Monday, April 18, 2011

काले परिधान में साफ लोगों की जरूरत

----अनिल बिहारी श्रीवास्तव
भारत के प्रधान न्यायाधीश एस.एच.कापाडिय़ा ने कहा है कि ‘‘न्यायपालिका में काले परिधान में साफ लोगों की जरूरत है। इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सत्यनिष्ठा बनी रहेगी।’’ जस्टिस कापाडिय़ा की उक्त टिप्पणी में भ्रष्टाचार के आरोपों के माहौल में न्यायपालिका की छवि को लेकर उनकी चिंता प्रतिबिम्बित हो रही है। जस्टिस कापाडिय़ा को कहना पड़ा है कि जजों को आत्ममंथन बनाये रखना चाहिए और वकीलों, राजनेताओं, मंत्रियों और राजनीतिक दलों से सम्पर्क से बचें। उन्होंने यह भी सलाह दी कि उच्चस्तरीय जजों को अपने से निचली अदालत के प्रशासनिक कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। जस्टिस कापाडिय़ा की उक्त टिप्पणी का निचोड़ यही समझ में आ रहा है कि न्यायपालिका की पवित्रता बनाये रखने पर जोर दिया गया। संभवत: यही कारण है कि प्रधान न्यायाधीश ने जजों को राजनीतिक संरक्षण नहीं देने पर जोर दिया है। निष्पक्ष विश्लेषकों का यह निष्कर्ष काफी सही लग रहा है कि जस्टिस पीडी दिनाकरन और जस्टिस सौमित्र सेन से जुड़े भ्रष्टाचार के मुद्दों की पृष्ठभूमि में प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण बन गई है। साफ बात यह है कि राजनेताओं तक यह संदेश पहुंच चुका होगा कि न्यायपालिका को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने के लिए सहयोग करेंगे। इससे देश और समाज के साथ-साथ सियासी बिरादरी का ही भला होना है।
दो-तीन दिन पूर्व गांधीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने खुला आरोप लगाया था कि भ्रष्ट राजनेताओं ने आम लोगों के एक बड़े भाग को भी भ्रष्ट बना दिया है। अन्ना की टिप्पणी को वाकयुद्ध का एक हमला मानने की बजाय चिंतन इस बात पर किया जाए कि राजनेताओं ने अपने निहित स्वार्थों के लिए समाज के किस-किस हिस्से तक भ्रष्टाचार के कैंसर के वायरस को पहुंचाया है? इस संक्रमण से अगर अधिकांश विभाग और वर्ग प्रभावित हैं तब न्यायपालिका को भला कैसे सुरक्षित या अनछुआ माना जा सकता है? ऐसा माना जाता रहा है कि न्यायपालिका के निचले स्तर पर तुलनात्मक रूप से अधिक भ्रष्टाचार है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस मार्कण्डेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा द्वारा गत २६ नवंबर को की गई टिप्पणी को याद करें। न्यायाधीश द्वय ने कहा था कि ‘‘इस हाईकोर्ट के अधिकांश जज भ्रष्ट हैं और वकीलों से सांठ गांठ रखते हैं।’’ ऐतिहासिक फैसलों का समृद्ध इतिहास रखने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के संबंध में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आईना दिखाने जैसी है। बड़े दु:ख के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि हाईकोर्टों के कई जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले हैं। समस्या यह है कि उच्च न्यायपालिका के किसी न्यायाधीश को महाभियोग से ही हटाया जा सकता है। यह भी न्यायिक जांच के बाद संभव है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस वी.रामास्वामी का मामला याद करें। जांच में उन्हें दोषी पाया गया था। १९९२ में संसद में महाभियोग प्रस्ताव गिर गया। जाहिर है कि राजनीतिक बिरादरी में मौजूदा जस्टिस रामास्वामी के हमदर्दो ने वफादारी निभा दी। कर्नाटक के चीफ जस्टिस पी.डी. दिनाकरन को याद करें। गंभीर आरोपों के बाद भी वह अदालत में मामलों की सुनवाई करते और प्रशासनिक फैसले लेते रहे। गंगटोक स्थानांतरण आदेश का पालन उन्होंने विलंब से किया। इस हठी और अडिय़ल व्यवहार के पीछे के कारण राजनीतिक संरक्षण ही रहा है।
न्याय पालिका को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने के लिए जरूरी है कि नैतिक पतन, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के मामलों का निबटारा फास्ट ट्रैक कोर्ट से करवाया जाए। उच्च न्यायपालिका के भ्रष्ट जज को हटाने के लिए महाभियोग प्रक्रिया तेज हो। किसी न्यायाधीश के विरुद्ध कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति की ओर से मंजूरी की समय-सीमा तय की जाए। दरअसल, जजों की नियुक्ति से लेकर सेवानिवृत्ति तक के सभी फैसले लेने का अधिकार न्यायपालिका के हाथों में रहना चाहिए। कोई राजनेता न्यायाधीशों को किसी भी प्रकार से प्रलोभन देने की स्थिति में ही न रहे। इसके अलावा आचार संहिता के कड़ाई से पालन को सुनिश्चित करके न्यायपालिका को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है।

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