(- अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
यह खबर सुनने में अच्छी लगी होगी कि देश में इंजीनियरिंग संस्थानों में दो लाख और प्रबंधन संस्थानों में पौने दो लाख सीटें बढ़ा दी जाएंगी। इस समय देश में तकनीकी शिक्षा दे रहे आठ हजार संस्थानों में इंजीनियरिंग की चार लाख और प्रबंधन की साढ़े तीन लाख सीटें हैं। लेकिन पिछले दो तीन सालों के दौरान देखा यह गया कि कई राज्यों में बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग और कुछ हद तक प्रबंधन की सीटें खाली जा रही हैं। पी.ई.टी मे फिसड्डी रहे छात्रों तक को इंजीनियरिंग कालेजों में प्रदेश दे दिया गया। सीटें भरने के लिए अनेक इंजीनियरिंग कालेजों ने अघोषित रूप से पहले वर्ष की शिक्षा नि:शुल्क तक देने का ऑफर दे दिया। आश्चर्य यह जानकर हुआ कि ऐसे लुभावने प्रस्ताव तक छात्रों को अधिक आकर्षित नहीं कर पाए। शिक्षाविदों का मत है कि इंजीनियरिंग पढ़ाई के प्रति कम होते रूझान की एक वजह कुछ ब्रांचों मे रोजगार की कम होती संभावनायें हैं। एक कारण यह भी है कि कुकरमुत्तों की तरह ऊग आए इंजीनियरिंग कालेजों में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की कमी है। अधिकांश इंजीनियरिंग कालेजों में पर्याप्त, कुशल और सक्षम शिक्षकों की भारी कमी है। नतीजा यह है कि अधकचरा ज्ञान लेकर निकल रहे इंजीनियरों को या तो अल्पवेतन वाली नौकरियां करनी पड़ रही हैं या फिर वे अर्जित ज्ञान से विपरीत पेशे में रोजगार तलाश रहे या बेरोजगारी से जूझ रहे हैं। कमोवेश यही स्थिति प्रबंधन पाठ्यक्रम चला रहे शिक्षण संस्थानों की बताई जाती है। उपर्युक्त सत्य को सामने रखकर विचार करने पर यही सवाल उठता है कि जब बेहतरीन शिक्षा आप सुनिश्चित नहीं कर पा रहे और बढिय़ा इंजीनियर बनाने में नाकाम रहे हैं, ऐसी स्थिति में इंजीनियरिंग की सीटें बढ़ाकर सरकार क्या राष्ट्र और छात्रों के साथ विश्चासघात नहीं कर रही?
इंजीनियरिंग और प्रबंधन जैसी स्थिति आने वाले दिनों में कानून की पढ़ाई में दिखाई देने लगेगी। इस समय देश में १४ राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय हैं। केंद्रीय कानून मंत्री ने कुछ माह पूर्व घोषणा की थी कि इसी तरह के १४ और विधि विश्वविद्यालय खोले जाएंगे। विधि मंत्री महोदय से सिर्फ यही एक प्रश्न करना है कि १४ और विधि विश्वविद्यालयों की आवश्यकता क्या है? इस समय देश में १६० सरकारी और प्रतिष्ठित निजी विधि शिक्षा संस्थान कानून की शिक्षा दे रहे हैं। विश्वविद्यालयों से संबद्ध विधि महाविद्यालयों को जोड़ लेने पर कानून की पढ़ाई कराने वाले संस्थानों की संस्था दो-सवा-दो सौ बैठेगी। मोटे तौर पर बीस हजार विधि स्नातक हर साल तैयार हो रहे हैं। यह शोध का विषय होना चाहिए कि इन विधि स्नातकों के दसवें हिस्से को भी क्या २४ कैरेट सोने की तरह का खरा कानून ज्ञाता कहा जा सकता है? अंदर की बात यह है कि मौजूदा १४ राष्ट्रीय लॉ स्कूल्स में से अधिकांश में बढिय़ा फैकल्टी का अभाव है। वहां दूर के ढोल सुहावने वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। चिन्ता का विषय यह है कि इंजीनियरिंग और कानूनी शिक्षा जैसी स्थिति चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में भी दिखाई देने लगी है। देश में लगभग ढाई सौ मेडिकल कालेजों में एम.बी.बी.एस. पाठ्यक्रम की ३२ हजार सीटें है। यह शिकायत लगातार सुनने में आती रही है कि कई निजी मेडिकल कालेज मोटी फीस वसूलने के बावजूद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहीं कराते है। कितने ही सरकारी मेडिकल कालेजो में शिक्षकों मे कमी के समाचार मीडिया में आते हैं। कमोवेश यही नजारा डेंटल और नर्सिंग कालेजों में देखा जा सकता है।
तथ्यों से साफ है कि हमारे यहां सरकार चलाने वालों का ध्यान गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की बजाय संख्या पूर्ण शिक्षा की ओर अधिक है। यह बात समझ में नहीं आती कि अभी आप अच्छे इंजीनियर, प्रबंधक और डॉक्टर बनाने में सक्षम नहीं है, फिर इन कोर्सो की सीटें बढ़ाकर कौन सा तीर मार लेंगे? पूर्व में डीम्ड विश्वविद्यालय और तकनीकी शिक्षा संस्थान खोलने की अनुमतियां फटाफट दे दी गई किन्तु उनके संसाधनों, सहूलियतों की ओर किसी ने ध्यान नही दिया। इस आशंका को निराधार कैसे माना जाए कि शिक्षा की दुकानों के खुलने में वे लोग भी मिले हुए है जिनके पास इन्हें अनुमति देने का अधिकार है। बेहतर होगा कि सरकार सीटें बढ़ाकर वाहवाही लूटने की बजाय गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा पर जोर दे।
Monday, January 3, 2011
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