Monday, January 31, 2011

सरकार की ’गुल्लक’ नहीं हैं बैंक

--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से आग्रह किया है कि शीतलहर, पाला और तुषार से मध्यप्रदेश में हुई फसलों की बर्बादी के मद्देनजर वह वाणिज्यिक बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को निर्देश दें कि फसल ऋण लेने वाले किसानों का बकाया ब्याज माफ किया जाए तथा ऋण का पुनर्निर्माण हो। इस संबंध में मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा है कि हमने (प्रदेश सरकार ने) सहकारी बैंकों द्वारा किसानों को दिये जाने वाले फसल ऋण का न केवल पुनर्निर्धारण किया गया है बल्कि इन बैंकों द्वारा दिये गये फसल ऋण को भी माफ करने का निर्णय लिया गया है। इस बात में संदेह नहीं कि मौसम की दगाबाजी-पाला, शीतलहर और तुषार के चलते इस बार बड़े पैमाने पर फसलों को नुकसान हुआ है। खबर यह भी है कि रसायनों के अंधाधुंध उपयोग के चलते धरती की उर्वरता क्षमता प्रभावित हुई है। कुल मिलाकर किसानों पर दो-तरफा मार पड़ी। बैंकों, वित्तीय संस्थानों और साहूकारों से कर्ज लेकर खेती करने वाले किसानों विशेषकर छोटे और सीमांत किसानों में से अधिकांश को इस दो-तरफा मार ने हिलाकर रख दिया। एक ओर कर्ज का बोझ और दूसरी ओर पेट की आग को शांत करने की चिंता ने उन्हें विचलित कर रखा है। अन्नदाताओं के समक्ष ही अन्न के लाले जैसी स्थिति है। इससे उपजे तनाव और भय के चलते कुछेक किसानों द्वारा आत्महत्या की गई है। किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के मामले प्रकाश में आने के बाद प्रदेश सरकार और इसकी मशीनरी की सक्रियता बढ़ी और इसी के तारतम्य में किसानों के कर्ज पर ब्याज माफी की बात उठ गई। सुनने में यह सुझाव संवेदनापूर्ण और काफी हद तक वाजिब लगता है। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति किसानों के महत्व को समझते हुए और उनके प्रति उपजी सहानुभूति के प्रभाव के कारण ब्याज माफी के प्रस्ताव का समर्थन ही करेगा। लेकिन, यहां बैंकों, विशेषकर वाणिज्यिक बैंकों के साथ एक व्यावसायिक पक्ष जुड़ा हुआ है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि प्रधानमंत्री कैसे बैंकों से कह सकते हैं कि वे फसल ऋण पर ब्याज माफ कर दें। व्यावसायिक बैंक अथवा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक किसी को भी कर्ज देते हैं अथवा व्यावसायिक गतिविधियां चलाते हैं उसमें खर्च होने वाला धन क्या बैंकों का होता है? इस तथ्य से सभी अवगत होंगे कि बैंकों के धन का अधिकांश भाग उनके ग्राहकों द्वारा जमा की गई रकम से आता है। इसके अलावा लोगों ने बैंकों के शेयर आदि खरीदकर निवेश कर रखा है। इसी धन से जरूरतमंद लोगों को ऋण देकर ब्याज वसूला जाता है। वसूले गये ब्याज से जमाकर्ताओं को ब्याज, निवेशकों लाभांश, बैंक का परिचालन व्यय आदि निकाला जाता है। हमारे यहां एक गलत धारणा यह है कि बैंक का धन उसका अपना है, मानो वह कुबेर का खजाना हो। जिसे देखिये इस खजाने से चुल्लु-दो चुल्लु, बाल्टी दो बाल्टी उलीचने को तत्पर है। बैंक से कर्ज लेकर डकार जाना और अन्य तरीकों से बैंक को आर्थिक चोट पहुंचाने वाले शायद जानते हों कि इससे जमाकर्ताओं, निवेशकों और राष्ट्र को चोट पहुंचाई जाती है। भारतीय बैंकिंग उद्योग के साथ यह विडम्बना जुड़ी है कि यहां सत्ताधारी राजनेता सरकारी और राष्ट्रीयकृत बैंकों को अपने घर की ’गुल्लक’ मानते हैं। जब मर्जी है गुल्लक को उल्टा करो और सिक्के निकाल लो। अतीत के बैंक कर्ज माफी मेलों को इसी क्रम में रखा जा सकता है। सरकार बताये कि कर्ज माफी मेलों से बैंकों को लगी चोट उसने कितने सालों बाद मरहम लगाया। साफ बात यह है कि कर्ज माफी या ब्याज माफी जैसी लोक लुभावन घोषणाएं होनी ही नहीं चाहिए। कर्ज लिया है तो उसे चुकाना होगा और वह भी मय ब्याज के। प्रधानमंत्री को यह घोषणा करने का अधिकार अवश्य है कि किसानों द्वारा लिये गये कर्ज के ब्याज का भुगतान सरकार बैंकों को करेगी वह भी शीघ्रातिशीघ्र। बैंकों को कुबेर का खजाना समझेंगे तब आज किसान पीडि़त हैं, कल बैंक दम तोड़ेंगे, समूची अर्थ व्यवस्था ही चरमरा जाएगी।

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