Sunday, December 26, 2010
काम नहीं; फिर भी सांसदों को भत्ता
संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान काम-काज तो कुछ खास नहीं हुआ लेकिन अधिकांश सदस्यों को बिना काम के भी सत्रावधि का दैनिक उपस्थिति भत्ता मिल रहा है। इस सत्र में कुल २३ बैंठकें होना निर्धारित थीं। इनमें से २२ बैठकों में कोई काम नहीं हुआ। हंगामे के कारण दोनों सदनों की बैठकें लगातार स्थगित होती रहीं। कांग्रेस के सदस्यों को छोडक़र शेष लगभग सभी दलों के सदस्यों ने दैनिक उपस्थिति भत्ते की कुल रकम ४४-४४ हजार रुपये अपनी जेबों में बेझिझक डाल लीं। २ जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले मामले की जांच संसद की संयुक्त समिति (जेपीसी) से करवाने की मांग पर अड़े विपक्ष ने बैठकें नहीं चलने दीं। कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने विपक्ष के दबाव के आगे झुकने से इंकार कर दिया था। इस टकराव का नतीजा यह रहा कि संसद के दोनों सदनों में कोई काम नहीं हुआ। कई विधेयकों और विषयों पर निर्णय अगले सत्र तक टल गया। सरकार की हठधर्मिता और विपक्ष के अडिय़ल रूख के कारण राष्ट्र को काफी नुकसान हुआ। अब दोनों पक्ष एक-दूसरे को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनके अपने-अपने तर्क हैं। कांग्रेस विपक्ष, विशेषकर भाजपा के व्यवहार को गैर-जिम्मेदाराना मानती है। भाजपा शीत सत्र नहीं चलने देने का दोष सरकार पर मढ़ रही है। इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की प्रेरणा से लोकसभा में कांग्रेस के १३७ सदस्यों तथा राज्यसभा में इसी पार्टी के ७० सदस्यों ने शीत सत्र अवधि का दैनिक उपस्थिति भत्ता नहीं लेने का फैसला लिया। इससे लगभग ७५ लाख रुपयों की बचत हुई। अनुमान है कि यदि सभी सदस्य दैनिक भत्ता नहीं लेते तो राष्ट्र के तीन करोड़ रुपये बच जाते। लेकिन यहां मुद्दा सिर्फ जनता के धन की बचत अकेले का नहीं है। सवाल नैतिकता का भी है। यह मांग कई बार उठ चुकी है कि संसद सदस्यों को सदन से अनुपस्थिति की स्थिति में दैनिक भत्ते का भुगतान नहीं किया जाना चाहिए। आप किसी भी कारण से सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले रहे हैं, सत्रावधि में एकाध दिन चेहरा दिखाने के बाद बैठकों से गायब रहते हैं और सार्थक बहस की बजाय हंगामा करके कार्यवाही में व्यवधान उत्पन्न करते हैं, ऐसी स्थिति में सदस्यों को दैनिक भत्ते का भुगतान क्यों किया जाए? हमारा मानना है कि संसद की बैठकों से गायब रहने वाले सदस्यों के वेतन से भी उसी अनुपात में कटौती की जानी चाहिए। प्रत्येक सांसद को अस्सी हजार रुपये प्रतिमाह वेतन और अन्य सुविधायें प्राप्त है। पांच साल के कार्यकाल में एकाध बैठक में उपस्थिति दर्ज कराकर वे पेंशन के हकदार हो जाते हैं दूसरी ओर सरकारी और निजी क्षेत्र में नौकरी करने वालों को सुविधाओं के लिए लंबी अवधि तक काम करना होता है। अनुपस्थिति या काम नहीं करने पर वेतन-भत्तों में कटौती की जाती है। क्या ‘नो वर्क-नो पे’ का फार्मूला जन प्रतिनिधियों के संदर्भ में लागू नहीं किया जाना चाहिए? शीतकालीन सत्र में बैठकें नहीं हो पाने के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष समान रूप से जिम्मेदार हैं। जेपीसी संंबंधी विपक्ष की मांग भले ही उचित मानी जाए किन्तु कांग्रेसी सांसदों ने अपना दैनिक भत्ता छोडक़र इमेज सुधारने की कोशिश की है।
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