Wednesday, December 22, 2010

चूक गए चौहान

(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)

व्यवस्था चरमरा जाना किसे कहते हैं ? अराजकता का क्या कोई दूसरा उदाहरण हो सकता है ? कहीं और की बात नहीं मालूम लेकिन मध्यप्रदेश की राजधानी-भोपाल के लोगों के लिए वह बेहद कड़वा अनुभव रहा। लोग लगभग सारा दिन हैरान-परेशान रहे। शहर के अंदर कहीं आना-जाना लगभग असंभव था। बाहर से आ रहे लोगों का शहर में प्रवेश मुश्किल से हो रहा था। सोमवार, २० दिसंबर २०१० का दिन भोपाल के इतिहास में अभूतपूर्व रहा। कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को लेकर अब तक का सारा विश्वास भ्रम साबित हुआ है। लगा प्रशासन नाम की कोई व्यवस्था ही नहीं है। प्रदेश भर से हजारों किसान आंदोलनकारी रातों-रात राजधानी में अंदर और बाहर नाकेबंदी कर डट गए और सरकार को कानों-कान खबर तक नहीं हुई। पुलिस ऊंघ रही थी और प्रशासन खर्राटे ले रहा था। हैरानी की बात है कि आंदोलन का नेतृत्व किसानों का वह संगठन कर रहा है जिसका जुड़ाव मध्यप्रदेश में सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी से बताया गया है। इस हकीकत को जानने के बाद मुंह से बस यही निकलेगा, अपनों ने अपनों से अपनों को चोट पहुंचवा दी। लोगों को आंदोलनकारी किसानों की मांगों को लेकर कोई शिकायत नहीं है। उन्हें शिकायत उनके आंदोलन से नहीं है। इस लोकतांत्रिक देश में इस तरह के आंदोलन पहले भी देखे जाते रहे हैं लोगों को शिकायत इस बात को लेकर है कि इतने विशाल जमावड़े की तैयारियां कस्बों, गांवों और छोटे-छोटे नगरों में लगभग दो माह से चल रही थी और भोपाल में बैठी सरकार को इसकी भनक तक नहीं लगी।
गांवों में किसान परेशान हो रहा है। उसे शिकायत है कि भ्रष्ट मशीनरी के कारण नकली बीज मिल रहे हैं। वह बीस-बीस घंटे बिजली बंद रहने से परेशान हैं। किसानों का एक बड़ा वर्ग आरोप लगा रहा है कि उन पर बिजली चोरी के झूठे मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। किसानों की और भी कई शिकायतें और उनसे जुड़ी मांगे हैं। सवाल यह है कि अन्नदाताओं में असंतोष बढ़ता रहा, वे नाराज हैं, एकजुट होकर भोपाल में आंदोलन की तैयारी करते रहे तथा सरकार को इसकी भनक भी कैसे नहीं लगी ? दरअसल, मध्यप्रदेश के किसानों के असंतोष और उनकी नाराजगी की जानकारी सरकार के सूचनातंत्र ने भोपाल, विशेषकर सचिवालय तक पहुंचने ही नहीं दी। किसानों की तकलीफों के बारे में छोटे और मझौले अखबार पिछले कई माह से रिपोटें प्रकाशित कर रहे थे। बड़े अखबारों के स्थानीय संस्करणों में इस आशय की खबरें आ रहीं थां । वो सारी खबरें, रिपोर्टें सरकार की आंखों के सामने नहीं आईं। यह सरकार के सूचनातंत्र की विफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। पत्रकारिता में बढ़ रही प्रतिस्पर्धा ने बड़े अखबारों को एरिया के अनुसार संस्करण छापने और परिशिष्ट निकालने पर विवश कर दिया है। भोपाल की खबरें बैरागढ़ के लोगों को नहीं मिलती। सरकार का सूचनातंत्र मीडिया में आ रहे बदलाव के अनुरूप सुसज्जित नहीं है। मीडिया में आ रही सूचनाओं को वह सरकार प्रशासन तक नहीं पहुंचा पा रहा। फिर, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के आस-पास एक ऐसी चौकड़ी सक्रिय है जिसे अप्रिय सूचनाओं के प्रवाह को बीच में रोक देने में महारत हासिल है। यही चौकड़ी मुख्यमंत्री को वही खबरें सुनाती और बातें बताती हैं जो उन्हें मीठी लगें। कड़वी सच्चाइयां बीच में छानकर मुख्यमंत्री की नजरों से दूर फेंक दी जाती हैं। दावा करते हुए रत्तीभर संकोच नहीं हो रहा कि किसानों की आंदोलन योजना की जानकारी मुख्यमंत्री तक नहीं पहुंचने दी गई। नतीजा सामने है। मध्यप्रदेश के किसानों ने अपनी एकता का दम दिखाया। उनकी ओर लोगों का ध्यान गया है किन्तु कल जो हुआ वह प्रशासन की विफलता का एक बुरा उदाहरण है।

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