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले मामले की जांच संसद की संयुक्त समिति (जेपीसी) से करवाने की मांग पर अड़े विपक्ष ने बैठकें नहीं चलने दीं। कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने विपक्ष के दबाव के आगे झुकने से इंकार कर दिया था। इस टकराव का नतीजा यह रहा कि संसद के दोनों सदनों में कोई काम नहीं हुआ। कई विधेयकों और विषयों पर निर्णय अगले सत्र तक टल गया। सरकार की हठधर्मिता और विपक्ष के अडिय़ल रूख के कारण राष्ट्र को काफी नुकसान हुआ। अब दोनों पक्ष एक-दूसरे को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनके अपने-अपने तर्क हैं। कांग्रेस विपक्ष, विशेषकर भाजपा के व्यवहार को गैर-जिम्मेदाराना मानती है। भाजपा शीत सत्र नहीं चलने देने का दोष सरकार पर मढ़ रही है। इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की प्रेरणा से लोकसभा में कांग्रेस के १३७ सदस्यों तथा राज्यसभा में इसी पार्टी के ७० सदस्यों ने शीत सत्र अवधि का दैनिक उपस्थिति भत्ता नहीं लेने का फैसला लिया। इससे लगभग ७५ लाख रुपयों की बचत हुई। अनुमान है कि यदि सभी सदस्य दैनिक भत्ता नहीं लेते तो राष्ट्र के तीन करोड़ रुपये बच जाते। लेकिन यहां मुद्दा सिर्फ जनता के धन की बचत अकेले का नहीं है। सवाल नैतिकता का भी है। यह मांग कई बार उठ चुकी है कि संसद सदस्यों को सदन से अनुपस्थिति की स्थिति में दैनिक भत्ते का भुगतान नहीं किया जाना चाहिए। आप किसी भी कारण से सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले रहे हैं, सत्रावधि में एकाध दिन चेहरा दिखाने के बाद बैठकों से गायब रहते हैं और सार्थक बहस की बजाय हंगामा करके कार्यवाही में व्यवधान उत्पन्न करते हैं, ऐसी स्थिति में सदस्यों को दैनिक भत्ते का भुगतान क्यों किया जाए? हमारा मानना है कि संसद की बैठकों से गायब रहने वाले सदस्यों के वेतन से भी उसी अनुपात में कटौती की जानी चाहिए। प्रत्येक सांसद को अस्सी हजार रुपये प्रतिमाह वेतन और अन्य सुविधायें प्राप्त है। पांच साल के कार्यकाल में एकाध बैठक में उपस्थिति दर्ज कराकर वे पेंशन के हकदार हो जाते हैं दूसरी ओर सरकारी और निजी क्षेत्र में नौकरी करने वालों को सुविधाओं के लिए लंबी अवधि तक काम करना होता है। अनुपस्थिति या काम नहीं करने पर वेतन-भत्तों में कटौती की जाती है। क्या ‘नो वर्क-नो पे’ का फार्मूला जन प्रतिनिधियों के संदर्भ में लागू नहीं किया जाना चाहिए? शीतकालीन सत्र में बैठकें नहीं हो पाने के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष समान रूप से जिम्मेदार हैं। जेपीसी संंबंधी विपक्ष की मांग भले ही उचित मानी जाए किन्तु कांग्रेसी सांसदों ने अपना दैनिक भत्ता छोडक़र इमेज सुधारने की कोशिश की है।

काम नहीं; फिर भी सांसदों को भत्ता

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान काम-काज तो कुछ खास नहीं हुआ लेकिन अधिकांश सदस्यों को बिना काम के भी सत्रावधि का दैनिक उपस्थिति भत्ता मिल रहा है। इस सत्र में कुल २३ बैंठकें होना निर्धारित थीं। इनमें से २२ बैठकों में कोई काम नहीं हुआ। हंगामे के कारण दोनों सदनों की बैठकें लगातार स्थगित होती रहीं। कांग्रेस के सदस्यों को छोडक़र शेष लगभग सभी दलों के सदस्यों ने दैनिक उपस्थिति भत्ते की कुल रकम ४४-४४ हजार रुपये अपनी जेबों में बेझिझक डाल लीं। २ जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले मामले की जांच संसद की संयुक्त समिति (जेपीसी) से करवाने की मांग पर अड़े विपक्ष ने बैठकें नहीं चलने दीं। कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने विपक्ष के दबाव के आगे झुकने से इंकार कर दिया था। इस टकराव का नतीजा यह रहा कि संसद के दोनों सदनों में कोई काम नहीं हुआ। कई विधेयकों और विषयों पर निर्णय अगले सत्र तक टल गया। सरकार की हठधर्मिता और विपक्ष के अडिय़ल रूख के कारण राष्ट्र को काफी नुकसान हुआ। अब दोनों पक्ष एक-दूसरे को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनके अपने-अपने तर्क हैं। कांग्रेस विपक्ष, विशेषकर भाजपा के व्यवहार को गैर-जिम्मेदाराना मानती है। भाजपा शीत सत्र नहीं चलने देने का दोष सरकार पर मढ़ रही है। इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की प्रेरणा से लोकसभा में कांग्रेस के १३७ सदस्यों तथा राज्यसभा में इसी पार्टी के ७० सदस्यों ने शीत सत्र अवधि का दैनिक उपस्थिति भत्ता नहीं लेने का फैसला लिया। इससे लगभग ७५ लाख रुपयों की बचत हुई। अनुमान है कि यदि सभी सदस्य दैनिक भत्ता नहीं लेते तो राष्ट्र के तीन करोड़ रुपये बच जाते। लेकिन यहां मुद्दा सिर्फ जनता के धन की बचत अकेले का नहीं है। सवाल नैतिकता का भी है। यह मांग कई बार उठ चुकी है कि संसद सदस्यों को सदन से अनुपस्थिति की स्थिति में दैनिक भत्ते का भुगतान नहीं किया जाना चाहिए। आप किसी भी कारण से सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले रहे हैं, सत्रावधि में एकाध दिन चेहरा दिखाने के बाद बैठकों से गायब रहते हैं और सार्थक बहस की बजाय हंगामा करके कार्यवाही में व्यवधान उत्पन्न करते हैं, ऐसी स्थिति में सदस्यों को दैनिक भत्ते का भुगतान क्यों किया जाए? हमारा मानना है कि संसद की बैठकों से गायब रहने वाले सदस्यों के वेतन से भी उसी अनुपात में कटौती की जानी चाहिए। प्रत्येक सांसद को अस्सी हजार रुपये प्रतिमाह वेतन और अन्य सुविधायें प्राप्त है। पांच साल के कार्यकाल में एकाध बैठक में उपस्थिति दर्ज कराकर वे पेंशन के हकदार हो जाते हैं दूसरी ओर सरकारी और निजी क्षेत्र में नौकरी करने वालों को सुविधाओं के लिए लंबी अवधि तक काम करना होता है। अनुपस्थिति या काम नहीं करने पर वेतन-भत्तों में कटौती की जाती है। क्या ‘नो वर्क-नो पे’ का फार्मूला जन प्रतिनिधियों के संदर्भ में लागू नहीं किया जाना चाहिए? शीतकालीन सत्र में बैठकें नहीं हो पाने के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष समान रूप से जिम्मेदार हैं। जेपीसी संंबंधी विपक्ष की मांग भले ही उचित मानी जाए किन्तु कांग्रेसी सांसदों ने अपना दैनिक भत्ता छोडक़र इमेज सुधारने की कोशिश की है।

Wednesday, December 22, 2010

चूक गए चौहान

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)

व्यवस्था चरमरा जाना किसे कहते हैं ? अराजकता का क्या कोई दूसरा उदाहरण हो सकता है ? कहीं और की बात नहीं मालूम लेकिन मध्यप्रदेश की राजधानी-भोपाल के लोगों के लिए वह बेहद कड़वा अनुभव रहा। लोग लगभग सारा दिन हैरान-परेशान रहे। शहर के अंदर कहीं आना-जाना लगभग असंभव था। बाहर से आ रहे लोगों का शहर में प्रवेश मुश्किल से हो रहा था। सोमवार, २० दिसंबर २०१० का दिन भोपाल के इतिहास में अभूतपूर्व रहा। कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को लेकर अब तक का सारा विश्वास भ्रम साबित हुआ है। लगा प्रशासन नाम की कोई व्यवस्था ही नहीं है। प्रदेश भर से हजारों किसान आंदोलनकारी रातों-रात राजधानी में अंदर और बाहर नाकेबंदी कर डट गए और सरकार को कानों-कान खबर तक नहीं हुई। पुलिस ऊंघ रही थी और प्रशासन खर्राटे ले रहा था। हैरानी की बात है कि आंदोलन का नेतृत्व किसानों का वह संगठन कर रहा है जिसका जुड़ाव मध्यप्रदेश में सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी से बताया गया है। इस हकीकत को जानने के बाद मुंह से बस यही निकलेगा, अपनों ने अपनों से अपनों को चोट पहुंचवा दी। लोगों को आंदोलनकारी किसानों की मांगों को लेकर कोई शिकायत नहीं है। उन्हें शिकायत उनके आंदोलन से नहीं है। इस लोकतांत्रिक देश में इस तरह के आंदोलन पहले भी देखे जाते रहे हैं लोगों को शिकायत इस बात को लेकर है कि इतने विशाल जमावड़े की तैयारियां कस्बों, गांवों और छोटे-छोटे नगरों में लगभग दो माह से चल रही थी और भोपाल में बैठी सरकार को इसकी भनक तक नहीं लगी।
गांवों में किसान परेशान हो रहा है। उसे शिकायत है कि भ्रष्ट मशीनरी के कारण नकली बीज मिल रहे हैं। वह बीस-बीस घंटे बिजली बंद रहने से परेशान हैं। किसानों का एक बड़ा वर्ग आरोप लगा रहा है कि उन पर बिजली चोरी के झूठे मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। किसानों की और भी कई शिकायतें और उनसे जुड़ी मांगे हैं। सवाल यह है कि अन्नदाताओं में असंतोष बढ़ता रहा, वे नाराज हैं, एकजुट होकर भोपाल में आंदोलन की तैयारी करते रहे तथा सरकार को इसकी भनक भी कैसे नहीं लगी ? दरअसल, मध्यप्रदेश के किसानों के असंतोष और उनकी नाराजगी की जानकारी सरकार के सूचनातंत्र ने भोपाल, विशेषकर सचिवालय तक पहुंचने ही नहीं दी। किसानों की तकलीफों के बारे में छोटे और मझौले अखबार पिछले कई माह से रिपोटें प्रकाशित कर रहे थे। बड़े अखबारों के स्थानीय संस्करणों में इस आशय की खबरें आ रहीं थां । वो सारी खबरें, रिपोर्टें सरकार की आंखों के सामने नहीं आईं। यह सरकार के सूचनातंत्र की विफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। पत्रकारिता में बढ़ रही प्रतिस्पर्धा ने बड़े अखबारों को एरिया के अनुसार संस्करण छापने और परिशिष्ट निकालने पर विवश कर दिया है। भोपाल की खबरें बैरागढ़ के लोगों को नहीं मिलती। सरकार का सूचनातंत्र मीडिया में आ रहे बदलाव के अनुरूप सुसज्जित नहीं है। मीडिया में आ रही सूचनाओं को वह सरकार प्रशासन तक नहीं पहुंचा पा रहा। फिर, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के आस-पास एक ऐसी चौकड़ी सक्रिय है जिसे अप्रिय सूचनाओं के प्रवाह को बीच में रोक देने में महारत हासिल है। यही चौकड़ी मुख्यमंत्री को वही खबरें सुनाती और बातें बताती हैं जो उन्हें मीठी लगें। कड़वी सच्चाइयां बीच में छानकर मुख्यमंत्री की नजरों से दूर फेंक दी जाती हैं। दावा करते हुए रत्तीभर संकोच नहीं हो रहा कि किसानों की आंदोलन योजना की जानकारी मुख्यमंत्री तक नहीं पहुंचने दी गई। नतीजा सामने है। मध्यप्रदेश के किसानों ने अपनी एकता का दम दिखाया। उनकी ओर लोगों का ध्यान गया है किन्तु कल जो हुआ वह प्रशासन की विफलता का एक बुरा उदाहरण है।

Tuesday, November 2, 2010

दुनिया क्षीरसागर की तरह अथाह है

भगवान विष्णु का वास क्षीरसागर है। इसे विष्णुलोक, वैकुंठ वगैरह नामों से भी जाना जाता है। विष्णु को सृष्टि का संचालक माना गया है, वे तीनों देवों में ऐसे हैं जो इस सृष्टि का पालन करते हैं फिर क्या कारण है कि भगवान विष्णु को धरती या स्वर्ग जैसे किसी स्थान की बजाय समुद्र का वासी माना गया है। वे शेषनाग पर लेटे हैं और हमेशा क्षीरसागर में ही रहते हैं, ऐसा क्यों? पुराणों और अन्य धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक भगवान विष्णु जिस क्षीरसागर में रहते हैं वह कामधेनु गाय की पुत्री सुरभि के दूध से भरा है। वहीं पर भगवान विष्णु शेषशैया पर विश्राम करते हैं और वहीं से इस सृष्टि का संचालन करते हैं। वास्तव में यह प्रतीकात्मक स्वरूप है। अगर दार्शनिक या व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो क्षीरसागर, शेषनाग आदि सभी सांकेतिक हैं। दरअसल भगवान विष्णु सृष्टि के संचालक हैं और मूलत: वे एक गृहस्थ के प्रतिनिधि हैं। इसलिए भगवान विष्णु या कृष्ण सभी कर्म को महत्व देते हैं।
क्षीरसागर इसी दुनिया का प्रतीकात्मक रूप है। यह दुनिया भी क्षीरसागर की तरह अथाह है और इसमें सागर के पानी जितने ही सुख-दु:ख भी हैं। जिस शेषनाग पर भगवान लेटे हैं, वह मूलत: गृहस्थ जीवन का प्रतीक है। व्यक्ति संसार में सबसे ज्यादा गृहस्थी की जिम्मेदारियों से बंधा होता है। जिसमें परिवार, समाज, देश, गुरुजन और आत्मकल्याण ये पांच जिम्मेदारियां उसकी गृहस्थी से जुड़ी होती हैं। ये ही शेषनाग के पांच फन हैं। विशेष बात यह है कि ये पांच जिम्मेदारियां ही हमारा सबसे बड़ा सहारा और आश्रय भी है। जिम्मेदारियों और हमारे आश्रय के बीच का सामन्जस्य ही गृहस्थी को सफलतापूर्वक चला सकते हैं।

Wednesday, October 20, 2010

भगवान से दूर कर देती है निंदा की आदत

(पं. विजयशंकर मेहता )
दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा बड़ी प्रिय लगती है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के युग में एनालिसिस की आड़ में आलोचना और निंदा की आदत कब जन्म ले लेती है पता नहीं लगता। आलोचना और निंदा में बारीक-सा फर्क है।

निंदा का अर्थ है अपने अहंकार का दूसरे के अहंकार से टकराना, जबकि आलोचना का मकसद होता है कहीं न कहीं सत्य को ढूंढ़ना। निंदा के पीछे शत्रुता छिपी है और आलोचना मैत्री को साथ लेकर चलती है। निंदा में मिटाने का भाव है, आलोचना में जगाने की इच्छा होती है।

निंदा का नुकसान रानी कैकयी ने उठाया था। रामजी के राजतिलक के पूर्व एक ही रात में कैकयी के सामने मंथरा ने जो वार्तालाप आरंभ किया था, उसका आरंभ निंदा स्तुति से ही हुआ था। अपनी निंदा वृत्ति को उसने कैकयी में भी प्रवेश करा दिया था। कैकयी के जीवन में निंदा आते ही राम दूर चले गए। निंदा की आदत भगवान को हमसे दूर कर देती है।

निंदावृत्ति ने पूरे विश्व के धार्मिक दृश्य को आहत किया है। अनेक धार्मिक गुरु और उनके असंख्य अनुयायी एक-दूसरे के प्रति निंदा भाव रखने के कारण धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाते गए। धर्म शास्त्र अपने शब्दों से पहचाने गए हैं, निंदा के खेल में शब्दों की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन अध्यात्म थोड़ा धर्म से गहरा मामला है। यह शब्द से परे है। धर्म व्यक्त है, अध्यात्म अनुभूति है। हम और हमारा धर्म श्रेष्ठ, बाकी सब निकृष्ट है यह निंदावृत्ति की ही देन है।

Friday, October 8, 2010

क्यों जरूरी है जीवन में मौन?

मौन- सुनने में बड़ा भारी सा लगने वाला शब्द पर वास्तव में बड़ा ही अचूक शस्त्र। शस्त्र इसलिए की इससे बड़े से बड़ा दुश्मन भी नतमस्तक हो जाता है
मौन एक तरह का व्रत है साधना है। मौन-व्रत का सीधा सा मतलब होता है- अपनी जुबान को लगाम देना अर्थात अपने मन को नियंत्रित करते हुए चुप रहना।
मौन का एक अर्थ यह भी होता है अपनी भाषा शैली को ऐसा बनाएं जो दूसरों को उचित लगे।
पर क्या मौन इतना ही जरूरी है?
क्या मौन के बिना जीवन नहीं चल सकता?
मौन की आदत डालने से व्यक्ति कम बोलता है और जब वह कम बोलता है तो निश्चित रूप से सोच समझकर ही बोलता है।इस तरह से वह अपनी जुबान को अपने वश में कर सकता है।
यह बात तो प्रामाणित भी हो चुकी है कि सप्ताह में कम से कम एक दिन मौन रखने से कई आश्चर्यजनक परिणाम मिले हैं। फिर भी यदि मौन पूरे दिन नहीं रख सकते तो आधे दिन का जरूर रखना चाहिए।
बोलने से व्यक्ति के शरीर की शक्ति खत्म होती है। जो जितना ज्यादा बोलता है उसका एनर्जी लेबल, जिसे आन्तरिक शक्ति भी कहते हैं, का नाश होता है। यह आन्तरिक शक्ति शरीर में बची रहे इसलिए भी मौन व्रत जरूरी है।