--अनिल बिहारी श्रीवास्तव
मध्यप्रदेश में पिछले कुछ दिनों में किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने और आत्महत्या के प्रयासों के समाचारों ने समूचे देश का ध्यान एक बार फिर किसानों की समस्याओं की ओर खींचा है। यह सोचने पर हम विवश हुए हैं कि आखिर क्या कारण है जो सरकार चलाने वाले लोग अन्नदाताओं को ही भूखों मरने या उन्हें आत्महत्या जैसा कदम उठाने से नहीं रोक पा रहे हैं। हालांकि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने अथवा उनके आत्महत्या के प्रयासों को गंभीरता से लेकर कुछ कदम उठाते हुए प्रशासन को निर्देश दिये हैं लेकिन अभी उन निर्देशों का पालन और उसके प्रभाव का ऑकलन होना शेष है। हैरानी की बात कि इस कृषि प्रधान देश का कृषक ही सैकड़ों समस्याओं से जूझ रहा है। पहले महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके और कर्नाटक के किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के प्रति आमजन में नाराजगी काफी बढ़ी है। एक अनुमान के अनुसार इस देश में १९९७ से अब तक लगभग दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के जो प्रमुख कारण सामने आते रहे हैं उनमें आर्थिक तंगी, मौसम की मार के चलते फसलों के बर्बाद हो जाने, बैंकों और निजी स्रोतों से लिये गये कर्ज की अदायगी नहीं कर पाने, बिजली और पानी की अपर्याप्त आपूर्ति, घटिया बीज और नकली खाद आदि के कारण पर्याप्त फसल नहीं आ पाना आदि हैं। आज एक ओर विश्व के अधिकांश भागों में जब कृषि में वैज्ञानिक साधनों का उपयोग कर भरपूर उत्पादन प्राप्त किया जा रहा है, ऐसे दौर में भारत के दो-चार राज्यों को छोडक़र शेष सभी स्थानों पर किसान परम्परागत साधनों के साथ बंधा हुआ है। कितने ही राज्यों में बिजली के खम्बे खड़े और तार खिंचे दिख जाते हैं। लेकिन विद्युत आपूर्ति चार-छह घंटे भी नहीं हो पाती। विशेषज्ञों का मानना है कि विश्व व्यापार संगठन की मुक्त व्यापार नीतियों की मार भारतीय किसानों पर पड़ी है। कृषि उत्पादों के दाम इतने टूटे कि वे लागत तक नहीं निकाल पाते। उस पर बीज बिक्री से लेकर उत्पादन, वितरण तक में वैश्विक कारपोरेट की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष घुसपैठ ने किसानों को विचलित कर दिया है। इसके अलावा बिचौलियों ने उनके लाभ पर अलग डाका डाल रखा है। यह सुनिश्चित माना जाए कि इस देश में कम से कम सात राज्यों का किसान लगातार तनावग्रस्त रहता है। इनमें छोटे और सीमान्त किसानों की स्थिति अधिक खराब है। दरअसल, सरकारी तंत्र की ओर से सहयोग, समर्थन और मार्गदर्शन नहीं मिलने से ९५ प्रतिशत किसान समस्याओं से अकेले जूझते हैं। सफल हो गये तो ठीक वरना असफलता उनमें निराशा, कुण्ठा और तनाव पैदा करती है। सर्वेक्षण करा लिया जाए किस राज्य सरकार अथवा केंद्र ने किसानों की समस्याएं जानने स्थानीय निकायों, पंचायतों ,गैर सरकारी संगठनों से कभी कोई सीधी बात की? किसानों के लिए बनी कल्याणकारी योजनाओं, सहायता योजनाओं का लाभ किसानों तक कितना पहुंच पा रहा है? किसानों को बैंक ऋण सहायता राज्य सरकार की गारंटी पर मिलनी चाहिए। किसानों को छोटे-छोटे समूहों में खेती करने के बजाय समूह में सहकारिता के तहत खेती करने के लिए प्रेरित किया जाना एक अच्छा विकल्प हो सकता है। इससे उत्पादन लागत घटने में मदद मिलेगी। दरअसल, खेती को एक फलदायी और आकर्षक पेशे के रूप में पुन: स्थापित किये जाने की जरूरत है। यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह खेती को आकर्षक कैसे बनायें। अन्नदाताओं को ही अनाज के लाले हों, हम कैसे चुपचाप बर्दाश्त कर सकते हैं।
Friday, January 14, 2011
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